देशी धनकुबेर ही नहीं विदेशी धनकुबेरों के हित का उतना ही और पूरा अधिकार होता है, जितना देशी धन कुबेरों का. वे लाभ के लिए प्रतिद्वंद्वी तो हो सकते हैं दुश्मन नहीं. अगर इस लाभ के व्यापार में सबसे घाटे में कोई व्यापारी संस्थान रहते हैं तो वे संरकारी संस्थान है क्योंकि यदि उनसे फायदा धनकुबेरों को नहीं होता तो उनका अस्तित्व खतरे में आ जाता है, फिर उन्हें या तो धन कुबेरों को बेच दिया जाता है, जिसे हम विनियोजन कहते हैं या फिर उन्हें घाटे में ही चलने दिया जाता है. तब विपक्ष से दो चार दिन हल्ला मचवाया जाता है. संसद सत्रों को टाला जाता है. प्रधानमंत्री विदेश चले जाते हैं. फिर डिबेट होती है. संसद हंगामे के लिये है.
न हिंदुत्व खतरे में है न इस्लाम क्योंकि इनकी रक्षा करने अपनी जान पर खेल कर भी और दूसरे निर्दोष व्यक्तियों को ज़िंदा जला कर या धारदार हथियार के काटकर उसका वीडियो बना कर नेट पर डाल कर वायरल करके यानी आतंक पैदा करके तथाकथित धर्मों की रक्षा कर लेते हैं. अगर कुछ खतरे में है तो हमारा लोकतंत्र खतरे में है क्योंकि लोकतंत्र के चारों स्तम्भ मोदी राज में हिल गए हैं. इनको चलाने वाले संसद में हमारे जनप्रतिनिधि अपने अपने एजेंडे लेकर बैठ गए हैं. सत्ताधारी दल अपनी शक्तियों का दुरुपयोग आंख बंद करके अतार्किक तरीके से कर रहा है. नौकरशाही संविधान की शपथ लेकर आंख बंद करके सत्ता में बैठे लोगों के क्रीत दास बन गए है. जिस तरह केंचुए में रीढ़ नहीं होती उसी तरह उनकी रीढ़ खुर्दबीन से भी नहीं देखी जा सकती. जितना बड़ा नौकरशाह उतना बड़ा क्रीतदास यह हाल हर विभाग में है.
सत्ताधीश धनकुबेरों के क्रीतदास है क्योंकि उन्हें चुनाव के लिए धन चाहिए. उनकी सेवा के लिए वे देश को बर्बाद करने में किसी भी सीमा तक जा सकते हैं. हर वर्ष के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि देश में भूख, बीमारी, अशिक्षा, बेरोज़गारी और धार्मिक व जातीय असहिष्णुता का आंकड़ा अभूतपूर्व रूप से बढ़ जाता है और गरीबी भी अभूतपूर्व रूप से ही बढ़ती है. इन सब के साथ धनकुबेरों का धन, व्यक्तियों और समाज के आम आदमी गरीबी की ओर हर बढ़ जाते है. सामाजिक आतंक बढ़ जाता है. हमारे यानी देश में पत्रकारिता और बुद्धिजीवी वर्ग ने भी अपने अंग्रेज़ो के समय के क्रीतदासत्व को ओढ़ लिया है और बिछा लिया है ताकि उनका तथाकथित स्टेटस बना रहे और बढ़ता जाए ताकि उनके बच्चे धनकुबेरों के स्कूलों में ही पढ़े कॉलेज एजुकेशन के लिए विदेश जाए और फिर धनकुबेरों का स्थान ले और अपने से निम्नश्रेणी के लोगों को अपने दासत्व के लिए मजबूर करें.
पत्रकारिता या लेखन में दासत्व नहीं तो भाड़ के लेखक और पत्रकार हैं. फिर तो उनके साथ देश के दुश्मन की तरह का ही व्यवहार होना चाहिए क्योंकि उन्हीं की पहुंच आम आदमी तक होती है. अगर वे ही आम आदमी को जगाने लगें तो धन कुबेरों का प्रजातंत्र चल लिया. प्रजातंत्र का अर्थ ही धनकुबेरों की सत्ता है जिसे आम आदमी के वोट के झुनझुने द्वारा धन बल और पशुबल, जिसे सभ्य समाज में बाहुबल भी जाता है, के सहारे प्राप्त करते हैं. जिस दिन धनकुबेरों का इस तंत्र अर्थात कथित लोकतंत्र से लाभ नहीं होगा, यह तंत्र उसी दिन समाप्त कर दिया जाएगा. हमारा देश लोकतंत्र बस इसीलिए है कि आम आदमी का वोट लेने के लिए उसे इतना बहक दिया जाए कि वह हर सूरत में धनकुबेरों के लिए बढ़िया क्रीतदासों को सत्ता में सकें.
इसमें देशी धनकुबेर ही नहीं विदेशी धनकुबेरों के हित का उतना ही और पूरा अधिकार होता है, जितना देशी धन कुबेरों का. वे लाभ के लिए प्रतिद्वंद्वी तो हो सकते हैं दुश्मन नहीं. अगर इस लाभ के व्यापार में सबसे घाटे में कोई व्यापारी संस्थान रहते हैं तो वे संरकारी संस्थान है क्योंकि यदि उनसे फायदा धनकुबेरों को नहीं होता तो उनका अस्तित्व खतरे में आ जाता है, फिर उन्हें या तो धन कुबेरों को बेच दिया जाता है, जिसे हम विनियोजन कहते हैं या फिर उन्हें घाटे में ही चलने दिया जाता है. तब विपक्ष से दो चार दिन हल्ला मचवाया जाता है. संसद सत्रों को टाला जाता है. प्रधानमंत्री विदेश चले जाते हैं. फिर डिबेट होती है. संसद हंगामे के लिये है.
हिन्दू-मुसलमान हंगामे के लिए या धर्म और जाति के हंगामे के लिये. हड़तालें भी प्रायोजित होतीं हैं हमारे देश में. अब तो मज़दूर वर्ग की कमर तोड़ दी गयी है. अब अगर कोई कहे भी तो हड़ताल मज़दूरों के बस की बात नहीं है क्योंकि उनके कनस्तर में आटा दो-तीन दिन से ज़्यादा दिनों के लिए नहीं होता. निम्न मध्यवर्ग तो बिचारा है, वह न ऊपर जा सकता, न नीचे आएगा इसलिए उसकी कोई औकात नहीं होती. उच्च मध्यवर्ग तो क्रीत दासों में उच्च होता ही है. न्यायपालिका पर अब भरोसा नहीं रहा क्योंकि उसके पास दांत नहीं हैं. उसके आदेश कोई नहीं मानता. वैसे भी गरीब आदमी के लिए न्याय है ही नहीं, तो यह लोकतंत्र कैसा महोदय ?
- सुरेन्द्र कुमार के पोस्ट से साभार
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