प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी, पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता
आज विश्व हिंदी दिवस है. यह लोकतंत्र के पराभव और वेबोक्रेसी के उत्थान का युग है. यह बौने को महान और महान को बौना बनाने का युग है. विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित-प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था इसीलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.
भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाये जाने की घोषणा की थी. उसके बाद से भारतीय विदेश मंत्रालय ने विदेश में 10 जनवरी 2006 को पहली बार विश्व हिन्दी दिवस मनाया था. इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है. विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं. सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं.
आप भी फेसबुक (सोशल मीडिया) पर हिंदी की समस्याओं पर कुछ जरूर लिखें. लेकिन हिंदी वाले निरंतर हिंदी त्याग रहे हैं, उनके बच्चे हिंदी की बजाय अंग्रेजी में बात करना पसंद करते हैं. इनमें अधिकांश मोदी और दक्षिणपंथी विचारधारा से गहरे प्रभावित हैं।लेकिन यह सब विमर्श से गायब है. हिंदी रसातल में है. मित्रगण और भी नीचे ले जाने में लगे हैं. हिंदी फेसबुक में सब सच लिखते हैं ! कोई गलत नहीं लिखता ! हिंदी महान है, यही वजह है उसके पास लेखक कम है, लेखकनुमा अधिक हैं !
हिंदी साहित्य, लेखकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ सुनियोजित ढंग से घृणा पैदा की जा रही है. हिंदी के इस फिनोमिना की जड़ें कहां हैं ? असल में साहित्य, संस्कारों और कला-आस्वाद से वंचित हिंदीवाले साहित्यकार और साहित्य की पीड़ा और नजरिए को नहीं समझ सकते. इस तरह के कला शून्य मोदी भक्तों की फेसबुक पर संख्या बेशुमार है. यही वे लोग हैं जो लेखकों के द्वारा उठाए गए असहिष्णुता के सवाल को आज तक समझ नहीं पाए. वे वोटबैंक राजनीति और मोदी भक्ति से आगे देख नहीं पाए.
लेखक के नजरिए का संबंध उसकी सामाजिक अवस्था में मच रही हलचलों, अशान्ति और असुरक्षा से है. हर साम्प्रदायिक घटना पर प्रतिवादी लेखकों से कैफियत मांगना असहिष्णुता का घृणिततम रूप है. समाज में घट रही हर साम्प्रदायिक घटना पर कैफियत देने का दायित्व सरकार का है, खासकर केन्द्र सरकार और साम्प्रदायिक संगठनों का है. लेकिन लेखकों को सबसे अधिक अपमानित आरएसएस और मोदी गैंग ने किया. आप गंभीरता से सोचें, लेखक का अपमान उसकी भाषा का अपमान है कि नहीं ? लेखक के मन का कत्ल करके क्या भाषा बचेगी ?
भाषा दिवस का मतलब ‘पीएम चमचागिरी दिवस’ नहीं है ! लेकिन हो यही रहा है. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर सरकारी विभागों तक जय हो मोदी ! असल में उत्सवधर्मी लोगों का हिंदी भाषा के अर्थ, दायरे और सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है. वे एकदम शून्य हैं. वे सरकारी सर्कुलर के वितरण की तरह विश्व हिंदी दिवस मना रहे हैं. उनके लिए बैनर, मंच महत्वपूर्ण है, हिंदी और उसके सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है.
हिंदी का धर्मनिरपेक्षता से गहरा संबंध है. आधुनिक हिन्दी का विकास प्रतिक्रियावाद, साम्प्रदायिकता और हिन्दुत्व के खिलाफ संघर्ष करते हुए हुआ. लेकिन आरएसएस-मोदी गैंग ने हिंदी को प्रतिक्रियावाद और गाली की भाषा बनाया है, यह हिंदी का अपमान है. क्या विश्व हिंदी दिवस के आयोजक इस पहलू पर कुछ बोलेंगे ? हिंदी जनविरोधी भाषा नहीं है. जनविरोधी नीतियों का विरोध हिंदी उत्थान से जुड़ा है.
विगत तीन दशक में साम्प्रदायिकता ने जिस तरह आक्रामक भाव से अपने को प्रदर्शित किया है, वह निंदनीय है. हम सब धर्मनिरपेक्ष लोग उनकी हरकतों की निंदा करते हैं. फेसबुक पर साम्प्रदायिकता के पक्षधरों को जहरीला प्रचार करते सहज ही देखा जा सकता है. साम्प्रदायिकता माने विष है, खासकर भाषा के लिए तो यह बेहद ख़तरनाक है, जो इसमें अमृतरस खोज रहे हैं वे भारत-विभाजन को भूल रहे हैं.
साम्प्रदायिक ताकतें (बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक) एक-दूसरे को जाग्रत-संगठित कर रही हैं और समाज का विभाजन कर रही हैं. धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर बना रही हैं. सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्रकामी नागरिकों की यह जिम्मेदारी है कि सभी किस्म की साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज बुलंद करें.
हिंदी के विकास के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं, वे हैं –
- साम्राज्यवाद विरोध,
- वर्चस्व भावना विरोध, और
- साम्प्रदायिकता विरोध
जबकि हमारे फेसबुक मित्र और हिंदीसेवी आज भी इन तीनों से प्यार करते हैं. हम कहते हैं जरा इनसे नफरत करके तो देखो भाषा, विवेक और समाज सुधर जाएगा. भाषा का समाज, लेखक, प्रकाशक, शिक्षा व्यवस्था, राजनीति, मीडिया और विज्ञापन आदि से गहरा संबंध है.
जिस तरह हिंदी लेखकों की समस्याएं हैं, उसी तरह हिंदी प्रकाशकों की भी समस्याएं हैं. प्रकाशकों की मूल समस्या है पुस्तकों के प्रति अभिरुचि का अभाव. मध्यवर्ग की रूचि नौकरी में है, कम्पटीशन में है, वैभवपूर्ण उपभोक्तावाद में है. पुस्तक प्रेम को हमने सामाजिक हैसियत नहीं बनाया बल्कि अन्य चीजों को सामाजिक हैसियत का प्रतिनिधि बना दिया. पुस्तक की मार्केटिंग बहुत ही पुरातनपंथी तरीके से होती है. इसमें जीवनशैली, सामाजिक हैसियत और ज्ञान शामिल नहीं है. हमें पुस्तक के प्रचार को सूचनात्मकता के दायरे से निकालना चाहिए.
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