कृष्ण कांत
मार्च, 1922 में महात्मा गांधी पर देशद्रोह का मुकदमा चला. आरोप था कि उन्होंने अपने अखबार यंग इंडिया में तीन ठो लेख लिखकर जनता को भड़काया है. मामला जस्टिस सी. एन. ब्रूमफील्ड की कोर्ट में पहुंचा. पहली सुनवाई में ही जो 11 मार्च, 1922 को थी, तीनों लेख कोर्ट में पढ़े गए. जस्टिस ब्रूमफील्ड ने कहा कि ये आरोप ब्रिटिश भारत में सरकार के प्रति असंतोष फैलाने के प्रयास से जुड़े हैं.
गांधी जी बोले, देखो अंगरेज बहादुर जी, अइसा है कि नाटक नय, जो लिखा है सो लिखा है. जो लिखा है वह सत्य है और मेरे लिए सत्य ही ईश्वर है. मैं अपने लिखे की जिम्मेदारी लेता हूं. जो सजा देना हो दे दो. ये लेख मैंने ही लिखे हैं. हां, मैं अपराधी हूं.
ब्रूमफील्ड ने पूछा कि क्या आप दोष स्वीकार करते हैं या अपना बचाव करना चाहते हैं ? इस पर महात्मा ने कहा, ‘मैं सभी आरोपों के लिए खुद को दोषी स्वीकारता हूं.’
जस्टिस ब्रूमफील्ड अपना फैसला देना चाहते थे, लेकिन सरकारी वकील सर जे. टी. स्ट्रेंजमैन ने कहा कि भाई मुकदमे की प्रक्रिया तो पूरी होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि इन लेखों में अहिंसा पर तो जोर दिया गया है, लेकिन अगर आप लगातार सरकार के प्रति असंतोष को हवा देते हैं तो इसका मतलब है कि जानबूझकर सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए लोगों को भड़का रहे हैं. सजा सुनाते समय बंबई, मालाबार और चौरी-चौरा में दंगे व हत्याओं का ध्यान रखा जाना चाहिए. इसमें भी महात्मा की भूमिका है. यही जनता को भड़काते हैं.
जस्टिस ब्रूमफील्ड ने महात्मा से पूछा कि सजा के सवाल आपका क्या कहना है ?
महात्मा ने कहा, ‘मैं अपने बारे में सरकारी वकील की टिप्पणी को सही मानता हूं. मैं कोर्ट से छिपाना नहीं चाहता कि सरकार की मौजूदा प्रणाली के खिलाफ असंतोष का प्रचार करना मेरे लिए एक जुनून बन गया है. यह मेरा कर्तव्य है, जिसे मुझे निभाना होगा. मैं बंबई, मद्रास और चौरी-चौरा की घटनाओं को लेकर लगाए गए आरोपों को स्वीकार करता हूं. मुझे लगता है कि चौरी-चौरा हो या बंबई दंगे, मैं इनसे खुद को अलग नहीं कर सकता. असंभव है. मुझे छोड़ा गया गया तो मैं फिर ऐसा ही करूंगा.’
‘मैं हिंसा से बचना चाहता था. अहिंसा मेरे विश्वास का पहला तत्व है. लेकिन, मुझे अपना चयन करना था. या तो मैं एक ऐसी व्यवस्था के सामने समर्पण कर देता, जिसने मेरे देश को नुकसान पहुंचाया था या अपने लोगों के गुस्से का जोखिम उठाता. इसलिए मैं एक हल्की सजा के लिए नहीं बल्कि इस अपराध में सबसे बड़ी सजा के लिए तैयार हूं. मैं दया के लिए प्रार्थना नहीं करता. मैं इस मामले में सबसे बड़ी सजा भुगतने को तैयार हूं. न्यायाधीश के रूप में आपके लिए केवल एक रास्ता खुला है कि या तो आप पद से इस्तीफा दे दें या मुझे गंभीर सजा दें.’
‘मुझ पर धारा-124ए के तहत आरोप लगाए गए हैं. यह कानून नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए बनाया गया है. मेरा मानना है कि अगर किसी के मन में एक व्यक्ति या व्यवस्था के खिलाफ असंतोष है तो उसे विरोध की आजादी होनी चाहिए. मुझे लगता है कि सरकार के प्रति असंतुष्ट होना पुण्य माना जाना चाहिए. मेरी राय में बुराई के साथ असहयोग करना अच्छाई के साथ सहयोग करने से ज्यादा जरूरी है. मैं यहां मुझे दी जाने वाली बड़ी से बड़ी सजा के लिए तैयार हूं.’
बयान काफी लंबा चौड़ा है. कम लिखा ज्यादा समझना.
महात्मा के बयान के बाद जस्टिस ब्रूमफील्ड ने उनके सामने सिर झुकाया और कहा, ‘एक न्यायसंगत सजा निर्धारित करना बहुत मुश्किल है. मैंने अब तक जितने भी लोगों के खिलाफ सुनवाई की है या भविष्य में सुनवाई करूंगा, आप उन सबसे अलग व्यक्ति हैं. आपसे राजनीतिक मतभेद रखने वाले लोग भी आपको उच्च आदर्शों पर चलने वाले और संत के तौर पर मानते हैं.’
इसके बाद जस्टिस ब्रूमफील्ड ने बापू को छह साल कैद की सजा सुनाई. सजा सुनाते हुए उसने कहा कि अगर सरकार इस सजा को कम कर दे तो मुझसे ज्यादा खुश कोई नहीं होगा. इसके बाद उन्होंने एक बार फिर महात्मा गांधी के सामने सिर झुकाया. इस पर महात्मा गांधी ने कहा कि कोई भी जज मुझे इस अपराध में इससे कम सजा नहीं दे सकता था.
इस केस को ग्रेट ट्रायल के नाम से जाना गया. महात्मा को साबरमती जेल ले जाया गया. दो दिन बाद यरवादा जेल भेज दिया गया.
तो हे गांधी को गरियाने वाले भइया लोग ! सबक ये है कि जिस अंगरेज बहादुर के लिए आपने मुखबिरी की, गिड़गिड़ाए, रोए, रिरियाए, वही अंगरेज बहादुर महात्मा के आत्मबल के आगे सिर झुकाकर यहां से गया है. बाकी झूठ फैलाने वाले अंगरेजीदां फर्जी इतिहासकार मनोहर कहानियां लिखते रहें, गांधी की महानता पर घंटा फर्क पड़ने वाला है. आपकी ये चकल्लस बड़ी सस्ती और अश्लील है. महात्मा अमर रहें !
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