सीमा ‘मधुरिमा’
वो तिलमिलायेंगे
ज़ब ज़ब उठाओगी
उन पर ऊंगली
वो तुम पर चिल्लायेंगे
तेज आवाज़ में जिससे
दब जाए तुम्हारी आवाज़
औऱ ऊंगली वाले हाथ
स्वतः निचे हो जाएं
वो तर्क से साबित करेंगे
तुम्हारा देवी की तरह पूजा जाना
वो तुमको दिखाएंगे
अर्धनारीश्वर का स्वरूप
वो हर हाल में खुद को सही औऱ
तुम्हें गलत करार देंगे
तब भी ज़ब तुम शोषित होंगी
औऱ तब भी ज़ब वो शोषण करेंगे
हां यही नियति हैं तुम्हारा
बन जाना पत्थर अहिल्या की भांति
बेजान पत्थर
जो प्रश्न नहीं करता औऱ
न ही किसी व्यवस्था पर टूट पड़ता है
बेजान पत्थर जो करता है
इन्तजार अपने तारणहार का
औऱ फिर वो तारणहार बन आएंगे औऱ
जड़वा देंगे तुम्हें किसी ताजमहल के
एक कोने में लिखवाकर इबारत
जो होंगी पवित्र प्रेम की
जिसमे तुमने सिर्फ सिर्फ खोया होगा औऱ
उन्होंने पाया होगा तुम पर
अपनी मर्जी से चलाने का अधिकार
वो तुमसे ही जन्मते हैं औऱ
तुम्हारे लिए ही करते हैं साजिश
कभी पिता की आज्ञा पर
टूट पड़ते हैं ले कुल्हाङी
औऱ कभी माता की इच्छा का मान रखते
बांट देते हैं पांच भागों में
वो तुम पर दाव खेलेंगे औऱ
किसी वस्तु की भांति हार जाने पर
तुमसे आंखें बंद कर लेंगे औऱ
फिर वो बन जाएंगे दुशासन औऱ दुर्योधन.
औऱ खींचेंगे तेरी चीर
वो बन धृतराष्ट्र रखेंगे मौन
सवाल उठाने पर बोलेंगे
ये मेरी लगती कौन ?
तुम नारी हो औऱ नारी ही रहोगी
कल भी दोयम थी औऱ
कल भी दोयम रहोगी !!
- सीमा ‘मधुरिमा’
लखनऊ
(काव्य संग्रह ‘स्त्री मन का स्पेक्ट्रम से’)
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