सुब्रतो चटर्जी
दिल्ली जनसंहार के लिए येचुरी, योगेन्द्र यादव सरीखे लोगों का नाम पुलिस की प्राथमिकी में आना साबित करता है कि फासीवाद का मुकाबला आप गांधीगिरी से नहीं कर सकते. संसदीय वाम का जो अवसान बंगाल में ममता जैसी लुंपेन के उभरने से शुरु हुई थी, आज उसके पटाक्षेप का समय है. कम्युनिस्ट पार्टियां लेनिन का उदाहरण दे कर संसदीय राजनीति में शामिल होने को बड़ी उपलब्धि समझते रहे हैं. शायद नब्बे के दशक तक यह स्टैंड ठीक भी था, लेकिन, उसके बाद उभरे मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के पीछे छुपा अंतरराष्ट्रीय फासीवाद की आहट को वे भांप नहीं पाए. वे यह समझ नहीं पाए कि राशन के सस्ते कपड़ों में बीती जवानी के बदन पर जब अमरीकन लोगों के उतारे हुए जीन्स चढ़ते हैं, तब एक ऐसी उपभोक्तावाद की संस्कृति को आदमी अपना लेता है, जिससे पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं है.
पिछले तीन दशक कम्युनिस्ट जन आंदोलन के क्रमशः क्षरण और वामपंथ की घटती लोकप्रियता के लिए जाने जाएंगे. इस उतार के लिए खुद वामपंथी पार्टियां जिम्मेदार हैं. समाज के सबसे शोषित, पीड़ित वर्ग की निःस्वार्थ लड़ाई लड़ने वाले चारु मजूमदार के विरुद्ध कांग्रेसियों के साथ हाथ मिला कर लड़ने वाली सीपीएम को 34 सालों तक पश्चिम बंगाल में सत्ता तो मिल गई लेकिन यही सत्ता उसके जुझारूपन की बलि भी ले ली.
मंडल के जवाब में जब कमंडल लाया गया तब भी एक मौका भारत की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी के पास थी, जनता को फासिस्ट लोगों के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन के लिए तैयार करने का लेकिन, कांग्रेस की चमचागिरी में बहुमूल्य समय गंवा बैठे. राजनीति में रणनीतिक गठबंधन का महत्व मैं समझता हूं, लेकिन इसका इस्तेमाल वृहद् लक्ष्य को पाने के लिए एक तात्कालिक समझौते के रूप में प्रयोग होना चाहिए, न कि इसके उलट, जो लोग यह कहते फिरते हैं कि भारत सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार नहीं है, वे सब सिर्फ फासीवाद के पैरोकार हैं.
अगर राजनीतिक नेतृत्व स्पष्ट और ईमानदार हो तो दुनिया के हरेक हिस्से में आदमी अन्याय अत्याचार के खिलाफ हथियार उठाने के लिए हमेशा तैयार है. अगर आप इसके विपरीत सोचते हैं तो आप कम्युनिस्ट नहीं हैं, महज एक संशोधनवादी हैं. संसद के वातानुकूलित कक्ष में बैठे गला फाड़ फाड़ कर एक बुर्जुआ संविधान के कुछ पन्नों में आप संशोधन तो पारित करवा सकते हैं, लेकिन, बिना जमीनी लड़ाई लड़े आप उसे जमीन पर नहीं उतार सकते । यही फर्क है.
खैर, अब तो वह ताकत भी आपके पास नहीं रही. एक तरह से यह अच्छा ही हुआ. जब तक कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति के मजाक को नहीं समझेंगी, वे कैसे जनता को इसके विरुद्ध गोलबंद करेंगी. यह कोरोना काल है. यह अनगिनत लाशों को यतीम लाशों की तरह बिना पोस्टमार्टम के दफनाने का समय है. यही समय है जबकि भारत का संसदीय वाम अपनी मान्यताओं को गुमनाम लाश की तरह कहीं दफन कर दे.
हो सकता है कि अदालत में येचुरी, यादव और अन्य आरोपित लोगों के खिलाफ कुछ भी साबित नहीं हो. हो सकता है कि एक अहले सुबह हमें उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा तर्जनी और मध्यमा ऊंगलियों से ‘V’ चिह्न बनाते हुए किसी अखबार में दिख जाए. फिर भी यह जीत अधूरी होगी, यह जार सत्ता के संपूर्ण विध्वंस के पश्चात लेनिन द्वारा बनाया गया ‘V’ चिह्न जैसा तो बिल्कुल नहीं. अंत में, योगेन्द्र यादव जैसों पर तो अब दया भी नहीं आती.
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