सरफरोशी की तमन्ना
अब हमारे दिल में है
जब लाल- लाल लहराएगा
तब होश ठिकाने आएगा
सुर्ख होगा, सुर्ख होगा
एशिया सुर्ख होगा !
– लाहौर विश्विद्यालय के छात्र
वीडियो में लाहौर विश्वविद्यालय, पाकिस्तान के छात्र हैं. देश कोई भी हो विश्वविद्यालयों का जिंदा रहना जरूरी है. 1947 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कन्वोकेशन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था – अगर विश्वविद्यालयों के साथ सब कुछ सही है तो इसका मतलब देश में सब कुछ ठीक चल रहा है.’ आप पंडित नेहरू की बात से अंदाजा लगा सकते हैं वर्तमान के परिपेक्ष में क्या अपना देश समाज किस ओर जा रहा है ?
लाजिम है…वो देख तो रहे हैं. वो सेना में कैप्टन थे. वो अंग्रेजी के प्रोफेसर थे. वो अरबी, फारसी, पंजाबी, ऊर्दू जानते थे. उन्हें तो फांसी पर चढ़ाया जाना था. उन्होने जेल को भी अपनी हसीं कल्पना से खूबसूरत बना दिया था. उन्हें वतन निकाला मिला था. वो इंकलाब और मुहब्बत दोनों का राग एक सुर में गाते थे. वो शायर थे. यकीनन वो फैज़ ही थे. एक ज़िंदगी जो कविता की तरह पढ़ी गई. एक कविता जो ज़िंदगी की तरह जी गई.
अब ज़रा कल्पना कीजिए कि आज फैज़ साहब 1978 की तरह हिंदुस्तान दौरे पर हों, जेएनयू में शायरी पढ़ें, ऐसे ही जैसे उन्होंने उस साल के किसी एक दिन पढ़ी थी. अपना भारी भरकम डील डौल लिए सफारी सूट पहने अपने मद्धम लहजे़ में वो आज आपसे मुखातिब हों तो वो कौन सी नज्म दोहराएंगे ? यकीनन वो होगी.
‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ क्योंकि जिस दुनिया की कल्पना उन्होंने की थी वो अभी बहुत दूर है इसलिए आज भी अगर गालिब की ही तरह फैज भी ज्यादा सुने, सुनाये और गुनगुनाए जाते हैं तो वजह साफ है – इनकी रचनाओं में इंसान के बुनियादी हालातों पर पकड़. इसीलिए इनके लफ्ज़ों की मार जब तब वक्त के गाल पर झन्नाटे से पड़ती ही रहती है.
7 के दशक में दक्षिण एशिया की तरुणाई जब दुनिया को बदलते देख रही थी, उस वक्त शीत युद्ध की धुंध में जो आवाज़ें साफ दिखाई और सुनाई पड़ती थी, वो बर्तोल्त ब्रेख्त, नाजिम हिकमत और फैज़ की आवाज़ें थी. फैज़ की शायरी की गूंज तो आज और साफ़ हो गई है.
90 के बाद आर्थिक साम्राज्यवाद की जकड़न उसी दौर के हालात याद दिलाती है, जब भंसाली जैसे फिल्म कलाकार की अभिव्यक्ति पर थप्पड़ की गूंज भारी पड़ती है …जब गुलज़ार सरीखे कलाकारों को कहना पड़ता है कि ‘हालात ठीक नहीं हैं.’ जब बोलने, कहने, गाने से पहले सोचना पड़े और डरना भी तो … फैज़ के लिखे ये शब्द जहनी कागज़ पर और उभर के आते हैं –
बोल के लब आजा़द हैं तेरे
बोल …जबां अब तक तेरी है
खुद फैज की जुबानी उनकी ज़िंदगी की कहानी किसी सांप सीढ़ी के खेल से कम न रही. पंजाब के एक भूमिहीन किसान के घर जन्म लिया, लेकिन पिता किसी चमत्कार की तरह अफगानिस्तान के एक बादशाह के यहां नौकरशाह बने.
जब ज़िंदगी की लेकर समझ पैदा हो रही थी तब ग्रेट डिप्रेशन ने समझाया कि भूख और गरीबी क्या होती है ? कैसे इन हालातों ने दुनिया में फासीवाद को जन्म दिया, इन खतरों को वो पहचानते थे और इसका असर उनकी कलम पर पढ़ना ही था. जनवादी सोच की जड़ में यही जहनीयत थी
मता -ए लौह-ओ कलम छिन गई तो क्या
कि खूने दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने
किसी ने खूब कहा है कि फैज़ की शायरी ज़िंदा इशारों का पर्याय है, जो दर्द की चीख और कराह को कसकर अंदर दबाए और छुपाए है, मगर दरअसल जो दबाए दबते नहीं, छुपाए छुपते नहीं. 40 और 50 के दशक में लिखी नज्मों की इंकलाबी तासीर इसीलिए ऐसी थी लेकिन इंकलाबी सफर के बाद मंजिल की निराशा ने कलम को और तीखा और गहरा किया.
वो 47 में पाकिस्तान टाइम्स का संपादन कर रहे थे और 47 में ही लिख रहे थे –
ये दाग-दाग उजाला..ये शबगजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ..ये वो सहर तो नहीं
लेकिन फैज़ की कलम की सबसे खूबसूरत बात है फिर से जीने की स्वप्नशील रचनाशीलता. जो जीने…हारने … फिर से लड़ने के लिए जज्बा देती है. यही वजह है कि रावलपिंडी षडयंत्र केस में धरे लिए जाने के बाद सालों जेल में रहे तो संघर्ष धूप बनकर खूबसूरत कलम को सींचती रही, जो आज के हालातों में भी जीने, सपने देखने की हिम्मत देती है.
चलो फिर से मुस्कुराएं,
चलो फिर से दिल जलाएं
पाकिस्तानी गायिका नूरजहां ने एक दफा फैज़ के बारे में कहा था – मुझे मालूम नहीं कि मेरा फैज़ से क्या रिश्ता है, कभी वो मुझे शौहर तो कभी आशिक नजर आते हैं..कभी महबूब तो कभी बाप नजर आते हैं..तो कभी बेटा नज़र आते हैं. फैज़ इंकलाबी रोमानियत का शायद आखिरी दस्तावेज थे.
1981 में इलाहाबाद विश्विद्यालय में फैज़ ने मशहूर सीनेट हॉल में उनको सुनने आए लोगों से कहा था कि – मेरा दुनिया को सिर्फ़ यही संदेश है…इश्क करिए. इश्क यानि फैज की जबान में वो इश्क जो इंकलाब जो एक खूबसूरत दुनिया का ख्वाब दिखाता है. यकीन मानिए फैज़ अब भी दुनिया से कह रहे हैं – वो इंतजार था जिसका … ये वो सहर तो नहीं.
- रितेश विद्यार्थी
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