अयोध्या में 22 लाख 23 हजार दीप जलाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया जा रहा था, उसी समय उत्तराखण्ड में चारधाम यात्रा को सुगम बनाने के लिए मजदूर सुरंग में जा रहे थे. यह सुरंग उत्तरकाशी से यमुनोत्री धाम की बीच की दूरी 26 कि.मी. कम करेगा और इसे सर्दियों के मौसम में भी चालू रखा जा सकता है. चारधाम परियोजना, जिसको ‘ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट’ भी कहा जाता है, का शुभारंभ फरवरी 2017 के उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव से पहले दिसम्बर 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था. इस परियोजना के तहत 889 कि.मी. लम्बे राष्ट्रीय राजमर्गों को चौड़ा कर चारों धाम को आपस में जोड़ना है, जिस पर कुल 12,595 करोड़ रू, खर्च होने का अनुमान है.
इस परियोजना को मार्च 2024 तक पूरा होना था, ताकि इसका उद्घाटन 2024 चुनाव से पहले प्रधानमंत्री कर सकें. इसी परियोजना के तहत 853,79 करोड़ रू, की लागत से घरासू से बाड़कोट के रास्ते में 4531 मीटर लम्बा और 14 मीटर चौड़ी सुरंग का निर्माण एनएचआईडीसीएल के देख-रेख में नवयुग कम्पनी करा रही है. बाड़कोट की तरफ से इस सुरंग का निर्माण 1,600 मीटर और सिल्क्यारा की तरफ से 2,340 मीटर का निर्माण हो चुका है.
11 नवम्बर, 2023 को दूसरी पाली में जब लगभग 174 मजदूर (रात में एंट्री के अनुसार) अंधेरी सुरंग में दाखिल हो रहे थे कि 12 घंटे की पाली (सप्ताह में 72 घंटा, नारायण मूर्ती की 70 घंटे से भी अधिक समय) समाप्त कर सुबह रोशनी देखेंगे और अपने परिवारजनों-मित्रजनों के साथ दीपावली की खुशियां मनाएंगे. इसमें 40-41 ऐसे मजदूर हैं जो लगभग 150 घंटे बाद भी उस रोशनी को नहीं देख पाये और न ही उनको अपने देश-प्रदेश में बनने वाले दीपोत्सव के विश्व रिकॉर्ड की जानकारी मिल सकी. बे अंधेरे गुफे में अंधेरी अनिश्चतताओं के बीच घिरे हैं. वे बोल रहे हैं कि, ‘हमें बेचैनी हो रही है, हमें खाना कि नहीं, हवा की जरूरत है… खाना नहीं हवा भेजिए.’ उनको यह भी पता नहीं चल पा रहा है कि उनके प्रियजन किस बेचैनी से उनका इंतजार कर रहे हैं. लब कुमार रतूड़ी अपने साथी मजदूरों के लिए पुलिस-प्रशासन से लड़ रहा है, तो आकाश अपने पिता का, प्रेम सिंह नेगी अपने भाई का कुशल क्षेम पूछने गांव से सुरंग के मुहाने पर पहुंच चुके हैं.
बिहार के गुडडू यादव कहते हैं कि हमारे 35 से अधिक लोग अन्दर फंसे हैं, अभी कोई बाहर नहीं निकला. कर्मचारियों की 12 घंटे की शिफ्ट होती है जो हर 15 दिन में बदलती है. रात की पाली वालों को मंगलवार से दिन की पाली शुरू करनी थी. बंगाल के मजदूर राजीव दास ने बताया कि हादसे में बचे लोग घटना स्थल से 300 मीटर की दूरी पर रहते थे. सभी सुरंग के प्रवेश द्वार की तरफ दौड़े, कुछ लोग जेसीबी ड्राइवरों को खोजने लगे और कुछ लोग रात की पाली में अपने दोस्तों को खोजने गए. शुरू में सोचा कि यह छोटी सी दुर्घटना है और सभी ने मलबा हटना शुरू कर दिया. लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हो गया कि यह एक चुनौतीपूर्ण काम है.
ठीक उसी तरह सुरंग में फंसे मजदूरों को शुरूआती समय में आशा बंधी होगी कि उनका देश तो चंद्रमा और मंगल पर लाखों कि.मी पहुंच गया, तो इस 40 मीटर सुरंग से निकालना चंद मिनट की बात है. लेकिन उनका वह चंद मिनट घंटा-दो घंटा, दिन-दो दिन में बदलता जा रहा है. इन मजदूरों को कहीं उत्तराखंड, मिजोरम, मेघालय, धनबाद की घटनाएं तो याद नहीं आ रही होंगी ?
रेस्क्यू ऑपरेशन
अभी दबे स्वर में कहा जा रहा है कि पीएमओ, गृह मंत्रालय सभी इस घटना पर नजर रखे हुए हैं, मुख्यमंत्री से जानकारी ली जा रही है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री अधिकारियों से पल-पल की जानकारी ले रहे हैं. रेस्क्यू ऑपरेशन की मॉनिटरिंग कर रहे पीएमओ ने सेना को शामिल किया है जो हैबी मशीन ड्रिलिंग का काम करेगी. सेना का मालवाहक विमान हरक्यूलिस बुधवार को मशीन लेकर चिन्यालीसौर हैलिपेड पहुंचा, जहां से मशीन सिलक्यारा लाई जा चुकी है. केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह भी घटना स्थल का दौरा कर चुके हैं और उन्होंने आश्वासन दिया है कि मजदूरों को बाहर निकाला जायेगा.
एक मजदूर का कहना है कि – ‘मैं इसी कंपनी का वर्कर हूं, आज यहां 4 दिन होने को हैं. यहां नेता या कोई और आ रहे हैं और देख रहे हैं, इन सब के लिए यह मजाक की बात है. शासन-प्रशासन सोया हुआ है. यहां सेकेण्ड हैंड मशीन आ रही है और शासन भी बोल रहा है कि हम आदमी निकाल रहे हैं. शासन बोल रहा है कि हम व्यवस्था में लगे हैं. मगर कहां है इनकी व्यवस्था ?’
प्रेम सिंह नेगी अपने भतीजा आकाश के साथ टनल में फंसे अपने भाई से मिलने आये हैं. प्रेम सिंह कहते हैं कि- ‘हम पिछली रात (सोमवार) को यहां पहुंचे हैं. मुझे यहां हो रहा काम संतोषजनक नहीं लग रहा है. यहां बचाव कार्य सुस्त तरीके से चल रहा है. जब पिछली रात पहुंचे थे तो हमें कहा गया था कि रेस्क्यू के लिए मशीन रात को ही 11 बजे आ जाएंगी. जब हमने सुबह पता किया तो मशीन सुबह पांच बजे आई है, इतनी देर हो जाने के बाद भी अभी काम शुरू नहीं हो सका है.’ यही कारण है कि 72 घंटे बाद मजदूरों में असंतोष देखा गया, जिनको पुलिस ने रोक दिया.
दुर्घटना के 50 घंटे बाद मंगलवार को मलबे ड्रिल करने वाली ऑगर मशीन सुरंग में भेजी गई, जिससे लगा जल्द ही मजदूर बाहर आ जायेंगे लेकिन 24 घंटे बाद बुधवार को पता चला कि मशीन सही तरीके से ड्रिल नहीं कर पा रही है. इंजीनियर और ड्रिलिंग एक्सपर्ट आदेश जैन ने बताया कि 14 नवम्बर तक 6 बार मलबा धसक चुका है और इसका दायरा 70 मीटर तक बढ़ चुका है. पहले जो ड्रिलिंग मशीन लगी थी, केवल 45 मीटर तक ही काम कर सकती है, इसलिए बड़ी मशीन लाई गई है.
ऐसे में उस मशीन के लिए जो बेस बनाया गया था उसे हटाकर अब फिर से नया बेस तैयार किया जा रहा है. प्रशासन के रवैया ने उनके मन में संदेह पैदा कर दिया है. तकनीकी विशेषज्ञों का कहना था कि बुधवार (15 नवम्बर) तक सुरक्षित बाहर निकाल लिया जाएगा. 17 नवम्बर को एनएचआईडीसीएल के निदेशक अंशू मनीष खलको ने कहा कि ढीला मलबा बचाव प्रयासों में बाधा डाल रहा है. अधिकारियों का कहना है कि मलबे में मौजूद पत्थरों की वजह से वे समय सीमा का अंदाजा नहीं लगा सकते. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक थाईलैंड और नॉर्वे जियोटेक्निकल इंस्टीटयूट के सौंइ-रॉक एक्सपर्ट्स से भी मदद मांगी गई है.
कम्पनी की लापरवाही
- एनडीआरएफ के असिस्टेंट कमांडर करमवीर सिंह ने बताया कि टनल के स्टार्टिंग प्वाइंट से 200 मीटर तक प्लास्टर नहीं किया गया था, जिसकी वजह से यह हादसा हुआ.
- समाचार में छपी रिपोर्ट के अनुसार सुरंग के जिस हिस्से में भूस्खलन हुआ, वहां पर गार्टर रिब की जगह सरियों का रिब बनाकर लगाया गया था. गार्टर रिब लगाया गया होता तो भूस्खलन नहीं होता.
- मजदूर राजीव दास के अनुसार- ‘पिछले दो-तीन दिनों से हम महसूस कर रहे थे कि शायद ढांचा बहुत मजबूत नहीं है. एक दिन पहले ही जब हम जालीवार गार्डर हटा रहे थे तो हमने कुछ मलवा गिरते देखा. शनिवार रात छत से कंक्रीट का टुकड़ा भी गिर गया. हमने अपने सीनियरों को सूचित किया, इसके पहले वे कुछ कर पाते, घटना घट गई.
उत्तराखण्ड सरकार ने घटना की जांच के लिए छह सदस्यीय कमेटी बनाई है. इस प्रोजेक्ट का 2019 में वहां के लोगों ने विरोध किया. लम्बे समय से भू-वैज्ञानिक लिख और बोल कर बताते रहे हैं कि हिमालयन क्षेत्र में पहाड़ों के अन्दर टनल बनाना, नदियों पर बांध बनाना खतरे से खाली नहीं है. हमने हाल के कुछ वर्षों में पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं को देखा है.
कम्पनी अपने काम को अच्छी तरह से क्यों नहीं कर रही थी ? क्या प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए उन पर समय को लेकर दबाव था ? कम्पनी अपने बेबासइट पर लिखती है कि बंदरगाह विकास परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद हम भारत के बंदरगाहों के सबसे बड़े डेवलपर होने के गौरव पाने के करीब हैं. हम भारत में ही नहीं विश्व स्तर पर सबसे कठिन इलाकों में चुनौतीपूर्ण परियोजनाओं को शुरू करने और समाप्त करने की महत्वाकांछी परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं. कम्पनी का यह दावा खोखला साबित होता है जब वह गाटर रिब की जगह सरियों का रिब लगाता है, प्लास्टर नहीं करता और मलवा गिरने पर भी काम को नहीं रोकता है. यह दर्शाता है कि कम्पनी ने मानव जीवन को लेकर लापरवाही बस्ती है. मंगल और चांद पर पहुंचने वाले भारत के संदर्भ में 40-70 मीटर अंदर सुरंग में फंसे मजदूरों को 150 घंटे में भी नहीं निकाल पाना, मन में कई सवाल खड़े करता है.
- सुनील कुमार
Read Also –
हल्द्वानी-जोशीमठ : विनाशकारी परियोजनाओं पर सवाल के बजाय विनाश के बचाव में तर्क की तलाश
उत्तराखंड के सांप्रदायिक सौहार्द को तोड़ने की विनाशकारी मुहिम
पूंजीवादी ‘विकास’ की बदौलत तबाही के मुहाने पर पहुंचा जोशीमठ
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]