कांग्रेस शासन काल में गरजने-बरसने वाली भारतीय जनता पार्टी जब भारत की सत्ता पर काबिज हुई, तुरन्त हीं कांग्रेस के छोड़े निजीकरण सहित सारे काम जो कच्छप चाल में रही थी, उसे न केवल पूरी तरह अपना लिया वरन जोर-शोर से लागू करना शुरू कर दिया. वे सारे एजेंडे जिसका भाजपा जमकर विरोध करती रही थी सत्ता में आते ही रातों-रात उन मुद्दों की खूबियां गिनाने लगी. लागू करने के नये-नये तरीके अपनाने लगी.
देश भर के तमाम जनवादी-सामाजिक लोग जो कांग्रेस शासनकाल में निजीकरण के विरोध में उठ खड़े हो रहे थे, एकबारगी भौच्चक से हैं. एक मुद्दे को लेकर लोग लामबंद भी नहीं हो पाते हैं तब तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार तीन नये मुद्दे तैयार कर देती है. रोहित वेमुला का मुद्दा ठीक से उठ भी नहीं पाता है कि जे0एन0यू0 मुद्दा बन जाता है, तुरंत ही नजीब का नया मुद्दा आ जाता है. यह सब केवल संवेदनशील लोगों को उलझाये रखकर जनविरोधी कदमों को लागू करने की साम्राज्यवादी साजिश का हिस्सा है.
ऐसे ही समय में जब संवेदनशील लोग इन मुद्दों से जुझ रहे होते हैं तभी मध्य प्रदेश से खबर आ जाती है कि सरकार 10 हजार सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला ले रही है, दूसरे राज्य राजस्थान से भी खबर आने लगती है कि वहां भी 20 हजार सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला लिया जाने वाला है. अभी कुछ दिन पहले ही खबर थी कि आई0एस0ओ0 प्रमाणित एक रेलवे स्टेशन को एक निजी कम्पनी के हाथों में सौंप दिया गया है. मौजूदा भारत सरकार ने जनता की बुनियादी जरूरत शिक्षा को आम लोगों से पहुंच से दूर करने को कृतसंकल्पित है. स्वास्थ्य को तो पहले ही निजी हाथों में सौंप दिया गया है. दूरसंचार सेवा को तो निजीकृत पहले ही कर दिया गया है. आत्महत्या को मजबूर किसानों के बहुमूल्य जमीनों को छीन कर काॅरपोरेट घरानों को सौंपने की कवायद लगातार हो रही है.
संवेदनशील लोगों के लिए न्यायालय एक जगह बच जाती थी, वहां भी सुप्रीम कोर्ट तक में अपने दलालों को तैनात कर इस छोटी-सी उम्मीद को खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है. एक दूसरी उम्मीद जो चुनाव के माध्यम से सत्ताधारी दल पर दबाब बनाने की होती है, भारतीय जनता पार्टी ने इसका भी काट ई0वी0एम0 में उलटफेर और चुनाव आयोग में भी अपने दलालों को तैनात कर निकाल लिया है. मुख्यधारा के चैनलों को तो खरीद कर चुप कब का करा दिया है. आगे बढ़कर सोशल मीडिया पर भी अपने ट्राॅल्स को बैठा कर विरोधी को खामोश कराने का चेष्टा किया जा रहा है.
अब फिर वही सबाल उठ खड़ा होता है कि आखिर जनवादी-सामाजिक संवेदनशील लोग जाये तो जाये किधर ?