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संभव है कि जेलेंस्की की हालिया बगावत महज़ स्क्रिप्टेड ड्रामा हो

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संभव है कि जेलेंस्की की हालिया बगावत महज़ स्क्रिप्टेड ड्रामा हो
संभव है कि जेलेंस्की की हालिया बगावत महज़ स्क्रिप्टेड ड्रामा हो

जेलेंस्की की तथाकथित हिम्मत को अगर गहराई से देखें, तो यह हिम्मत कम, मजबूरी ज्यादा लगती है. 2014 में जब यूक्रेन में अमेरिका समर्थित मेडान रिवोल्यूशन हुआ और रूस-समर्थित राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को सत्ता से हटाया गया, तभी से यूक्रेन अमेरिका की कूटनीतिक बिसात का मोहरा बन चुका था. इसके बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों ने लगातार यूक्रेन को रूस के खिलाफ भड़काया, NATO में शामिल करने का लालच दिया, और अंततः 2022 में रूस के साथ युद्ध की स्थिति बना दी.

हकीकत यह है कि अमेरिका ने खुद 2022 में जेलेंस्की को शांति वार्ता करने से रोका था. जब रूस और यूक्रेन के बीच इस्तांबुल में शांति वार्ता हो रही थी, तभी बोरिस जॉनसन, जो तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, ने जेलेंस्की से कहा कि पश्चिम रूस के साथ किसी समझौते को स्वीकार नहीं करेगा.

अब सवाल यह उठता है कि अमेरिका ने यूक्रेन को इस हालत में क्यों पहुंचाया ? इसका जवाब साफ है—रूस को कमजोर करना और यूरोप को हमेशा अपनी सुरक्षा नीति पर निर्भर बनाए रखना. अमेरिका ने न सिर्फ यूक्रेन को रूस के खिलाफ फ्रंटलाइन स्टेट बना दिया, बल्कि यूरोप को भी सस्ते रूसी गैस से वंचित कर अपने महंगे LNG पर निर्भर करवा दिया. यही कारण है कि आज यूरोप महंगाई और आर्थिक अस्थिरता झेल रहा है, जबकि अमेरिका अपने हथियारों और ऊर्जा निर्यात से लाभ कमा रहा है.

रूस का कहना साफ है कि NATO का पूर्व की ओर विस्तार उसकी सुरक्षा के लिए खतरा है. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस को वादा किया था कि NATO पूर्व की ओर नहीं बढ़ेगा लेकिन इसके बावजूद NATO ने 14 पूर्वी यूरोपीय देशों को अपनी सदस्यता दी, जिससे रूस को सीधी चुनौती मिली. यूक्रेन रूस के लिए आखिरी सीमा थी, जिसे वह NATO का सदस्य होने देना स्वीकार नहीं कर सकता था.

असली सवाल यह है कि क्या जेलेंस्की अपनी विदेश नीति को स्वतंत्र रूप से तय कर पा रहे हैं ? क्या वह रूस के साथ शांति वार्ता के लिए पहल कर सकते हैं ? या फिर वे सिर्फ अमेरिका और यूरोप की इच्छा के अनुसार ही चलते रहेंगे ?

जहां तक ट्रंप की बात है, तो वे हमेशा अमेरिका फर्स्ट नीति पर चलते हैं—चाहे भारत हो या कोई और देश, वे केवल अपने देश का फायदा देखते हैं. तो यह कहना कि जेलेंस्की ने अमेरिका की बेइज्जती कर दी, एक भ्रम मात्र है. सच्चाई यह है कि अमेरिका अभी भी यूक्रेन की दिशा तय कर रहा है, और जेलेंस्की अब भी उसी बिसात का प्यादा मात्र हैं.

यह भी संभव है कि जेलेंस्की की हालिया बगावत महज़ स्क्रिप्टेड ड्रामा हो, जिसे अमेरिका ने खुद लिखा हो. हाल ही में जेलेंस्की की अमेरिकी प्रतिनिधियों के साथ बंद कमरे में अकेले वार्ता हुई थी. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर इसी बैठक में यह तय हुआ हो कि जेलेंस्की को अमेरिका की आलोचना करने दी जाए, ताकि उनकी जनता और सहयोगियों के बीच उनकी छवि एक स्वतंत्र नेता की बनी रहे.

अमेरिका के लिए यह रणनीति फायदेमंद है—एक तरफ वे जेलेंस्की को थोड़ा स्वतंत्र दिखाकर उनकी सत्ता बनाए रख सकते हैं, दूसरी तरफ यूक्रेन को अपनी नीतियों के तहत ही नियंत्रित भी कर सकते हैं. अगर यह वाकई कोई पूर्वनिर्धारित स्क्रिप्ट थी, तो इसका मकसद यही था कि जेलेंस्की की लोकप्रियता बनी रहे और अमेरिका के समर्थन पर संदेह न हो.

इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा. अमेरिका पहले भी अपनी कठपुतलियों को थोड़ी स्वतंत्रता दिखाने की अनुमति देता रहा है, ताकि उनकी विश्वसनीयता बनी रहे. अफगानिस्तान में अशरफ गनी, इराक में नूरी अल-मालिकी और लैटिन अमेरिका के कई अमेरिकी-समर्थित नेताओं के साथ यही खेल खेला जा चुका है.

  • मनोज अभिज्ञान

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