हमारा देश और समाज पूर्णरूपेण दो किनारों पर खड़ा है, जिसमें कोई तालमेल नहीं, कोई सौहार्द्ध नहीं, कोई समर्थन नहीं. एक किनारे पर कुछ हजार काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपति हैं तो दूसरे किनारे पर करोड़ों की तादाद में गरीब किसान-मजदूर और आम आदमी है, जो दो जून की रोटी और बेहतर भविष्य के सपने को लिए जन्म लेता है और फिर इसी सपने में जीते और मर जाते हैं, पर उनके सपने कभी पूरे नहीं होते. काॅरपोरेट घराना और दलाल पूंजीपति वर्ग इन दो किनारों को पाटने के लिए एक दलाल तबका पैदा करता है जो विभिन्न राजनैतिक दलों के रूपों में गरीब आम जनता को विभिन्न तरह के वादों-लालचों और कुछ टुकड़ों के साथ बेहतरीन भविष्य के सपने दिखा-दिखाकर उसे शान्त रखता है और समय-समय पर उसके आक्रोशों को अन्य दूसरे तरीकों से सेफ्टी-वाॅल्व की तरह बाहर निकालते रहता है, पर जनता की बुनियादी समस्या को कभी भी हल नहीं करता.
जनता के बीच के आक्रोशों को अगर इन तमाम तरीकों के बावजूद जब हल नहीं किया जा सकता तब उसके लिए सशस्त्र सैन्य बल को तैयार रखता है, जो बेहिचक अपने ही भाईयों पर पिटाई, हत्या और लूट को अंजाम देता है, पर जनता की बुनियादी समस्या को कदापि हल नहीं करता. हल वह कर भी नहीं सकता क्योंकि वह (राजनैतिक दल) केवल अपने काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपति वर्ग का दलाल मात्र ही होता है, नीति-नियंता नहीं. वह काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपति वर्ग की दलाली करना ही अपनेे जीवन का लक्ष्य बना लेता है क्योंकि जनता की तमाम समस्याओं के हल का अर्थ है काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपति सहित उसके दलाल राजनैतिक दलों का अंत.
इन दोनों किनारों के बीच यह काॅरपोरेट घराना और दलाल पूंजीपति कुछ टुकड़खोर बुद्धिजीवियों का एक पूरा पैदावार तैयार करता है, जो जनता को विभिन्न तरीकों से भ्रमित करने के लिए नये-नये तरीके ईजाद करता रहता है. यह काॅरपोरेट घराना और दलाल पूंजीपति इस बात का पूरा-पूरा ख्याल रखता है कि आम जनता के बेटे-बेटियां पढ़-लिख कर कहीं होशियार न हो जाये और सवाल न खड़े कर दे इसके लिए उच्च कोटि के शिक्षण संस्थानों में उनके प्रवेश को प्रतिबंधित करने से लेकर उसे बंद करने तक का इंतजाम करता है. इसके बाद भी पाठ्यपुस्तकों में काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपति के हिसाब से बदलाव करने के अलावे उनको प्रताड़ित करना और हत्या कर देना तक शामिल रहता है.
राष्ट्र और राष्ट्रभक्ति को चंद काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपतियों के हितों से जोड़कर देखने को ही बना दिया जाता है. यही कारण है कि सत्ता में चाहे कोई भी राजनीतिक दल आये पर इसके नीतियों में कोई बदलाव नहीं होता. हां, इसके नीतियों को लागू करने में अलग-अलग तरीका भले ही हो सकता है.
इन तमाम कवायदों का एक परिणाम भी निकलता है. समाज के उन शोषित-पीड़ित तबका भी इसे ही अपना ध्येय बना लेता है. फल यह निकलता है कि कई बार ये अपने हित में काम करनेवाले सच्चे हिस्सों को भी समझ नहीं पाते और उसके विरोध में जाकर काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपतियों के काम को ही आसान बना देते हैं.
आम जनता के हितों में काम करने वाले सच्चे लोग जब सामने आते हैं तो उसे खरीदने की पूरी कोशिश होती है और न खरीदे जाने पर उसे प्रताड़ित करने से लेकर उनको जेल भेजने से लेकर हत्या करने तक की कोशिश की जाती है. पटियाला हाऊस कोर्ट में अरविन्द केजरीवाल और उसके टीम को भरी अदालत में जज के सामने हत्या करने की धमकी को इसी अंदाज में लेना चाहिए.
अरविन्द केजरीवाल और उसकी टीम को भरी अदालत में जज के सामने हत्या की धमकी इस तथाकथित नकली लोकतंत्र और इसके आड़ में काॅरपोरेट घरानों और दलाल पूंजीपतियों की भारी लूट को जहां पूरी तरह नंगी कर देती है वहीं कट्टर वामपंथियों के इस बात को भी बल प्रदान करेगी कि आम आदमी की सत्ता केवल और केवल बन्दूक की नली से निकलती है और फिलहाल काॅरपोरेट घराना और दलाल पूंजीपति समेत उसके तमाम दलाल राजनैतिक दल यह कदापि नहीं चाहेगा.
S. Chatterjee
March 27, 2017 at 5:56 am
भारत जब आजाद हुआ था उस समय यह एक प्रधान रुप से सामंतवादी देश था जहां औद्योगिक विकास शुरुआती दौर में था। १९८० के उदारीकरण के बाद निजी पूंजी का विकास तेजी से हुआ और साथ में ही बाजारीकरण। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सेवाएं निजी हाथों में सौंप दी गई। सरकार का जन कल्याण चेहरा विलुप्त होने लगा। भारत वेलफेयर स्टेट नहीं रहा। कमजोर, दलाल सरकारें आती जाती रही। इस माहौल में उस विचार धारा वाली पार्टी को आगे बढ़ना ही था जो इन बाजारवादी शक्तियों से बेहतर तालमेल बैठाने में कामयाब हुई। कांग्रेस इसमें असफल रही। बी टी रणदिवे का देशी और दलाल पूंजी का सिद्धांत पुराना पड़ चुका था क्योंकि नये माहौल में दोनों एक ही बन गये। अनिश्चितता और बदहवासी के इस माहौल में धुर दक्षिणपंथी ताकतें संघबद्ध हुई और जनता को ये ख़्वाब बेचना में सफल हुई कि भारत की परिकल्पना ही गलत थी और हमारे संविधान में निहित भावनाओं को सिरे से खारिज किये बिना कोई उद्धार संभव नहीं है। आज जिस संक्रमण काल में हम खड़े हैं वह दर असल एक देश की अपनी पहचान स्थापित करने की चेष्टा है। सत्य यही है कि हम सिर्फ सत्तर साल पुरानी लोकतंत्र हैं और राजा की तलाश अभी भी जनमानस का एक हिस्सा है। क्रमशः ये दौरे भी गुजर जायेगा और लोग हजारों साल के स्थापित जन कल्याण कारी मूल्यों के साथ खड़ी होगी। भारत को कोई बाजार नहीं जीत सकता।