Home कविताएं निर्मला पुतुल की दो कविताएं

निर्मला पुतुल की दो कविताएं

16 second read
0
0
98

1. वहीं ब्याहना मुझे !

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहां मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियां बेचनी पड़े तुम्हें

मत ब्याहना उस देश में
जहां आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहां
वहां मत कर आना मेरा लगन

वहां तो कतई नहीं
जहां की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियां
ऊंचे-ऊंचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आंगन न हो
मुर्गे की बांग पर जहां होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहां
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर

काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर
जो बात-बात में बात करे लाठी-डंडे की
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूंगी बदल लूंगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे

और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नहीं उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो ‘ह’ से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
महुआ का लट और खजूर का गुड़
ब्याहना तो वहां ब्याहना
जहां सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊं इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप…

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूं सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूं कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गांव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहां ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहां
वहीं ब्याहना मुझे !

2. एक बार फिर

एक बार फिर
हम इकट्ठे होंगे
विशाल सभागार में
किराए की भीड़ के बीच

एक बार फिर
ऊंची नाक वाली
अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएं
करेंगी हमारे जुलुस का नेतृत्व
और प्रतिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने

एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से खड़ी माइक पर वे चीख़ेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियां बटोरते
हाथ उठा कर देंगी साथ होने का भरम

एक बार फिर
शब्दों के उड़न-खटोले पर बिठा
वे ले जाएंगी हमें संसद के गलियारों में
जहां पुरुषों के अहम से टकराएंगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जाएंगे
उसमें निहित हमारे सपने

एक बार फिर
हमारी सभा को सम्बोधित करेंगे
माननीय मुख्यमंत्री
और हम गौरवान्वित होंगे हम पर
अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से

एक बार फिर
बहस की तेज़ आंच पर पकेंगे नपुंसक विचार
और लिए जाएंगे दहेज़-हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीडन
वेश्यावृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर
लड़ने के कई-कई संकल्प

एक बार फिर
अपनी ताक़त का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुज़रेंगे शहर की गालियों से
पुरुष-सत्ता के खिलाफ़
हवा में मुट्ठी बांधे हाथ लहराते
और हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से
गरम हो जाएगी शहर की हवा

एक बार फिर
सड़क के किनारे खडे मनचले सेकेंगे अपनी आंखें
और रोमांचित होकर बतियाएंगे आपस में कि
यार, शहर में बसंत उतर आया है

एक बार फिर
जहां शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
इकट्ठे होकर हम लगाएंगे उत्तेजक नारे
वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में
ब्रा-पेंटी वाली सिने-तारिकाएं
बेशर्मी से नायक की बांहों में झूलती
दिखाएंगी हमें ठेंगा
धीर-धीरे ठंडी पड़ जाएगी भीतर की आग
और एक बार फिर
छितरा जाएंगे हम चौराहे से
अपने-अपने पति और बच्चों के
दफ़्तर व स्कूल से लौट आने की चिंता में

  • निर्मला पुतुल

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
G-Pay
G-Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

अगर मैं कभी गायब हो जाऊं अचानक से…

अगर मैं कभी गायब हो जाऊं अचानक से, कभी निकल जाऊं घर छोड़ के बिना बताए, तो मेरे भाई मुझे मत…