कक्षा पांचवीं तक हिन्दी भाषा मेरे लिए उतना ही अजनबी भाषा थी जितनी आज मेरे लिए अंग्रेजी भाषा है. उस वक्त मेरे लिए हिन्दी भाषा उतनी ही इलीट भाषा थी जितनी आज अंग्रेजी भाषा है. ग्रामीण पृष्ठभूमि का होने के कारण हम जितनी सहजता से अपनी ग्रामीण भाषा ‘अंगिका’ में बातचीत करता था, हिन्दी में बात करना तो दूर जल्दी समझ में भी नहीं आता था.
मेरा चचेरा बड़ा भाई जो शहर में रहकर पढ़ाई करते थे, जब कभी वे आते तो हिन्दी में बातचीत करते थे, जिससे उनका धौंस हम सभी सहते थे, और उन्हें उतना ही बड़ा काबिल समझते थे जितना आज अंग्रेजी बोलने वाले को समझते हैं. वे जब हिन्दी में अंकों को लिखते (उस वक्त हम पुरानी हिन्दी में अंक लिखा करते थे) तो उनसे बड़ी इर्ष्या होती.
इससे भी आगे मेरे एक चाचा, वे भी शहर में रहते थे, वे हिन्दी भाषा को लेकर इतना डराते थे कि काफी दिनों तक हिन्दी भाषी लोगों से डरते रहे. उन्होंने बताया था कि शहर में अगर ग्रामीण भाषा ‘अंगिका’ में बात करोगे तो लोग चाकू मार देगा. यह डर तब तक बना रहा जब तक मैं भी पांचवीं कक्षा पास कर शहर में पढ़ने नहीं चला गया और फर्राटे से हिन्दी बोलने नहीं लग गया.
हिन्दी का यह डरावना रवैया काफी हद तक हिन्दी को अछूत बनाता चला गया, हालत यहां तक आ पहुंची कि गैर हिन्दी भाषी लोगों ने हिन्दी के ही खिलाफ माहौल बना दिया और हिन्दी के खिलाफ खड़े हो गये. हिन्दी भाषा अपने ही अन्य भाषा समूह को खुद में जोड़ने, समाहित करने के बजाय खुद को अलग-थलग करने में भरपूर योगदान दिया. इसमें उन लोगों की अक्षुण्ण भूमिका रही है, जिनके कंधों पर हिन्दी को आगे बढ़ाने की जवाबदेही थी.
हिन्दी के अपने ही भाषा के साथ इस छुआछूत पर गंभीर टिप्पणी करते हुए हिन्दी भाषा वैज्ञानिक प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह अपने एक लेख में लिखते हैं –
अंग्रेजी में मूल शब्द दस हजार हैं और आज साढ़े सात लाख पहुंच गए हैं, यानी कि सात लाख चालीस हजार शब्द बाहर से आए. इसका पता हम लोगों को नहीं है. जैसे ‘अलमिरा’ को हम लोग मान लेते हैं कि ये अंग्रेजी भाषा का शब्द है, लेकिन वह पुर्तगाली भाषा का शब्द है.
इसी तरह ‘रिक्शॉ’ को हम मान लेते हैं कि अंग्रेजी का है, लेकिन वह जापानी भाषा का है. ‘चॉकलेट’ को हम मान लेते हैं कि ये अंग्रेजी भाषा का शब्द है, लेकिन वह मैक्सिकन भाषा का है. ‘बीफ’ को मान लेते हैं कि अंग्रेजी का है, लेकिन वह फ्रेंच भाषा का है. अंग्रेजी ने बहुत सी भाषाओं के शब्दों को लेकर अंग्रेजी से अपने को समृद्ध किया और संसार की सबसे समृद्ध भाषाओं में से एक है.
अब हिंदी को लीजिए. हिंदी की जो पहली डिक्शनरी है उसकी शब्द संख्या थी बीस हजार. अंग्रेजी का सीधा दो गुना. ये आई थी 1800 ईस्वी के कुछ बाद. पहली डिक्शनरी मानी जाती है पादरी आदम की और दूसरी श्रीधर की.
आज हिंदी डिक्शनरी में शब्दों की संख्या क्या है ? डेढ़ लाख से दो लाख अधिकतम. शब्दों की संख्या नहीं बढ़ रही है हिंदी में. इसका कारण है हम लोग उतने उदार नहीं हैं. हमारी भाषा में वही छुआछूत की बीमारी है जो हमारे समाज में है.
लोक बोलियों के शब्दों को हम लेते नहीं हैं. कह देते हैं कि ये गंवारू शब्द हैं. कोई बोल देगा कि तुमको लौकता नहीं है ? तो कहेंगे कि कैसा प्रोफेसर है ! कहता है तुमको लौकता नहीं है. इसी ‘लौकना’ शब्द से कितना बढ़िया शब्द चलता है हिंदी में, परिमार्जित हिंदी में, छायावादी कवियों ने प्रयोग किया-अवलोकन, विलोकन. उसमें लौकना ही तो है.
कितनी मर्यादा और उंचाई है इन शब्दों में. उसी को आम आदमी बोल देता है कि तुमको लौकता नहीं है? लौकना और देखना में सूक्ष्म अंतर है. भोजपुरी क्षेत्र में महिलाएं कहती हैं कि ‘हमारे सिर में ढील (जुआं) हेर दीजिए.’ वे ‘देखना’ शब्द का प्रयोग नहीं कर रही हैं. काले बाल में काला ढील आसानी से दिखाई नहीं देता, इसलिए वे कहतीं हैं कि ढील हेर दीजिए. कितना तकनीकी शब्द का इस्तेमाल है यह. मतलब गौर से देखिएगा तब वह छोटा-सा ढील दिखाई देखा.
इस तरह आप देखिए कि लोक बोलियों के शब्दों को लेने से हम लोग परहेज कर रहे हैं. विदेशी भाषा के शब्द लेने से आपकी भाषा का धर्म भ्रष्ट हो रहा है. क्रिकेट का हिंदी बताओ, बैंक का हिंदी बताओ, टिकट की हिंदी बताओ. टिकट का हिंदी खोजते-खोजते गाड़ी ही छूट जाएगी.
यह छुआछूत का देश है इसीलिए हम विदेशी शब्द नहीं लेते कि यह तो विदेशी नस्ल का शब्द है, इसे कैसे लेंगे ? यही कारण है कि हिंदी का विकास नहीं हो रहा है. अंग्रेजी बढ़ रही है लेकिन हिंदी का विकास वैसा नहीं हो रहा है. हिंदी को छुआछूत की बीमारी है.
हिंदी में शब्दों की संख्या की कमी नहीं हैं. पहले हमारे यहां हिंदी की 18 बोलियां मानी जाती थी, अब 49 मानी जाती हैं. हिंदी भारत के दस प्रांतों में बोली जाती है. इन दस प्रांतों की 49 बोलियों में बहुत ही समृद्ध शब्द भंडार है. हर चीज को व्यक्त करने के लिए शब्द हैं, लेकिन उसको अपनाने में हम लोगों को परेशानी है.
हम ‘भूसा’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं. हिंदी शब्दकोश में भूसा मिलेगा, लेकिन पांवटा नहीं मिलेगा. जबकि भूसा और पांवटा में अंतर है. भूसा सिर्फ गेहूं का हो सकता है, लेकिन पांवटा धान का होता है. अवधी में इसे ‘पैरा’ कहते हैं. दोनों एक ही चीज है. पांवटा पांव से है और पैरा पैर से.
दरअसल, हो क्या रहा है कि किसानों के शब्द हमारी डिक्शनरी में बहुत कम हैं. हमारे यहां राष्ट्र भाषा परिषद से दो खंडों में किसानों की शब्दावली छपी हुई है. उसमें कृषक समाज से जुड़े सभी शब्दों को शामिल किया गया है लेकिन किसानों के शब्द, मजदूरों के शब्द, आम जनता के शब्द हमारी भाषा और शब्दकोश से आज भी गायब हैं. इसलिए गायब हैं कि हम मान लेते हैं कि ये ग्रामीण, गवांरू शब्द हैं.
हमारा देश धर्मप्रधान देश है. हमारी डिक्शनरी पर भी देवी देवताओं का वर्चस्व है. गाजियाबाद के एक अरविंद कुमार हैं, कोशकार हैं. उनपर खुशवंत सिंह ने एक टिप्पणी लिखी थी. उनकी एक डिक्शनरी है शब्देश्वरी. उसमें केवल शंकर भगवान के नामों की संख्या तीन हजार चार सौ ग्यारह है. विष्णु के एक हजार छह सौ छिहत्तर. काली के नौ सौ नाम हैं. दस देवी देवता दस हजार शब्दों पर कब्जा करके बैठे हुए हैं लेकिन किसानों, मजदूरों और आम जनता के शब्द गायब हैं. ये आपको जोड़ना पड़ेगा.
हिन्दी में किसानों, मजदूरों और आम जनता के शब्द गायब हैं. ये आपको जोड़ना पड़ेगा. यह सबसे जरूरी टास्क है, जिसे हिन्दी भाषियों को अपने कंधों पर उठाना होगा. इसके लिए हम उन तथाकथित मूर्धन्य साहित्यविद से अलग करना होगा, जो हिन्दी दिवस की बधाई भी अंग्रेजी में देते नजर आते हैं और हिन्दी के साथ दुर्व्यवहार करते हैं.
हिन्दी के साथ दुर्व्यवहार का कारण इस छुआछूत वाली समाज में हिन्दी को भी छुआछूत का शिकार बना देने के पीछे हिन्दी का आत्मविश्वास से हीन होना भी शामिल है. मसलन, हमें यह बताया गया है कि हिन्दी भाषा का जन्म संस्कृत भाषा से हुआ है और संस्कृत भाषा दुनिया की सबसे प्राचीनतम भाषा है.
संस्कृत को दुनिया की सबसे प्रचीनतम भाषा सिद्ध करने के लिए अनेक कल्पित आधार जुटाये जाते हैं. कई बार तो शिलालेखों के साथ भी छेड़छाड़ किया जाता है. अब जब भाषा वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि संस्कृत भारत की प्राचीनतम भाषा नहीं है बल्कि वह प्राकृत और पाली से मिलकर बनाया गया है, जिसका उद्भव ही एक-डेढ़ हजार साल पहले हुआ है. इस तथ्य को छुपाने के लिए ही आत्मविश्वास से हीन भारत का तथाकथित ठेकेदारों ने हिन्दी को आत्मकेन्द्रित बनाने का प्रयास किया, जिसका असर इस रूप में हुआ कि हिन्दी लगातार कुंठित होती चली गई, आज इस बदतर हालत में पहुंच गई है जब इसका शब्दकोश तक नवीनीकृत नहीं हो पा रहा है, नये शब्दों को जोड़ना तो दूर की बात है.
नागरिप्रचारिणी समूह द्वारा 11 खण्डों में प्रकाशित हिन्दी का सबसे प्रमाणित माना जाने वाला शब्दकोश का 2 खण्ड छापना भी प्रकाशक के लिए दूभर हो गया है. जिन नौ खण्डों को प्रकाशित भी किया गया है, उसके पन्नों की गुणवत्ता इतनी निम्नस्तरीय है कि हाथ में लेते ही चिथरे बन जाने का खतरा बना रहता है.
ऐसे में देश के हिन्दी भाषियों के कंधों पर यह महती जवाबदेही है कि हिन्दी को संस्कृत की ही तरह ही अभिजात्य की भाषा बनाने के चक्कर में दुरूह बनाने के बजाय उसे सामान्य लोकभाषाओं के साथ तारतम्य बिठाकर आगे बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. यह अनायास ही नहीं प्रचलित किया गया है कि ‘आप जितना ही दुरुह हिन्दी बोलेंगे या लिखेंगे, लोग उतना ही विद्वान समझेंगे,’ पर इसका दुष्परिणाम हिन्दी भोगता है.
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