कोई मौसम
ऐसा भी आता है
कितना भी सहेजें
शब्दों में घुन लग जाता है
ऊपर से
सही सलामत दिखते हैं
भीतर से ढह रहे होते हैं
निरंतर
जैसे बाढ़ में टूटते हैं
नदियों के कगार
शब्दों से टूट कर
अर्थ बह जाते हैं
बाढ़ के पानी में
डूबने से पहले
बहुत छटपटाते हैं अर्थ
कितना ही धूप दिखाओ
शब्दों में लग जाते हैं
दीमक
बदरंग धूसर भुसभुसे शब्द
ढो नहीं पाते
बुनियादी अर्थों का बोझ
छूते ही बिखर जाते हैं
बच रहती है
सड़ी मिट्टी की धुमैली गंध
बेजान कीड़ों से पंखझरे अर्थ
शब्द
चरित्रहीन हो जाते हैं
किसी किसी मौसम में
ढीठ और उजड्ड
ऐसे में उनसे मुँह चुराकर
निकल जाना ही बेहतर
अपनी इज़्ज़त बचानी हो
तो किसी किसी मौसम में
शब्दों के मुंह लगने की बजाय
चुप मार जाना ही बेहतर
कम से कम जब तक
मौसम का मिजाज़ न बदले
- हूबनाथ पाण्डेय
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]