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योग दिवस : योग तो निमित्तमात्र है, लक्ष्य है मुनाफा कमाना

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योग दिवस : योग तो निमित्तमात्र है, लक्ष्य है मुनाफा कमाना
योग दिवस : योग तो निमित्तमात्र है, लक्ष्य है मुनाफा कमाना
जगदीश्वर चतुर्वेदी

मैं योग दिवस के पक्ष में हूं !! मैं बाबा रामदेव आदि के भी पक्ष में हूं ! क्योंकि इन लोगों ने योग को मासकल्चर का अंग बना दिया, कल तक योग, कल्चर का अंग था. मैं बाबा रामदेव और मोदीजी से बहुत ख़ुश हूं कि उन्होंने योग को ग्लोबल ब्राण्ड बना दिया. पूंजीवादी विरेचन का हिस्सा बना दिया.

योग करने के कई फ़ायदे हैं जिनको योगीजन टीवी पर बता रहे हैं. लेकिन सबसे बडा फ़ायदा है कि वह अब सरकारी फ़ैशन, सरकारी जनसंपर्क और सरकारी जुगाड़ का अंग बन गया है. योग आसन था लेकिन अब योग शासन है. पहले योग स्वैच्छिक था, कल अनिवार्य होगा ! केन्द्र सरकार से लेकर तमाम देशी-विदेशी सरकारों तक योग अब शासन का अंग है. यूएनओ कोई जनसंगठन नहीं है, वह सत्ताओं का संगठन है. योग को 117 देशों का समर्थन है. योग अब आसन नहीं शासन की क्रिया है.

योग के मायने

योग का सबसे पुराना ग्रंथ है ‘योगसूत्र.’ इसकी धारणाओं का हिन्दुत्व और सामयिक हिन्दू संस्कृति के प्रवक्ताओं की धारणाओं के साथ किसी भी किस्म का रिश्ता नहीं है. प्रसिद्ध दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘वैदिक साहित्य में योग शब्द का अर्थ था जुए में बांधना या जोतना.’

अति प्राचीन युग से ही यह शब्द कुछ ऐसी क्रियाओं के लिए प्रयोग में लाया जाता था जो सर्वोच्च लक्ष्य के लिए सहायक थी. अंततः यही इस शब्द का प्रमुख अर्थ बन गया. दर्शन में योग का गहरा संबंध पतंजलि के ‘योगसूत्र’ से है. जेकोबी का मानना था कि ये पतंजलि वैय्याकरण के पंडित पतंजलि से भिन्न हैं लेकिन एस.एन.दास गुप्त के अनुसार ये दोनों एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इस किताब का रचनाकाल 147 ई.पू. माना है. जेकोबी ‘योगसूत्र’ का रचनाकाल संभवतः 540 ई. है.

सांख्य और योग के बीच में गहरा संबंध है. हम सवाल कर सकते हैं कि आखिरकार बाबा रामदेव सांख्य-योग का आज के संघ परिवार के द्वारा प्रचारित हिन्दुत्व के साथ संबंध किस आधार पर बिठाते हैं ? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पतंजलि के ‘योगसूत्र’ लिखे जाने के काफी पहले से लोगों में योग और उसकी क्रियाओं का प्रचलन था.
डी.पी. चट्टोपाध्याय ने लिखा है – ‘योगसूत्र’ में वर्णित योग, मूल यौगिक क्रियाओं से बहुत भिन्न था. इस विचार में कोई नवीनता नहीं है. योग्य विद्वान इसे तर्क द्वारा गलत साबित कर चुके हैं. इनमें से कुछ विद्वानों का कहना है कि योग का प्रादुर्भाव आदिम समाज के लोगों की जादू टोने की क्रियाओं से हुआ.’

एस.एन.दास गुप्त ने ‘ए हिस्टरी ऑफ इण्डियन फिलॉसफी’ में लिखा है – ‘पतंजलि का सांख्यमत,योग का विषय है … संभवतः पतंजलि सबसे विलक्षण व्यक्ति थे क्योंकि उन्होंने न केवल योग की विभिन्न विद्याओं का संकलन किया और योग के साथ संबंध की विभिन्न संभावना वाले विभिन्न विचारों को एकत्र किया, बल्कि इन सबको सांख्य तत्वमीमांसा के साथ जोड़ दिया, और इन्हें वह रूप दिया जो हम तक पहुंचा है.

‘पतंजलि के ‘योगसूत्र’ पर सबसे प्रारंभिक भाष्य, ‘व्यास भास’ पर टीका लिखने वाले दो महान भाष्यकार वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु हमारे इस विचार से सहमत हैं कि पतंजलि योग के प्रतिष्ठापक नहीं बल्कि संपादक थे. सूत्रों के विश्लेषणात्मक अध्ययन करने से भी इस विचार की पुष्टि होती है कि इनमें कोई मौलिक प्रयत्न नहीं किया गया बल्कि एक दक्षतापूर्ण तथा सुनियोजित संकलन किया गया और साथ ही समुचित टिप्पणियां भी लिखी गईं.’

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि योग का आदिमरूप तंत्रवाद में मिलता है. दासगुप्त ने लिखा है कि योग क्रियाएं पतंजलि के पहले समाज में प्रचलित थीं. पतंजलि का योगदान यह है कि उसने योग क्रियाओं को, जिनका नास्तिकों में ज्यादा प्रचलन था, तांत्रिकों में प्रचलन था, इन क्रियाओं को आस्तिकों में जनप्रिय बनाने के लिए इन क्रियाओं के साथ भाववादी दर्शन को जोड़ दिया.

डी.पी.चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘ये भाववादी परिवर्तन सैद्धांतिक और क्रियात्मक दोनों प्रकार के हुए.’ इस प्रसंग में आर. गार्बे ने लिखा है कि ‘योग प्रणाली द्वारा सांख्य दर्शन में व्यक्तिगत ईश्वर की अवधारणा को सम्मिलित करने का उद्देश्य केवल आस्तिक लोगों को संतुष्ट करना और सांख्य द्वारा प्रतिपादित विश्व रचना संबंधी सिद्धांत को प्रसारित करना था. योग प्रणाली में ईश्वर संबंधी विचार निहित नहीं बल्कि उन्हें यूं ही शामिल कर लिया गया था.

”योगसूत्र’ के जिन अंशों में ईश्वर का प्रतिपादन हुआ है, वे एक-दूसरे से असंबद्ध हैं और वास्तव में योगदर्शन की विषयवस्तु तथा लक्ष्य के विपरीत हैं. ईश्वर न तो विश्व का सृजन करता है और न ही संचालन. मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार पुरस्कार या दण्ड नहीं देता. ईश्वर में विलीन को मनुष्य (कम से कम प्राचीन योगदर्शन के अनुसार) अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य नहीं मानता…

‘प्रत्यक्ष है कि ईश्वर का जो अर्थ हम लगाते हैं यह उस प्रकार के ईश्वर का मूल नहीं है और हमें काफी उलझे हुए विचारों का सामना करना पड़ता है, जिनका लक्ष्य इस दर्शन के मूल नास्तिक स्वरूप को छिपाना तथा ईश्वर को मूल विचारों के अनुकूल जैसे तैसे बनाना है. स्पष्ट है कि ये उलझे हुए विचार इस बात को सिद्ध करते हैं कि यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो वे वास्तविक योग में किसी व्यक्तिगत ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है.

‘… किंतु योग प्रणाली में एक बार ईश्वर संबंधी विचार को सम्मिलित कर लेने के बाद यह आवश्यक हो गया कि ईश्वर और मानव जगत के बीच कोई संबंध स्थापित किया जाए क्योंकि ईश्वर केवल अपने ही अस्तित्व में बना नहीं रह सकता था.

‘मनुष्य और ईश्वर के बीच का यह संबंध इस तथ्य को लाकर स्थापित किया गया कि जहां ईश्वर आपको इहलौकिक या नैसर्गिक जीवन प्रदान नहीं करता (क्योंकि वह तो व्यक्ति के सुकर्मों अथवा कुकर्मों के अनुसार मिलते हैं), वहां ईश्वर अपनी करूणा दिखाकर मनुष्य की सहायता करता है और यह मनुष्य उसके प्रति पूर्ण आस्था रखता है ताकि मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाएं दूर हो सकें. किंतु ईश्वर में मानव की आस्था और दैवी कृपा पर आधारित यह क्षीण संबंध भी योग दर्शन में सम्मिलित होकर दुर्बोध सा प्रतीत होता है.'[1]

अमरीकीकरण की सेवा में डूबे हैं बाबा रामदेव-रविशंकर-मुरारीबापू

अमेरिका की प्रशंसा में मगन रहने वालों के लिए रॉबर्ट पुटनाम की किताब ‘बॉवलिंग एलोन: दि कॉलेप्स एंड रिवाइवल ऑफ अमेरिकन कम्युनिटी’ को जरूर पढ़ना चाहिए. इस किताब में रॉबर्ट ने लिखा है कि अमेरिकी लोगों में सामाजिक बंधन खत्म होते जा रहे हैं. इसका अर्थ क्या है ? हम क्या करें ? यह सच है कि कोई व्यक्ति अकेले इस स्थिति में नहीं है बल्कि समूचा समाज भोग रहा है. इस उबलते हुए समाज में जो भी कूद पड़ा है, वह अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ उबल रहा है. अब लोगों को सगे-संबंधी नहीं मिल रहे हैं, इस अभाव को लोग स्वयंसेवी संस्थाओं की सदस्यता लेकर भरने की कोशिश कर रहे हैं.

रॉबर्ट पुटनाम ने रेखांकित किया है कि प्रत्येक स्तर पर सामाजिक शिरकत में गिरावट आई है. बिखरते सामाजिक तानेबाने ने बड़ी भारी कीमत लगा दी है. इसके कारण अवसाद, हताशा आदि स्वास्थ्य समस्याओं ने घेर लिया है. हम ज्यादा से ज्यादा इस बात पर जोर देने लगे हैं कि हमें अपने पड़ोसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए. नागरिक मसलों पर शिरकत घटी है, मतदान के प्रतिशत में गिरावट आई है, राष्ट्रपति चुनाव से लेकर स्थानीय चुनावों तक सभी स्तर पर मतदान में गिरावट का फिनोमिना देखा गया है. जिन देशों ने अमरीकीपथ का अनुसरण किया है वहां पर भी ये प्रवृत्तियां साफतौर पर देखी जा सकती हैं, सिर्फ उन देशों को छोड़कर जहां पर वोट देना कानूनन अनिवार्य है, जैसे बेल्जियम, डेनमार्क आदि.

इसी तरह सार्वजनिक सभाओं में जाने वालों की तादाद में भी गिरावट दर्ज की गई है. इसके अलावा नगर या स्कूल की समस्याओं को लेकर होने वाली सभाओं में जाने वालों की संख्या में गिरावट आई है. सर्वे के परिणाम बताते हैं कि ज्यादातर लोग ‘कभी-कभार ही ‘वाशिंगटन प्रशासन’ पर भरोसा करते हैं बल्कि पूरी तरह अविश्वास करने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है. सन् 1966 में अमरीकी सरकार पर भरोसा करने वालों की संख्या 75 फीसद थी जो 1992 में 30 फीसद ही रह गयी.

राजनीति और सरकार के कामों में लोगों की शिरकत में तेजी से गिरावट आई है. जबकि व्यक्तिगत तौर पर शिक्षा का स्तर सुधरा है किंतु राजनीतिक शिरकत में गिरावट आई है. इसी तरह चर्च की गतिविधियों में अमेरिकनों की हिस्सेदारी में सन् 1966 की तुलना में छह गुना गिरावट आई है. इसी तरह मजदूर संगठन एक किस्म का हिस्सेदारी का अवसर देते थे, मंच थे, किंतु यूनियनों की सदस्यता में चौगुना गिरावट दर्ज की गई है. नागरिकों की हिस्सेदारी के मंच के रुप में अभिभावक संघ बड़ा मंच था. किंतु अभिभावक-शिक्षक मंचों में हिस्सेदारी घटी है.

मसलन् 1964 में इस तरह के मंचों में 12 मिलियन लोगों ने शिरकत की थी, किंतु 1982 तक आते-आते यह संख्या घटकर मात्र पांच मिलियन रह गयी. इसी तरह अमरीकी समाज में सक्रिय विभिन्ना किस्म के संगठनों की सदस्यता को भी देख सकते हैं, उनमें हिस्सेदारी में ह्रास के लक्षण देखे गए हैं.

सामाजिक संपदा नॉर्म बनाती है. इससे मानसिक ढ़ांचा, व्यवहार, संस्कार और आदतें निर्मित होती हैं. सामाजिक संपदा के चरित्र की सही पहचान ही हमें सामाजिक बिखराव के खतरों के प्रति सतर्क कर सकती है. सामाजिक बंधनों को बिखरने से बचाने के लिए जरुरी है कि हम बिखराव के कारणों का गंभीरता से मूल्य-व्यवस्था के रुप में विश्लेषण करें. हमें सामाजिक स्तर पर लगाव और बंधन के भाव को पुख्ता बनाना होगा. व्यक्तिवादिता और इंडिफरेंस को खत्म करना होगा. अन्य के प्रति समर्थन और सहयोग की भावना पैदा करनी होगी.

हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो व्यक्तिवादी ढ़ंग से काम करते हैं. इनका नारा है – ‘अपने काम स्वयं करो.’ ‘अपनी खुशियां स्वयं पैदा करो.’ ‘अधिकारियों को चुनौती दो.’ ‘यदि अच्छा लगे तो करो.’ ‘वैधता को धता बताओ.’ ‘दूसरों पर अपने मूल्य मत थोपो.’ ‘अपने व्यक्तिगत अधिकारों के लिए लड़ो.’ ‘अपनी प्राइवेसी की रक्षा करो.’ ‘टैक्स में कटौती करो और कार्यकारी अधिकारी की तनख्वाह बढ़ाओ.’ ‘व्यक्तिगत आमदनी को साझा वस्तु की तुलना में वरीयता दो.’ ‘अपने हृदय की आवाज सुनो.’ ‘सामुदायिक धर्म की तुलना में एकाकी आध्यात्मिकता और धर्म का अनुसरण करो.’ ‘स्वयं को आत्मनिर्भर बनाओ.’ ‘दूसरों से उम्मीद करो और स्वयं पर विश्वास करो, स्वयं का निर्माण करो.’

ये नारे व्यक्तिवादिता के गर्भ से पैदा हुए हैं और जिन्हें परवर्ती पूंजीवाद ने किसी न किसी रुप में हवा दी है. इन्हीं नारों के इर्द-गिर्द मध्यवर्ग-उच्चवर्ग का अधिकांश सामाजिक विमर्श भी निर्मित होता रहा है. यही वे नारे हैं जिन्हें अमरीकीकरण के मंत्र के रुप में सारी दुनिया में प्रक्षेपित किया जा रहा है. लोगों को कहा जा रहा है कि वे इन नारों का पालन करेंगे तो समुदाय के बिना खुशहाल जिन्दगी बसर कर सकेंगे.

इस तरह के सोच के शिकार लोग अपने को समुदाय का सदस्य मानने की बजाय समुदाय से ऊपर मानने लगते हैं. ये वे लोग हैं जो खुशहाल जिन्दगी जीना चाहते हैं, अन्य को खुशहाल किए बिना. अन्य के संपर्क में आए बिना. इस तरह के लोगों के लिए ही बाबा रामदेव, श्रीरविशंकर, ओशो आदि जैसे कारपोरेट संतों के उपदेश आए दिन टीवी पर सुनने को मिलते हैं. सामाजिक विकास का यह व्यक्तिवादी रास्ता समाज को आगे की बजाय पीछे की ओर ले जाता है.

यह ऐसा व्यक्तिवाद है जिसके लिए हम बाबा रामदेव, रविशंकर आदि को पैसा भी दे रहे हैं. इसी तरह परंपरागत संतों से लेकर कथावाचकों की भी भीड़ इसी रास्ते पर चल पड़ी है. परवर्ती पूंजीवाद ने विगत पचास सालों में जिस तरह की व्यक्तिवादिता को जन्म दिया है वह स्वभावत: पुंसवादी है. इसने पुंसवादी नैतिकता को वरीयता दी है, उसे सामाजिक एजेण्डा बनाया है.

इसके ही आधार पर हम कामुक आनंद, अनियंत्रित कामुकता, अबाधित कामुकता आदि को महिमामंडित करते रहे हैं, साथ ही कामुक परवर्जन को भी वरीयता दी है. इसी के प्रभावस्वरुप व्यक्तिगत आकर्षण और युवा हमारे समाज में केन्द्रीय मूल्य बनकर सामने आए हैं. ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं का उपभोग भी आनंद का स्रोत हो गया है. आज का नया संचार आंदोलन भी व्यक्ति के इन्हीं अधिकारों और जिम्मेदारियों का महिमामंडन कर रहा है.

बाबा रामदेव के टीवी लाइव शो और उसकी विचारधारा

बाबा रामदेव के टेलीविजन पर योगशिविर लगाए जाने के बाद अनेक योगियों के टीवी शो आने लगे हैं. तकरीबन प्रत्येक चैनल योग पर कोई न कोई आइटम या कार्यक्रम पेश करता है. टीवी की आमदनी के लिए योग शो का कार्यक्रम पैकेज में रहना जरूरी है. योग शो की लाखों की ऑडिएंस है. लाखों की ऑडिएंस का अर्थ है चैनल के लिए सोने की खान. टीवी से अंधाधुंध योगवर्षा का सामाजिक असर दिखने लगा है.

डाक्टरों ने अपने यहां योग से उपचार की व्यवस्थाएं कर ली हैं. वे दवाओं के अलावा योग-प्राणायाम करने का सुझाव देते हैं. स्कूलों में फिजिकल एजुकेशन के पाठ्यक्रम में योग-प्राणायाम को शामिल कर लिया गया है. सेना में भी योग को जगह मिल गयी है. कारपोरेट कंपनियां भी इस विधि का इस्तेमाल कर रही हैं. अब जेलों में योगशिविर लगेंगे. मंत्रियों, एम पी, एमएलए, पंचायत सदस्यों, वकीलों, जजों, डाक्टरों आदि के शिविर लग चुके हैं.

बाबा रामदेव के योग शो की खूबी है उनके आसन और उनके हिन्दुत्ववादी और चिकित्सा विज्ञान विरोधी, बहुराष्ट्रीय कंपनी विरोधी राजनीतिक वक्तव्य जो कभी भी टेलीविजन चैनलों की खबरों में जगह नहीं बना पाए. बाबा रामदेव ने जिन राजनीतिक मसलों को उठाया है और अपनी राय दी है उसे चैनलों ने कभी समाचारों में कवरेज नहीं दिया है.

बाबा के टीवी शो में हमें भारत की स्वास्थ्य दशा के साथ सांस्कृतिक -राजनीतिक दुर्दशा का आख्यान भी सुनने को मिलता है. पश्चिमी जीवनशैली के दुष्परिणामों के बारे में भी सुनने को मिलेता है. इन सबको बड़े ही कौशल के साथ बाबा रामदेव आसन-प्राणायाम के साथ रीमिक्स कर देते हैं. पहले वे प्राणायाम-आसन बताते हैं, फिर अनुकरण करने के लिए कहते हैं, और भोक्ता जब तक अनुकरण करता है तब तक वे किसी न किसी मसले पर वक्तव्य देते रहते हैं. वे अपने संदेश को प्राणायाम और आसन की क्रिया के बीच में संप्रेषित करते हैं. यह काम वे वृत्तचित्र की संरचना में करते हैं.

बाबा रामदेव के योग की टीवी पर सफलता ने टीवी के मेडीकलाइजेशन की प्रक्रिया को बल पहुंचाया है. अब टीवी पर स्वास्थ्य संबंधी सैंकड़ों कार्यक्रम प्रतिदिन आते हैं. कुछ चैनल तो सिर्फ स्वास्थ्य के कार्यक्रम ही प्रसारित करते हैं. विभिन्न भाषाओं में स्वास्थ्य सेवाओं पर धारावाहिकों का भी प्रसारण हो चुका है. मीडिया में हेल्थ संबंधित स्टोरियों के आने से हेल्थ का जनसंपर्क बढ़ा है. इससे यह भी पता चला है कि हेल्थ के समाचार, कार्यक्रम, धारावाहिक दिखाए जाएं तो उनके लिए लाखों की ऑडिएंस मिल सकती है. हेल्थ पहले इस तरह मीडिया में बड़ा विषय नहीं था. अब तो हेल्थ के अनेक चैनलों,पत्रिकाओं और अखबारों में स्थायी कॉलम हैं.

आज हेल्थ पर अनेक वेबसाइट हैं जो तत्काल सूचनाएं देती हैं. यहां तक कि हेल्थ संबंधित सैलिब्रिटी गॉसिप आने लगी हैं. समूचे टेलीविजन नेटवर्क ने हेल्थ को जिस तरह मुद्दा बनाया है उसमें जीवनशैली, रूपचर्चा, धर्म और मनोदशा रूपान्तरण के विषय केन्द्र में आ गए हैं. बाबा रामदेव के लाइव कवरेज को इसके फ्लो में पढ़ा जाना चाहिए.

बाबा अपने लाइव टेलीकास्ट में योग के आसनों की प्रस्तुति करते समय एक अवधि के बाद स्टीरियोटाइप हो गए हैं. साथ एक ही किस्म की पद्धति को अपनाते हैं, अंतर सिर्फ आता है उनके भाषण की थीम में. भाषण की थीम बदलकर ही वे कुछ नया पैदा करते हैं वरना उनके लाइव टेलीकास्ट कार्यक्रम तो टेली शॉपिंग के विज्ञापन जैसे होते हैं.

टेली शॉपिंग में जिस तरह कोई नया पात्र माल की तारीफों के पुल बांधता है और उसके उपयोग की विधि बताता है, ठीक वैसे ही बाबा रामदेव भी करते हैं. अंतर है उनके भाषण के विषयों का. इसके अलावा उनके लाइव शो में स्थान का अंतर भी रहता है. कभी इस शहर में तो कभी उस शहर से उनका लाइव टीवी शो प्रसारित होता है, इससे उन्हें नए ग्राहक मिलते हैं.

विभिन्न शहर, बदली ऑडिएंस और बदले हुए भाषण के विषय के जरिए वे अपने टीवी शो में आकर्षण पैदा करने की कोशिश करते हैं. वे अपने भाषणों में नए-नए विषयों का समावेश करके ऑडिएंस में विचारधारात्मक प्रभाव भी पैदा करने की कोशिश करते हैं. लेकिन योग-प्राणायाम के कार्यक्रम में योग-प्राणायाम प्रमुख है, भाषण प्रमुख नहीं है. वह अतिरिक्त है. इसकी सांस्कृतिक भूमिका है. उन विषयों को टीवी पर बनाए रखने में सांस्कृतिक-राजनीतिक भूमिका है जिन्हें हम हिन्दुत्व के विषय के रूप में जानते हैं.

बाबा के शो वही लोग देखते हैं जिन्हें योग से लगाव है या योग सीखना है अथवा ऐसे भी लोग देखते हैं जिनकी हिन्दुत्व के एजेण्डे में रूचि है. बाबा का बार-बार टीवी शो करना इस बात का संकेत है कि हेल्थ के बाजार में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा है. इसमें बाबा योग के लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. बाबा अपने योग मालों के लिए ग्राहक जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.

बाबा के अधिकांश टीवी शो खुले वातावरण में होते हैं. वे कभी हॉलघर में कार्यक्रम नहीं करते. खुला आकाश, मैदान और पीछे योग का चित्र या आयोजन स्थल का बैनर. मंच पर बाबा के द्वारा प्रस्तुत योग-प्राणायाम ,हिन्दुत्व और जीवनशैली के विषयों पर लंबे-लंबे भाषण.

बाबा के कार्यक्रमों में आए दिन ऐसे मरीजों को पेश किया जाता है जो यह बताते हैं कि वे फलां बीमारी से परेशान हैं, उन्हें दवा कोई असर नहीं कर रही है. कुछ ऐसे भी मरीज आते हैं जो यह बताते हैं कि योग-प्राणायाम असर कर गया है, बीमारी में सुधार है. बाबा के कार्यक्रमों में इस तरह के बयानों के प्रसारण का लक्ष्य है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान से आम लोगों को विमुख करना.

संबंधित व्यक्ति को दवा क्यों नहीं लग पायी, इसके अनेक कारण हो सकते हैं. यह भी हो सकता है कि वह सही डाक्टर से न मिला हो, दवा की मात्रा ठीक से न लेता हो. उसके खान-पान में अनियमितता हो आदि, लेकिन बाबा इस तरह के मरीजों की प्रतिक्रियाओं को मेडीकल सिस्टम की असफलता के प्रमाण के रूप में दुरूपयोग करते हैं.

बाबा का इस तरह की प्रतिक्रियाओं को दिखाना योग उद्योग और फार्मास्युटिकल उद्योग के बृहत्तर नव्य उदारतावादी एजेण्डे की संगति में आता है. वे अपने योग कारपोरेट एजेण्डे के साथ इसे मिलाकर पेश करते हैं और योग उद्योग के बाजार हितों को विस्तार देने का काम करते हैं.

बाबा के ये कार्यक्रम आम लोगों में मेडीकल चिकित्सा के खिलाफ जबर्दस्त असर छोड़ रहे हैं. साधारण लोगों में एक अच्छा खासा वर्ग तैयार हो गया है जो यह मानता है कि योग-प्राणायाम से सब बीमारियां ठीक हो जाएंगी. इस तरह के लाइव शो के जरिए बाबा बड़े पैमाने पर प्रत्येक कार्यक्रम और शिविर के जरिए दौलत बटोरने में सफल रहे हैं.

बाबा रामदेव की टीवी प्रस्तुतियों में मेडीकल प्रोफेशन की असफलताओं का व्यापक कवरेज रहता है लेकिन वे अच्छी तरह जानते हैं कि हजारों डाक्टर हैं जो अपने मरीज की अपनी क्षमता और क्षेत्र से बाहर जाकर मदद करते हैं. प्रतिदिन 8-14 घंटे काम करते हैं. प्रतिदिन लाखों मरीजों का सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में इलाज करते हैं जबकि इन अस्पतालों में पर्याप्त सुविधाएं तक नहीं हैं. हमारे शहरों-कस्बों में समर्पित डाक्टरों की लंबी-चौड़ी फौज है जो मरीजों के इलाज में बड़ी तत्परता से काम करती है.

अपवादस्वरूप मामलों को छोड़ दें तो मेडीकल पेशे से जुड़े लोग आम लोगों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ते. यह भी सच है कि इन डाक्टरों में निजी क्षेत्र के पैसा कमाऊ डाक्टर भी आ गए हैं जो सिर्फ ऊंची फीस लिए बिना इलाज नहीं करते. लेकिन इस तरह के डाक्टरों का प्रतिशत कम है. ज्यादातर डाक्टर आज भी सामान्य फीस पर ही इलाज करते हैं. सामान्य तौर पर डाक्टर जैसे बताए उसे यदि मरीज मान ले तो उसे किसी भी नीम-हकीम और योगी की जरूरत नहीं होगी.

बाबा रामदेव अपने शिविर में आने वाले किसी भी व्यक्ति से पैसे की बात करते नजर नहीं आते. वे शिविर में भाग ले रहे किसी व्यक्ति से यह नहीं पूछते कि यहां आने में कितना पैसा खर्च हुआ ? कैंप की फीस कितनी दी ? वे यह सवाल भी नहीं पूछते कि बाबा की दवाएं लेते हो तो उनका दाम क्या है ? वे यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि शिविर में भाग लेने वाले कितने लोग हैं, जिनकी बीमारी पर योग-प्राणायाम का कोई असर नहीं हो रहा है अथवा नकारात्मक असर हो रहा है.

बाबा यह मानकर चल रहे हैं कि उनके शिविर में भाग लेने वाले की पॉकेट से कुछ भी खर्च नहीं हो रहा. वे यह भी मानकर चल रहे हैं कि उनके यहां आने वाले पर योग का सीधे सकारात्मक असर हो रहा है. वे यह भी मानकर चल रहे हैं कि जो व्यक्ति शिविर से जा रहा है वह प्रतिदिन योग-प्राणायाम करता है जबकि इनमें से कोई भी बात सच नहीं है.

बाबा के शिविर में भाग लेने वालों से मोटी रकम फीस के रूप में ली जाती है. बाबा की आयुर्वेदिक दवाएं महंगी होती हैं. बाबा का तथाकथित वैद्य झोला छाप डाक्टर होता है. इनमें से अधिकांश के पास सही डिग्री भी है या नहीं किसी को नहीं मालूम. बाबा के शिविर से लौटकर कुछ दिन बाद बड़ी संख्या में लोग योग-प्राणायाम करना छोड़ देते हैं. योग-प्राणायाम छोड़ देने वालों का मानना है कि किसी इलाज को अनंतकाल तक नहीं किया जा सकता.

बाबा अपने कार्यक्रमों के जरिए एक और संदेश देते हैं कि अस्पताल या डाक्टर के पास जाने से बचो. घर में केयर करो. निजी केयर करो. वे अपने कार्यक्रमों के जरिए मेडीकल व्यवस्था के प्रति संशय और मोहभंग पैदा करने का काम करते हैं. वे बार-बार महंगी दवाएं, डाक्टर, ऑपरेशन, अस्पताल आदि के बेशुमार खर्च आदि को निशाना बनाते हैं. साथ ही फार्मास्युटिकल कंपनियों पर कभी-कभार टिप्पणियां करते हैं.

बाबा अपने लाइव शो में जब किसी मरीज को पेश करते हैं और उससे पूछते हैं क्या बीमारी पर योग का क्या असर हुआ तो मरीज जो कुछ बताता है उसका दर्शकों पर व्यापक असर होता है. यह कहानी आसपास के लोगों में फैल जाती है. उसे योग के पक्ष में प्रमाण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. दर्शक आम तौर पर आपस में उस घटना का जिक्र करते हैं और अंत में वह घटना एक गॉसिप में तब्दील हो जाती है. व्यापक चर्चा में गॉसिप का रूपान्तरण बाबा के लिए और नए ग्राहक और आस्थावान सदस्य देता है. बाबा अपने शिविर में चुनकर विभिन्न रोग के शिकार लोगों को पेश करते हैं, साथ में उस रोग और उसके मेडीकल उपचार पर होने वाले बेशुमार खर्चे और परेशानियों का आख्यान बनाते हैं. यही उनकी बाजार रणनीति है.

बाबा रामदेव और योग की इमेजों का जादू

टेलीविजन युग की यह खूबी है कि जो टीवी पर्दे पर दिखता है वही सत्य है. जो पर्दे पर नहीं दिखता उसका अस्तित्व भी दर्शक मानने को तैयार नहीं होते. इस तरह के दर्शकों की अनेक प्रतिक्रियाएं मेरे बाबा रामदेव पर केन्द्रित लेखों पर सामने आयी हैं. वे टेलीविजन निर्मित यथार्थ और प्रचार पर आंखें बंद करके विश्वास करते हैं. वे यह सोचने को तैयार नहीं हैं कि बाबा रामदेव और योग की टीवी निर्मित इमेज फेक इमेज है.

जो लोग बाबा रामदेव को टीवी पर देख रहे हैं वे यह मानकर चल रहे हैं बाबा ही योग के जनक हैं. योग का तो सिर्फ स्वास्थ्य से संबंध है. बाबा के टीवी दर्शकों की यह भी मुश्किल है कि उन्हें ज्ञान-विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है. वे टीवी इमेजों के जरिए यह भी मानकर चल रहे हैं कि बाबा रामदेव जो बोलते हैं, सच बोलते हैं, सच के अलावा कुछ नहीं बोलते. वे टीवी प्रचार से इस कदर अभिभूत हैं कि बाबा रामदेव के बारे में किसी वैज्ञानिक बात को भी मानने को तैयार नहीं हैं. यहां तक कि वे अपने प्राचीन ऋषियों-मुनियों की योग के बारे में लिखी बातें मानने को तैयार नहीं हैं. वे भीड़ की तरह बाबा रामदेव का वैसे ही अनुकरण कर रहे हैं जैसे कोई साबुन के विज्ञापन को देखकर साबुन का उपभोग करने लगता है, उसके बारे में वह कुछ भी जानना नहीं चाहता.

बाबा रामदेव कोई ऐसी हस्ती नहीं हैं कि उनके बारे में सवाल न किए जाएं. जो लोग नाराज हैं हमें उनकी बुद्धि पर तरस आता है. वे बाबा के विज्ञापनों और प्रौपेगैण्डा चक्र में पूरी तरह फंस चुके हैं.

बाबा रामदेव ने योग के उपभोग का लोकतंत्र निर्मित किया है. यहां योग करने वालों में स्वास्थ्य संबंधी असमानताएं हैं. इस असमानता को मिटाना बाबा का लक्ष्य नहीं है. वे इस असमानता को बनाए रखते हैं. यौगिक क्रियाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करके योग के उपभोग का वातावरण और फ्लो बनाए रखना चाहते हैं. वे योग के नियमित उपभोग के माध्यम से अपने ग्राहक को बांधे रखते हैं. इस क्रम में वे योग को बनाए रखते हैं लेकिन अन्य चीजें वे ठीक नहीं कर पाते.

मसलन वे एडस या कैंसर ठीक नहीं कर सकते. किसी भी बड़ी बीमारी को ठीक नहीं कर सकते. प्राणायाम से आराम मिलता है और इस आराम से अनेक सामान्य समस्याएं कम हो जाती हैं जैसे रक्तचाप वगैरह. बाबा रामदेव जब योग का प्रचार करते हैं तो योग से सुख मिलेगा,आराम मिलेगा, शांति मिलेगी और शरीर निरोगी बनेगा आदि वायदे करते हैं. ये वायदे वैसे ही हैं जैसे कोई माल अपनी बिक्री के लिए विज्ञापन में करता है.

मजेदार बात यह है कि साधारण आदमी यदि प्रतिदिन आधा-एक घंटा व्यायाम कर ले तो वह सामान्यतौर पर चुस्त-दुरूस्त रहेगा. यदि व्यक्ति सुबह जल्दी उठे और व्यायाम करे तो वह सामान्य तौर पर स्वस्थ हो जाएगा. लेकिन अब मुश्किल यह है कि बाबा रामदेव से हम ये बातें पैसा देकर सुन रहे हैं, और पैसा देकर खरीद रहे हैं, पैसा देकर मान रहे हैं.

बाबा रामदेव ने योग को ग्लैमर का रूप दिया है. उसे दिव्य-भव्य बनाया है. इसके कारण सभी वर्ग के लोगों में इसकी सामान्य अपील पैदा हुई है. बाबा रामदेव अपने योग संबंधी व्याख्यानों में व्यक्ति ‘क्या है’ और ‘क्या होना चाहता है’ के अंतर्विरोध का बड़े कौशल के साथ इस्तेमाल करते हैं. वे इस क्रम में व्यक्ति को स्वास्थ्य और शरीर के प्रति जागरूक बनाते हैं. शरीर स्वस्थ रखने के प्रति जागरूकता पैदा करते हैं.

बाबा रामदेव अपने स्वस्थ शरीर के जरिए बार-बार टीवी पर लाइव शो करके जब योग दिखाते हैं तो योग को ग्लैमरस बनाते हैं. सुंदर शरीर की इमेज बार-बार सम्प्रेषित करते हैं. सुंदर शरीर के प्रति इच्छाशक्ति जगाते हैं. स्वस्थ शरीर का दिवा-स्वप्न परोसते हैं और यही उनके व्यापार की सफलता का रहस्य भी है. वे आम टीवी दर्शक की इच्छाशक्ति और अनुभूति के बीच के अंतराल को अपनी यौगिक क्रियाओं के जरिए भरते हैं. उसके प्रति आकर्षण पैदा करते हैं.

जो लोग यह सोच रहे हैं कि बाबा रामदेव का योग का अभ्यास उन्हें भारतीय संस्कृति का भक्त बना रहा है, वे भ्रम में हैं. विज्ञापन और टेलीविजन के माध्यम से योग का प्रचार-प्रसार मूलतः योग को एक माल बना रहा है. आप पैसा खर्च करें और योग का उपभोग करें. यहां भोक्ता की स्व-निर्भर छवि, निजता और जीवनशैली पर जोर है.

वे योग का प्रचार करते हुए योग की विभिन्न वस्तुओं और आसनों की बिक्री और सेवाओं को उपलब्ध कराने पर जोर दे रहे हैं. वे योग संबंधी विभिन्न सूचनाएं दे रहे हैं. योग की सूचनाओं को देने के लिए वे जनमाध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि लोकतंत्र में जनमाध्यमों के अलावा किसी और तरीके से सूचनाएं नहीं दी जा सकती.

बाबा रामदेव की खूबी यह है कि उन्होंने योग को फैशन के पैराडाइम में ले जाकर प्रस्तुत किया है. आज योग-प्राणायाम जीवनशैली का हिस्सा है. फैशन स्टेटमेंट है. यह मासकल्चर की एक उपसंस्कृति है. योग पहले कभी संस्कृति का हिस्सा था लेकिन इन दिनों यह मासकल्चर का हिस्सा है. बाबा रामदेव की सुंदर देहयष्टि एक परफेक्ट मॉडल की तरह है जो योग का प्रचार लाइव टेलीकास्ट के जरिए करते हैं. बाबा रामदेव की बारबार टीवी पर प्रस्तुति और उसका प्रतिदिन करोड़ों लोगों द्वारा देखना योग को एक सौंदर्यपरक माल बना रहा है. बार-बार एक ही चीज का प्रसारण योग के बाजार को चंगा रखे हुए है. वे योग के जरिए स्वस्थ भारत का सपना बेचने में सफल रहे हैं.

बाबा रामदेव अपने प्रचार के जरिए स्वस्थ और श्रेष्ठ जीवन का विभ्रम पैदा कर रहे हैं. योग को सर्वोत्कृष्ट बता रहे हैं. जीवनशैली के लिए श्रेष्ठतम बता रहे हैं. वे बार-बार यह भी कहते हैं कि लाखों-करोड़ों लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं तुम भी इस्तेमाल करो. वे विज्ञापन कला का अपने प्रसारणों में इस्तेमाल करते हैं.. फलतः उनकी बातें अति-स्वाभाविक लगती हैं. उनकी यही अति-स्वाभाविकता योग और बाबा रामदेव के प्रति किसी भी आलोचनात्मक विवेक को अपहृत कर लेती है.

अति-स्वाभाविकता का गुण है कि आप सवाल नहीं कर सकते. वे अपनी प्रस्तुतियों के जरिए योग और स्वयं को सवालों के दायरे के बाहर ले जाते हैं. वे इसे शुद्ध ‘कॉमनसेंस’ बना देते हैं. इसके कारण दर्शक को योग के पीछे सक्रिय विचारधारा, व्यवसाय आदि नजर नहीं आते. वह इसके मकसद के बारे में भी सवाल नहीं उठाता बल्कि होता उलटा है जो सवाल उठाते हैं बाबा रामदेव के भक्त उस पर ही पिल पड़ते हैं. वे बाबा रामदेव की टीवी निर्मित इमेज के अलावा और कोई इमेज देखने, सुनने और मानने को तैयार नहीं हैं.

इस अर्थ में बाबा रामदेव की इमेज के गुलाम हैं. यह वैसे ही है जैसे आप लक्स साबुन खरीदते हुए करिश्मा कपूर या ऐश्वर्याराय की इमेज के गुलाम होते हैं, उसका अनुकरण करते हैं और बाजार से जाकर लक्स साबुन खरीद लेते हैं और नहाने लगते हैं. बाबा रामदेव का योग को कॉमनसेंस के आधार पेश करना और उसका बार-बार प्रसारण इस बात का भी प्रमाण है कि वे योग को बाजारचेतना की संगति में लाकर ही बेचना चाहते हैं. कॉमनसेंस का वे योग के लिए फुसलाने की पद्धति के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

बाबा रामदेव की ब्रांड कला का रहस्य

बाबा रामदेव फिनोमिना की मीमांसा करते हुए अनेक किस्म के पाठकों प्रतिक्रियाएं मिली हैं और उन प्रतिक्रियाओं से एक बात साफ है, इन पाठकों में अनेक पाठक वे हैं जो बाबा के दीवाने हैं. ये दीवाने कहां से आए ? उन्हें बाबा ने अपना दीवाना कैसे बनाया ? वे बाबा के फेन क्लब का हिस्सा हैं. लेकिन वे फेन कैसे बने ? यह बुनियादी प्रश्न है जिस पर विचार करना चाहिए. बाबा रामदेव और उनका समूचा तर्कशास्त्र सार्वजनिक तौर पर सामाजिक-सांस्कृतिक मीमांसा की मांग पैदा करता है और हम सबको इस फिनोमिना को गंभीरता के साथ समझना चाहिए.

बाबा रामदेव से हमारा कोई व्यक्तिगत पंगा नहीं है. हम तो सिर्फ इस फिनोमिना की तह में जाना चाहते हैं, उन पक्षों पर बात करना चाहते हैं जिन पर बाबा रामदेव अहर्निश टीवी शो करके प्रकाश डालते रहते हैं. हम उन सवालों से टकराना चाहते हैं जो सवाल बाबा रामदेव फिनोमिना ने खड़े किए हैं. हमारा व्यक्ति बाबा रामदेव से कोई पंगा नहीं है, यह मूलतःविचार-विमर्श है. इससे हमारे समाज को तर्कवादी पद्धति से सोचने में मदद मिलेगी. चीजों को अनालोचनात्मक ढ़ंग से सोचने और देखने से हम बचेंगे.

बाबा रामदेव ने योग को जनता तक पहुंचाने के चक्कर में उसे उद्योग बनाया है. संस्कृति उद्योग का हिस्सा बनाया है. कुछ लोग सोच रहे हैं कि बाबा ने यह काम अकेले किया है. यह बात सच है कि आज योग के वे बड़े ब्राँण्ड हैं. लेकिन उनसे भी बड़े ब्राँण्ड महर्षि महेश योगी थे और उन्होंने योग को अमीरों के यहां बंधक बनाकर रख दिया था. बाबा रामदेव को इस बात श्रेय जाता है कि उन्होंने योग को आम जनता में पहुंचाया है. वे योग के क्षेत्र में अन्यतम हैं.

बाबा रामदेव योग के व्यापारी हैं. उन्होंने योग को भारत के जिलों तक पहुंचाया है. राज्यों और जिलों के स्तर तक उसका नेटवर्क बनाया है और अब उनकी नजर विदेशों पर लगी है. वे जितने महान दिखते हैं उसका कारण है उनका मीडिया प्रचार अभियान. आज जितना बड़ा मीडिया प्रचार होगा, आम लोगों में व्यक्तित्व भी उतना ही महान दिखेगा. बाबा रामदेव की तथाकथित महानता का आधार उनका योगी होना नहीं है बल्कि उनका व्यापक मीडिया प्रचार है.

सवाल यह है इतना व्यापक मीडिया प्रचार उन्होंने क्यों किया ? क्या इस प्रचार का सिर्फ योग ही उद्देश्य था या कुछ और मकसद था. इस योगी को अरबपति धनी ट्रस्टी बनने की बुद्धि किसने दी ? क्या किसी संयासी की यह हैसियत है कि वह अचानक टीवी चैनलों से अंधाधुंध योग का प्रचार आरंभ कर दे ? टीवी चैनलों से प्रचार में लगने वाला पैसा और बुद्धि किसकी है ? आज बाबा के पास संपत्ति है लेकिन बाबा ने सार्वजनिक तौर पर मीडिया ब्रांण्ड के रूप में जब से बाजार में कदम रखा है उनके हित योग के कम और योग को उद्योग बनाने के ज्यादा रहे हैं.

बाबा रामदेव संत हैं, उनके पास कुछ नहीं है, उनका सब कुछ ट्रस्ट का है. अरे भाई भारत में दर्जनों कारपोरेट घराने हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है. सब कुछ ट्रस्ट का है. इस मामले में आदर्श उदाहरण है कारपोरेट सम्राट टाटा घराना. उनकी अधिकांश संपत्ति भी ट्रस्ट के नाम है. रतन टाटा के पास बहुत कम पैसा है. ट्रस्ट की ओट में इन दिनों पूंजीवाद की सेवा करने और टैक्सचोरी करने की परंपरा चल पड़ी है.

बाबा रामदेव ने हाल के सालों में धार्मिक उद्योग की कमाई के नए कीर्तिमान बनाए हैं. उनके कीर्तिमान देखकर आम लोगों में खूब दौलत पैदा करने और खूब मौज मनाने की भावना बलबती हुई है. जो लोग यह कहते हैं कि बाबा रामदेव योग गुरू हैं, वे ठीक ही कहते हैं. बाबा रामदेव ने योग गुरू के अलावा एक और योग्यता हासिल की है वह है जीवनशैली गुरू की. योग को जीवनशैली के साथ जोड़ा है.
बाबा रामदेव ने अब तक अपने योगशिविरों के जरिए तकरीबन 3 करोड़ लोगों को योग शिक्षा दी है. साथ ही स्वास्थ्य के संबंध में अति प्राचीन किस्म की अवधारणाओं का जमकर प्रचार किया है. इनमें अधिकांश धारणाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.

बाबा की अवैज्ञानिक धारणा है कि सारी बीमारियों की रामबाण दवा है प्राणायाम. बाबा के टीवी शो को प्रतिदिन सुबह दो करोड़ लोग देखते हैं. बाबा के 500 अस्पताल हैं, जिनमें प्रतिदिन तीस हजार मरीज रजिस्टर्ड कराते हैं. इनमें आयुर्वेद के आधार पर चिकित्सा होती है. मजेदार बात यह है कि बाबा आए दिन कैंसर और एड्स जैसी भयानक बीमारियों को भी प्राणायाम और आयुर्वेद से ठीक करने का दावा करते हैं लेकिन सच्चाई कुछ और ही है. मैं सिर्फ एक ही खबर को यहां उद्धृत करना चाहूंगा. खबर पूरी पढ़ें और तय करें कि कितने करामाती हैं बाबा के इलाज ? खबर इस प्रकार है –

असहनीय दर्द के कारण बाबा रामदेव के गुरु ने छोड़ा आश्रम

गुरूवार, जुलाई 19, 2007,17:24 [IST] हरिद्वार, 19 जुलाई (वार्ता). योग प्रवर्तक बाबा रामदेव के गुरु स्वामी शंकर देव महाराज फेफड़ों और रीढ़ की हड्डी की पुरानी तपेदिक के कारण असहनीय दर्द से पीड़ित थे, जिसके कारण उन्हें रामदेव का पतंजलि आश्रम छोड़ना पड़ा.

चार दिन पहले आश्रम से लापता हुए स्वामी के बारे में एक शिकायत की जांच कर रही पुलिस ने कहा कि स्वामी ने कल शाम अपने कमरे से बरामद एक पत्र में अपने खराब स्वास्थ्य का विवरण दिया था. पत्र में स्वामी शंकर देव महाराज ने कहा कि वह यहां कनखल में पतंजलि योगपीठ छोड़ रहे हैं क्योंकि उनकी बीमारियों के कारण होने वाला दर्द उनके लिए असहनीय हो गया है.

स्वामी के रहस्यमय परिस्थितियों में लापता होने के तीन दिन बाद उनके लापता होने की रिपोर्ट कनखल थाने में दर्ज कराई गई थी. हाई प्रोफाइल मामले की जांच कर रही पुलिस टीम का नेतृत्व कर रहे शहर के एसपी अजय जोशी ने आज कहा, ‘लापता स्वामी ने पतंजलि योगपीठ के सभी सदस्यों, यश देव शास्त्री, बाली राम, हरि दास, चकोर दास, निर्वाणजी से भी माफी मांगी है, उनसे लिए गए पैसे वापस नहीं करने के कारण.’

पत्र में उल्लिखित व्यक्तियों से उन परिस्थितियों के बारे में पूछा जा रहा है जिनके तहत स्वामी लापता हो गए और पत्र को लिखावट की पुष्टि के लिए हस्तलेख विशेषज्ञों के पास भेजा गया था. संपर्क करने पर, स्वामी राम देव के सबसे भरोसेमंद लेफ्टिनेंट और पतंजलि योगपीठ के महासचिव, आचार्य बाल कृष्ण ने पुष्टि की कि स्वामी शंकर देव पुरानी फेफड़ों और रीढ़ की समस्याओं से पीड़ित थे. हालांकि, उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि स्वामी शंकर देव, जो पतंजलि योगपीठ के खातों के हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक थे, कुछ कैदियों से लिए गए पैसे वापस नहीं कर सके.

‘हमने स्वामी शंकर देव के लापता होने के बारे में दुनिया भर में पतंजलि योगपीठ की सभी शाखाओं को सूचित कर दिया है. आचार्य बाल कृष्ण ने कहा, ‘योग और आयुर्वेद सिखाने के लिए विदेश यात्रा पर गए स्वामी राम देव ने रहस्यमय परिस्थितियों में अपने गुरु के लापता होने पर गंभीर चिंता व्यक्त की है.’

यह एक खबर मात्र है, ऐसी सैंकड़ों खबरें हैं जिनकी मीडिया में खबर नहीं होती क्योंकि बाबा एक ब्रांड हैं. वैसे ही जैसे शाहरूख खान, ऐश्वर्य राय, करिश्मा कपूर, अमिताभ बच्चन, अक्षय खन्ना, आईपीएल, ललित मोदी, कॉमन वेल्थ गेम आदि ब्राण्ड हैं. ब्रांड के निर्माण के सभी कौशल का बडे ही सुंदर ढ़ंग से बाबा रामदेव ने इस्तेमाल किया है.

यही वजह है कि आज देश में उनके चारों ओर चित्र हैं, विज्ञापन है, होर्डिंग हैं, लोगो हैं, मार्केटिंग करने वाली पूरी टीम है, मीडिया के चैनल हैं. एक बहुत बड़ा अमला है जिसे पगार दी जाती है जो बाबा के लिए काम करते हैं. बाबा के लिए विज्ञापन एजेंसियों से लेकर चैनलों कर काम करने वाले प्रोफेशनलों की एक पूरी जमात है.

बाबा रामदेव ब्रांड ने योग को आम जनता की अभिरूचि, परंपरा, सांस्कृतिक स्टैंडर्ड से जोड़ा है. बाबा ने ब्रांड संस्कृति के नारे ‘जस्ट डू इट’ का बड़े कौशल के साथ इस्तेमाल किया है. वे कहते हैं योग करो और स्वस्थ बनो. अभी करो और जल्दी से जल्दी परिणाम हासिल करो. वे ब्रांड की तरह ही गुणवत्तापूर्ण माल की गारंटी भी देते हैं. वे वायदा करते हैं योग-प्राणायाम करोगे गारंटेड फायदा होगा.

बाबा ने योग को प्राणायाम से आगे ले जाकर सपनों में तब्दील किया है. अब हम योग नहीं खरीद रहे हैं बल्कि सपने खरीद रहे हैं. हिन्दुत्व का सपना, स्वस्थ आदमी का सपना, रोगमुक्त व्यक्ति आदि सपनों के जरिए बाबा की मीडिया के जरिए मार्केटिंग हो रही है. वे यह भी सपना बेच रहे हैं कि योग करोगे मस्त रहोगे. बाबा रामदेव ब्रांड के बारे में हमें किसी भी किस्म का भ्रम नहीं होना चाहिए. यह महज योग नहीं है और योग का प्रचार नहीं है बल्कि इसके निर्माण के पीछे विज्ञापन जगत के ब्रांड निर्माण की कला काम कर रही है.

ब्रांड किसी फैक्ट्री में तैयार नहीं होता. योग का ब्रांड भी किसी योगशिविर में या बाबा के उपदेशों और यौगिक क्रिया मात्र से तैयार नहीं हो रहा है. मीडिया प्रचार के जरिए ब्रांड को आम लोगों के मन में तैयार किया जाता है. माल फैक्ट्री में तैयार होता है लेकिन ब्रांड तो आम लोगों के मन में तैयार होता है. ब्रांड में विचार, जीवनशैली, एटीट्यूड आदि मूल्यों को शामिल किया जाता है.

बाबा रामदेव ने हिन्दू कला-कौशल के आधार पर अपनी ब्रांडिंग नहीं की है बल्कि विशुद्ध रूप से विज्ञापन कला की ब्रांड कला के आधार पर अपनी ब्रांडिंग की है. बाबा रामदेव योग नहीं बेचते वे जीवनशैली बेचते हैं. वे सिर्फ योग बेचते और ब्रांड नहीं होते तो अपने को मात्र योग तक सीमित रखते लेकिन उन्होंने अपनी समूची तैयारी ब्रांड के रूप में की है और उसमें बेहद कौशल और परिश्रम किया है, पेशेवर लोगों की मदद ली है.

आज बाबा सिर्फ योग-प्राणायाम तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि उनके द्वारा वस्तुओं की एक पूरी सीरीज बाजार में है. यह वैसे ही जैसे कोई जूता बनाने वाली कंपनी पहले जूते लाती है फिर उसी ब्रांड का टी-शर्ट, बाथिंग सूट, मोजा, ट्रैकसूट आदि लाती है. सफल ब्रांड की खूबी है कि वह सिनर्जी अथवा सहक्रिया पैदा करता है. वही उसके मुनाफे का स्रोत है.

इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बाबा रामदेव ने दसियों किस्म की वस्तुएं अपने ब्रांड के साथ बाजार में उतार दी हैं. वे योग से लेकर मनोरंजन तक, खेल-खिलाडि़यों से लेकर चौका-चूल्हे की उपभोक्ता औरतों तक, सेना, जज, वकील, डाक्टर, बुद्धिजीवी से लेकर राजनेताओं तक अपने ब्रांड का उपभोक्तावर्ग तैयार करने में वैसे ही सफल हो गए हैं जैसे कोई ब्रांड हो जाता है. योग पहले भी था, आयुर्वेद पहले भी था लेकिन वह ब्रांड नहीं था. बाबा की सफलता यह है कि उन्होंने योग को ब्रांड बनाया, आयुर्वेद को ब्रांड बनाया.

ब्रांड का लक्ष्य होता है उपभोक्ता की इच्छाओं के साथ एकीकृत करना. उपभोक्ता की इच्छाओं को ब्रांड में उतारना. जब ब्रांड में जीवनशैली को आरोपित कर दिया जाता है तो फिर वह ग्राहक को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि तुम सारी जिंदगी इसमें रह सकते हो. बाबा ने अपने भोक्ताओं को यही भरोसा दिलाया है.

अब वे बाजार में ब्रांडों की जंग में शामिल हैं. अब जंग वस्तुओं में नहीं है बल्कि ब्रांडों में हो रही है. बाबा ने पश्चिमी जीवन शैली और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जो जेहाद बोला हुआ है, उसका कारण है अपने ब्रांड को बाजार में स्थापित करना. वे अपने योग के साथ प्रवचनों के जरिए हमेशा अपने आधार को विस्तार देने की कोशिश करते हैं.

बाबा के यहां आसन, योग, प्राणायाम पुराने हैं और तयशुदा है लेकिन उनके साथ उनके प्रवचन और उनका लक्ष्य नया है. वे इनके जरिए जीवनशैली में अपने माल को समाहित करने की अपील करते रहते हैं. बाबा के बारबार आनेवाले लाइव टीवी प्रसारण कार्यक्रम मूलतः जीवनशैली को बेचने के लिए आयोजित किए जा रहे हैं.

बाबा ने पूंजीवादी जीवनशैली को निशाना बनाया है लेकिन जब वे स्वयं को ब्रांड बनाकर बेचते हैं तो अंततः पूंजीवाद की शरण में चले जाते हैं. ब्रांड स्वय में पूंजीवाद की गुलामी का आदर्श फिनोमिना है. बाबा ने अपने विचारधारात्मक तंत्र को बनाने के लिए हिन्दू परंपरा, हिन्दू गौरव, भारत की विविधता, समलैंगिकता का विरोध, बहुसांस्कृतिकवाद, राष्ट्रवाद, सत्ता के भ्रष्टाचार का प्रतिवाद, प्रतिष्ठानी भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के विषयों पर निरंतर भाषण दिए हैं.

योग की ब्रांडिंग में इन भाषणों का समावेश करने की कला को बाबा ने अमरेकी पंक संस्कृति, हिप-हाप संस्कृति के ब्रांडों से सीखा है. बाबा और पंक संस्कृति वालों में एक समानता है कि ये दोनों ही प्रतिष्ठान विरोधी हैं. सत्ता विरोधी हैं. प्रतिष्ठान विरोधी, सत्ता विरोधी होने के कारण ये बाजार में हिट हैं.

ब्रांड कभी ब्रांड का नशा पैदा किए बगैर बिकता नहीं है. अपनी इमेज नहीं बना पाता. ब्रांड का नशा पैदा करने के लिए जरूरी है कि उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता पर बार बार जोर दिया जाए. इसमें स्थानीयता और मानकीकरण के तत्व भी शामिल रहते हैं.

विज्ञापन गुरू क्लाउड हॉपकिंस का मानना था कि ‘जितना ज्यादा बोलोगे, उतना ज्यादा बिकोगे.’ बाबा ने इस मंत्र को ऋषि पतंजलि से नहीं बल्कि विज्ञापन गुरूओं से सीखा है इसलिए वे अहर्निश प्रचार करते हैं. प्रचार की कला विज्ञापन की कला है. यह हिन्दूकला या पतंजलि की योग कला का हिस्सा नहीं है ,बल्कि यह विशुद्ध रूप से विज्ञापन की आधुनिक पूंजीवादी कला है. बाबा का विराट ब्रांड इसकी देन है. यह योग की देन नहीं है. योग तो इसमें निमित्तमात्र है, लक्ष्य है मुनाफा कमाना.

सन्दर्भ :

[1] एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन ऐंड एथिक्स, सं.जे. हेस्टिंग्स, एडिबरा, 1908-18.

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