Home गेस्ट ब्लॉग योगी आदित्यनाथ का इन्काउन्टर राज

योगी आदित्यनाथ का इन्काउन्टर राज

24 second read
0
0
698

योगी आदित्यनाथ का इन्काउन्टर राज

आरएसएस के समर्थक ऊंची जातियों और ऊंचे वर्गों के लोगों के लिए इस तरह की मुठभेड़ें तर्कसंगत है क्योंकि ये सभी यह मानकर चलते हैं कि मुसलमान और दलित ही मूलतः आपराधिक गतिविधियों से जुड़े रहते हैं और उन्हें दण्ड देना जरूरी है.

2017 के नवम्बर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा कि थी कि भाजपा सरकार ने उत्तर प्रदेश में कानून का राज कायम किया है, जबकि उसी साल जैसा कि पीयूसीएल द्वारा दायर जनहित याचिका में उल्लेखित तथ्य बताते हैं, ‘इस राज्य में 1100 मुठभेड़ें हुई थी, जिनमें 49 मार डाले गये थे और 370 घायल हुए थे.

2018 की 15 फरवरी को राज्य के कानून परिषद के साथ बात करने के क्रम में आदित्यनाथ ने कहा था, ‘1200 मुठभेड़ों के दौरान 40 लोगों से भी ज्यादा अपराधियों को मार डाला गया है और अब आगे भी ऐसा चलता रहेगा.’ इन आंकड़ों के मुताबिक उस राज्य में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद के 10 महीनों में पुलिस ने प्रतिदिन 4 के हिसाब से मुठभेड़ों को अंजाम दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में विशेष याचिका पर सुनवाई के दौरान टिप्पणी की थी, ‘पुलिस किसी भी अभियुक्त की हत्या नहीं कर सकती, भले ही वह कितना भी खतरनाक अपराधी क्यों न हो. पुलिस का काम उस अभियुक्त को गिरफ्तार करना और उस पर मुकदमा चलाने के लिए उसे न्यायालय में पेश करना है. ऐसे सभी सिपाहियों को, जो अपराधियों की हत्या करना और उस हत्या को बारम्बार एनकाउन्टर के रूप में पेश करना पसंद करते हैं, इस कोर्ट के तरफ बारम्बार चेतावनी दी गयी है. इस तरह की घटनाओं पर अविलम्ब रोक लगायी जानी चाहिए. हमारी फौजदारी न्याय व्यवस्था में इस तरह की हत्याओं की कानूनी स्वीकृति नहीं दी जाती. इन्हें राज्य प्रायोजित आतंकवाद ही माना जाता है.’




इसलिए 2017 की जून में इंडिया टीवी को दिये एक साक्षात्कार में जब आदित्यनाथ ने साफ-साफ कहा कि ‘अगर आप अपराध करेंगे तो ठोक दिये जायेंगे’ तो ऐसा कहते वक्त वे दरअसल सुप्रीम कोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी की ही खिल्ली उड़ा रहे थ्ज्ञे. 2019 की जनवरी में पीयूसीएल द्वारा दायर की गयी एक जनहित याचिका के जवाब में भी सुप्रीम कोर्ट ने बताया था, ‘हमारे पास जो आवेदन आये हैं, उनपर विचार करने के बाद हमें ऐसा लगा कि जितनी जल्दी संभव हो, इस मामले पर अदालत की ओर से एक जांच जरूरी है.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी गौर किया है, ‘उत्तर प्रदेश पुलिस ने खुद को स्वतंत्र मान लिया है. आला अफसरों के अघोषित अनुमोदन से वह अपने अधिकारों का दुरूपयोग करती आ रही है.’ पीयूसीएल ने अपनी याचिका में अखबारों की विभिन्न खबरों का भी हवाला दिया है, जिनसे यह दिख रहा है कि मुख्यमंत्री, उनके उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और कानून-व्यवस्था विभाग के एडीजी आनन्द कुमार ने एनकाउन्टरों के नाम पर अपराधियों की हत्याओं का समर्थन किया है.

इस याचिका में जिक्र है कि 2017 की 19 सितम्बर को एडीजी (कानून-व्यवस्था) आनन्द कुमार ने कहा था, ‘सरकार की मर्जी, जनता की आशाओं और पुलिस प्रदत्त संवैधानिक और वैध अधिकारों के आधार पर ही ये एनकाउन्टर किये गये हैं. एनडीटीवी की एक खबर बताती है कि सरकार ने यह इजाजत दी है कि ‘कोई भी टीम जब कोई एनकाउन्टर करेगी तो उसे जिला पुलिस के प्रधान की ओर से एक लाख तक के पुरस्कार की राशि दी जा सकती है’ तो यह सब भी तो कानून का उल्लंघन ही है.




पुलिस द्वारा एनकाउन्टरों के मामलों में 2010 में जारी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की गाइडलाईन के अनुसार और फिर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है उसके मुताबिक भी ‘एनकाउन्टरों को अंजाम देने के पश्चात उससे जुड़ी किसी भी पदाधिकारी को कोई भी अचानक पदोन्नति या उसके साहस के लिए उसी वक्त कोई पुरस्कार नहीं दिया जायेगा. इस मामले में सबसे पहले यह निश्चित करना होगा कि उक्त अधिकारी के बहादुराना कारनामे में संदेहजनक कुछ नहीं है. एक मात्र यह निश्चित हो जाने पर ही वह पुरस्कार दिया जा सकता है.’

एक आरटीआई जांच के तथ्य बताते हैं कि 2017 में मध्य भारत में सूचीबद्ध एनकाउन्टरों की संख्या 1782 है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को जो सूचनाएं मिली हैं उनके आधार पर देखा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की स्थिति काफी चिन्ताजनक है. सभी राज्यों से उसने कुल मुठभेड़ों के जो आंकड़े इकट्ठे किये हैं, उनमें से 44.5 प्रतिशत यानी, 974 एनकाउन्टरर्स इसी राज्य में हुए हैं. इनमें से कितनों में अभियोग प्रमाणित हुए हैं, इनकी संख्या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयेग की रिपोर्ट में नहीं मिलती, पर इतनी जानकारी मिलती है कि उत्तर प्रदेश के कुल 160 मामलों में कुल 9.47 करोड़ रूपयों का हर्जाना देने की सिफारिश की गयी है. संख्या के लिहाज से ये मामले पूरे देश में घटित एनकाउन्टरों में से आधे हैं.




वस्तुतः समूचे देश में कुल 314 मामलों में ऐसे हर्जानों की सिफारिश की गयी है. 2014 के 4 अगस्त तक के आंकड़ों के अनुसार कुल एनकाउन्टरों की संख्या 2351 है, जिनके दौरान 23 जिलों में कुल 65 लोगों की हत्याएं की गयी है और 548 लोग घायल हुए हैं. उनमें पहले जिन 30 लोगों की हत्याएं की गयी थी, उनमें 12 मुसलमान थे और बाकी लोगों में से अधिकांश ही दलित थे. सूचीबद्ध मामलों में से मात्र कई एक उदाहरण ही ऐसे पाये गये हैं, जहां सवर्णों में से काई निशाना बना हो.

एफआईआर के अनुसार इन अपराधियों पर चले केसों की संख्या 7 से लेकर 38 तक है जबकि करीब किसी भी एफआईआर में ऐसा कोई जिक्र नहीं मिलता जिससे कि इनके आपराधिक इतिहास के बारे में या उनके द्वारा किये गये किसी जघन्य अपराध के बारे में कुछ जाना जा सके.

इंडियन एक्सप्रेस के एक विश्लेषण के अनुसार, ‘यदि एफआईआरों का अध्ययन किया जाए तो 41 में से 20 एफआईआरों के मामलों में देखा जाएगा कि वे एक-दूसरे की नकल हैं. उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में से चार में खोजबीन के बाद ‘द-वायर’ को मालूम हुआ है कि एनकाउन्टर की 14 घटनाओं में से 11 एक ही प्रकार की है. अधिकांश माममों में ही वे विचाराधीन थे. लगभग सभी मुठभेड़ों में पुलिस को उनकी स्थिति के बारे में मुठभेड़़ से पहले ही मालूम हुआ है. वे या तो बाईक पर सवार थे या गाड़ी पर. पुलिस जैसे ही उन्हें रोकने गयी, वे गोलियां चलाने लगे हैं. पुलिस का यही वर्जन है. फिर जैसा वे बताते हैं, जवाब में पुलिस को भी गोली चलानी पड़ी है, जिसमें वे घायल हुए हैं और अस्पताल लाने के बाद वहां उन्हें मृत घोषित किया जाता है.




जिस तह से इन एफआईआरों को सजाया गया है, उसे देखकर निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक हस्तक्षेप से ही इतनी बड़ी संख्या में हत्याओं का यह कर्मकांड चल रहा है. यह सिर्फ कानून के शासन का ही उल्लंघन नहीं है, बल्कि सभी नागरिकों को प्राप्त होने वाली कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा का भी उल्लंघन है. खासकर यह लोगों के उस जीवन के अधिकार का उल्लंघन है, जो संविधान की धारा 21 के तहत देश के सभी नागरिकों को प्रदान किया गया है.

हमें एनकाउन्टरों के इस पूरे दौर को फासीवादी राज चलाने और अपराध नियंत्रण के नाम पर गरीब जनता को आतंक के साये में रखने के जिस उद्देश्य को लेकर आरएसएस चल रहा है, उससे जोड़कर ही देखना होगा. आरएसएस के समर्थक ऊंची जातियों और ऊंचे वर्गों के लोगों के लिए इस तरह की मुठभेड़ें तर्कसंगत है क्योंकि ये सभी यह मानकर चलते हैं कि मुसलमान और दलित ही मूलतः आपराधिक गतिविधियों से जुड़े रहते हैं और उन्हें दण्ड देना जरूरी है.

(अंग्रेजी की पत्रिका ‘स्पार्क’ से अनुदित)




Read Also –

पुलवामा में 44 जवानों की हत्या के पीछे कहीं केन्द्र की मोदी सरकार और आरएसएस का हाथ तो नहीं ?
संविधान जलाने और विक्टोरिया की पुण्यतिथि मानने वाले देशभक्त हैं, तो रोजी, रोटी, रोजगार मांगने वाले देशद्रोही कैसे ?
सेना, अर्ध-सैनिक बल और पुलिस जवानों से माओवादियों का एक सवाल
“शांति की तलाश में“, इस विडियो को जरूर देखिये




प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]



  • आप हिंसा के ज्वालामुखी पर बैठे हैं

    मेरे सामने एक रिपोर्ट खुली हुई है. यह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट है. इस रिपोर्ट …
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

चूहा और चूहादानी

एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था. एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी…