सुब्रतो चटर्जी
भूख पाशविक है, रुचि मानवीय है. इस छोटे से फ़र्क़ को बिना समझे किसी भी मनुष्य के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवहार और चरित्र को नहीं समझा जा सकता. हर तरफ़ बढ़ती हुई बलात्कार, लूट और भ्रष्टाचार की घटनाएंं एक दिग्भ्रमित समझ का ही परिणाम है. इसके लिए जितनी ज़िम्मेदारी हमारे देश, समाज की प्रचलित रूढ़ियों, विश्वासों और मान्यताओं की है, उतनी ही ज़िम्मेदारी हमारे व्यक्तिगत चरित्र और चुनाव का है.
मैं बार-बार कहता हूंं कि आपका चुनाव ही आपका चरित्र है, और यह चुनाव सिर्फ़ पांंच सालों में एक बार पोलिंग बूथ के अंदर तक नहीं सीमित रहता. गांंधी हों या लेनिन, नेल्सन मंडेला हैं या माओ, लिंकन हों या हो ची मिन्ह, व्यक्तिगत आचरण, सोच और व्यवहार की शुचिता के बगैर कोई भी जनमानस पर स्थाई प्रभाव नहीं डाल सकता. सवाल दक्षिण या वामपंथ का नहीं है, सवाल ग़लत को अस्वीकार कर सच का साथ देने का है.
पूरे विश्व साहित्य और दर्शन में वही लेखक या दार्शनिक यादगार बने जिन्होंने, गांंधी जी के अनुसार, समाज के आख़िरी व्यक्ति की बात की. गांंधीवाद कहांं तक एक राजनीतिक विचार के तौर पर इसे सुनिश्चित कर पाता है, यह एक अलग बहस का मुद्दा है, जो इस लेख का विषय नहीं है.
विज्ञान के क्षेत्र में भी वही हाल है. एटम बम बनाने वाले वैज्ञानिक के नाम से अलेक्ज़ेंडर फ़्लेमिंग और मेरी क्यूरी का नाम हर युग में ज़्यादा सम्मान से लिया जाएगा. मुद्दे की बात ये है कि निर्माण और विध्वंस की दो प्रवृत्तियों में से निर्माण की प्रवृत्ति ही मानव सभ्यता के विकास में सहयोगी है, इसलिए वे स्मरणीय और पूजनीय है.
सुनने में बहुत आसान लगता है लेकिन इसे कार्यरुप देना इतना आसान नहीं है. जब आपके सारे पड़ोसी के बच्चे अंग्रेज़ों मीडियम चकाचक स्कूलों में पढ़ते हों, तब अपने बच्चे को बदरंग दीवारों वाले सरकारी स्कूल में डालने जैसा कठिन. जब आपके सारे मित्रों के पास मोटरसाइकिल हो , तो आपके लिए साईकिल की सवारी जैसा कठिन. जब आपके सारे सगे-संबंधी अपनी बेटी की शादी धूमधाम से करते हों, अपनी बेटी की शादी सादगी से निपटाने जैसा कठिन.
यहांं कुछ उदाहरणों से समझाने का प्रयास किया है कि मुख्य धारा के विपरीत जाकर कुछ भी करना कितना कठिन होता है. यह कठिनाई हमारे दिमाग़ में रहती है, वास्तव में नहीं. हम अपनी सोच को प्रचार, दिखावा और मिथ्या के हाथों बंधक रखकर एक सुखानुभूति में जीने के आदि हो जाते हैं, जो धीरे-धीरे हमारे समग्र व्यक्तिगत चेतना और चरित्र दोनों को निगल जाता है.
राजनीतिक चुनाव में भी यही हाल है. हम ग़रीबों को तो गाली दे सकते हैं कि वे पांंच सौ रुपए और एक बोतल दारू के लिए किसी को वोट दे देते हैं, लेकिन, जब अपनी बारी आती है तो भूल जाते हैं कि हम भी जाति, धर्म, स्वार्थ के बोतलबंद दारू पर बिकते हैं.
ग़रीबों को तो फिर भी मालूम है कि भारतीय सड़ी हुई व्यवस्था में कोई भी संसदीय चुनाव में विश्वास करने वाला दल उनके हित में कुछ नहीं करने वाला, इसलिए एक दिन की मस्ती ही सही. हमारी हालत तो और दयनीय है. हमें तो पांंच सौ रुपए और एक बोतल दारू भी नहीं मिलती. हम तो बेगारी मज़दूर हैं विभिन्न राजनीतिक दलों का, महज़ एक झंडाबरदार, जिसे जुलूस ख़त्म होने के बाद घर लौटने का किराया भी नहीं मिलता.
ये शब्द व्यंजना में नहीं लिखे गए हैं. मैं साठ और सत्तर के दशकों के चुनावों का गवाह हूँ जब विभिन्न राजनीतिक दल, ख़ासकर कॉंंग्रेस, महिलाओं को पोलिंग बूथ पर रिक्शे से ले आती थी, लेकिन लौटने के लिए पैदल छोड़ देती थी. एक पूंंजीवादी व्यवस्था में बुर्जुआ संविधान के तहत होने वाले चुनाव में हर वयस्क बस एक वोट है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं.
ख़ैर, अब तो हम वो भी नहीं रहे. फ़ासिस्ट चुनाव के माध्यम से सत्ता पर क़ाबिज़ हैं. हमारे वोट का कोई अर्थ नहीं है. अगर ईवीएम से संभव नहीं तो जनप्रतिनिधियों को ख़रीद कर अपने पाले में करने के लिए उनके पास अकूत दौलत है. मतलब चुना कोई भी गया हो, राज वे ही करेंगे. पैसा बोलता है, और सर चढ़कर बोलता है. तभी तो एक टुच्चा तड़ीपार सीना ठोक कर कहता है कि उनको तीन सौ सीटें आएँगी और ईवीएम मशीन कहती है, जो हुक्म मेरे आका !
मेरे कुछ प्रबुद्ध मित्र ईवीएम में छेड़छाड़ की बात से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते. कुछ हद तक वे सही हैं, क्योंकि गोबरपट्टी में क्रिमिनल लोगों को चुनने के लिए किसी ईवीएम को छेड़ने की ज़रूरत नहीं है, और मेरे डाटा विशेषज्ञ मित्र भी गोबरपट्टी से हैं. बात जब बंगाल की आती है या अन्य ग़ैर हिंदी भाषी भारत की तब मामला कुछ अलग होता है.
विषयांतर न करते हुए, लेख के मूल प्रश्न पर लौटते हैं. जिंदगी की सार्थकता हमारे छोटे छोटे चुनावों में निहित है. भूख लगना स्वाभाविक है, क्या खाना उचित है, यह हमारा चुनाव है. हर लड़ाई अपने आप से शुरु होती है लेकिन उसका वृहत उद्देश्य समाज और मानवता की बेहतरी के लिए होनी चाहिए.
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