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क्या अखिलेश और ममता सिर्फ राहुल को घेरेंगे या यह ‘खेला’ बड़ा है ?

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बंगाल में ममता से अब मोदी को परेशानी नहीं है. ममता को मोदी से नहीं है, दोनों को राहुल से परेशानी है. दोनों जानते हैं कि उनकी राजनीति के सामने जब भी कोई डट कर खड़ा होगा तो वह राहुल है इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इस अधोषित गठबंधन में अखिलेश भी शामिल कर लिए जाएं. राहुल को उनके गृह प्रदेश यूपी में कमजोर करने में अखिलेश बहुत सहायक सिद्ध होंगे.

क्या अखिलेश और ममता सिर्फ राहुल को घेरेंगे या यह 'खेला' बड़ा है ?

शकील अख्तर

क्या राहुल को कमजोर करने की शर्त पर मोदी अखिलेश को यूपी दे सकते हैं ? यह नया सवाल इसलिए सामने आया क्योंकि बंगाल जीतने के बाद ममता बनर्जी अपने जिस राष्ट्रीय मिशन में लगी हैं, उसका एक ही उद्देश्य है कि राहुल और कांग्रेस को किस तरह कमजोर किया जाए. अ

भी वे दिल्ली आईं. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर कई नेताओं से मिलीं. कुछ को अपनी पार्टी में शामिल किया मगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से नहीं मिली. वे यह भी भूल गईं कि अभी जिस उप चुनाव में जीतकर उन्होंने अपनी धमक वापस पाई है उसमें सोनिया ने उनका समर्थन किया था.

सोमवार को संसद के शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले हुई विपक्षी दलों की बैठक में भी उनकी पार्टी टीएमसी शामिल नहीं हुईं. सवाल यहीं से शुरू हुआ क्योंकि इस बैठक में सपा भी शामिल नहीं हुई. सोमवार को संसद का पहला दिन विपक्ष की जीत की दिन था – किसान बिल वापस लेने का. सात साल में मोदी सरकार पहली बार पीछे हटी है. यह मोदी की राजनीति के हिसाब से बड़ी घटना है.

उन्होंने सायास अपनी ऐसी इमेज बनाई है कि वे न झुकने वाले दिखें, मगर किसानों ने उनसे माफी मंगवा ली. जाहिर है कि किसानों के बाद इस मौके पर सबसे ज्यादा खुश होने वाले राहुल गांधी थे. उन्होंने सोमवार के दिन को नया सूरज उगाने की संज्ञा दी, मगर उस सूरज में ममता और अखिलेश ने ग्रहण लगाना चाहा.

जहां एक दर्जन पार्टियों ने इस खुशी के मौके पर मिलकर मीटिंग की, संसद में मोदी को घेरने की रणनीति पर विचार किया, वहीं ममता के साथ अखिलेश की पार्टियों ने इस मौके पर नदराद रह कर साफ संदेश दिया कि वे मोदी के खिलाफ विपक्षी एकता को मजबूत करने वाले नहीं हैं. एक दर्जन विपक्षी पार्टियों से अलग रहेंगे और एक तीसरे मोर्चे की तरह जो हमेशा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के लिए बनता है, काम करेंगे.

प्रधानमंत्री मोदी की यह बड़ी सफलता है. 2024 के चुनाव में वे बिखरा हुआ विपक्ष चाहते हैं. सोनिया गांधी ने इसे समझा था और अभी अगस्त में विपक्षी दलों के साथ 2024 के चुनाव के लिए मीटिंग की थी. इसमें 19 दलों के नेता शामिल हुए थे, जिनमें ममता भी थी. सपा इसमें भी नहीं थी, क्या संकेत हैं यह ?

क्या मायावती की तरह अखिलेश भी उतना ही विपक्ष दिखेगें जितना मोदी जी चाहेंगे ? मुलायम सिंह यादव लोकसभा में प्रधानमंत्री की तारीफ कर चुके हैं. वे यह भी कह चुके हैं कि वे जेल जाने से बच गए. लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद से राजनीति में एक मैसेज है कि कोई भी सुरक्षित नहीं है. साथ ही यह भी मैसेज है कि अगर लालू उस स्तर पर विरोध नहीं करते तो बिहार जो तेजस्वी जीत गए थे, उन्हें दे दिया जाता.

बिहार चुनाव का बड़ा साफ संदेश था कि कितना भी समर्थन हो जीतने और सरकार बनाने नहीं दिया जाएगा. इस डर का असर सब पर हो गया है सिवाय राहुल गांधी के. एक राहुल ही अलग मिट्टी के बने हुए दिखते हैं, जो किसी से नहीं डरते. निर्भीक. प्रधानमंत्री मोदी को यही डर है कि 2024 में कहीं राहुल की यह छवि जनता में क्लिक नहीं कर जाए.

हमारे यहां जो गुण सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है वह है निर्भीकता का. जो नेता बड़ी ताकतों से लड़ता हुआ दिखता है, उसे जनता अपना नायक मान लेती है. इन्दिरा गांधी बड़ा उदाहरण हैं. उनका साहस ही सबसे बड़ा गुण माना जाता है. अमेरिका से लेकर पाकिस्तान, सेठ साहूकारों, राजा, रानियों से लड़ती हुई इन्दिरा को जनता ने हमेशा सिर आंखों पर बिठा कर रखा. इसी तरह लालू और मायावती को भी तभी स्वीकृति मिली, जब उनकी किसी से नहीं डरने वाली छवि सामने आई.

प्रधानमंत्री मोदी की जो राजनीति है उसमें सबसे अहम 2024 का लोकसभा चुनाव है. तब तक उन्हें प्रधानमंत्री बने दस साल हो जाएंगे. वे एक तीसरा टर्म और चाहते हैं. उनकी राजनीति का यही सार है. बंगाल में ममता से अब उन्हें परेशानी नहीं है. ममता को उनसे नहीं है, दोनों को राहुल से परेशानी है.

दोनों जानते हैं कि उनकी राजनीति के सामने जब भी कोई डट कर खड़ा होगा तो वह राहुल है इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इस अधोषित गठबंधन में अखिलेश भी शामिल कर लिए जाएं. राहुल को उनके गृह प्रदेश यूपी में कमजोर करने में अखिलेश बहुत सहायक सिद्ध होंगे.

अभी बिहार में सबने देखा ही कि किस तरह राजद ने कांग्रेस से समझौता तोड़ा. लालू इस समय जेल से बाहर हैं, जमानत पर और मायवती एवं मुलायम की तरह अब वे जिन्दगी के बाकी दिन चैन से गुजारना चाहेंगे. बिहार में नीतिश गई बहार हैं. वहां की जातिगत संरचना में भाजपा यूपी की तरह अकेली सरकार नहीं बना सकती, ऐसे में लालू और मोदी के संबंध आगे कैसे बनते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा.

भारतीय राजनीति भी अब एक नए मोड़ पर आ रही है, जहां केन्द्र में दो ध्रुव बन रहे हैं. एक मोदी और दूसरे उन्हें लगातार चुनौती दे रहे राहुल. राहुल अब 2014 और 2019 की तरह आधे अधुरे मन से नहीं खेल रहे, खासतौर से पिछले दो साल वे पूरी एकाग्रता से बैटिंग कर रहे हैं. जैसा कि कहते हैं कि बैट्समेन की आंखें बाल पर जम गई हैं. उन्हें बाल फुटबाल नजर आने लगी है.

मोदी राजनीति के जमीनी खिलाड़ी हैं. वे एक एक डवलपमेंट को ठीक तरीके से समझ रहे हैं. वे सोनिया की तरह जैसे उन्होंने 2011 के बाद की या वाजपेयी जी की तरह जो उन्होंने 2004 में शाइनिंग इंडिया को सच मान कर की गलती करने वाले नहीं हैं. हवा में नहीं खेलेंगे. इस शातिर खेल में राहुल चाहे चूक जाएं, मोदी के गलत चाल चलने की संभावना बिल्कुल कम है. वे अपना बादशाह बचाने के लिए वजीर को मरवा सकते हैं. शतरंज और राजनीति में यह बुरा नहीं माना जाता.

लड़ाई बहुत दिलचस्प है. मोदी दिमाग से, धीरज से, घोड़े को कुदाते हुए मगर पीछे लगे ऊंट से शह और मात देने वाले खिलाड़ी हैं. जो भाजपा में भी और भाजपा के बाहर भी उनकी राजनीति नहीं समझते उन्हें गुजरात का उनका दौर समझ लेना चाहिए.

संजय जोशी से लेकर तोगड़िया, हरेन पांड्या सब निपट गए. इसी तरह दिल्ली में जेटली, सुषमा स्वराज रहे नहीं. राजनाथ सिंह ने खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया. एक गडकरी हैं, मगर उनकी ताकत भी उसी नागपुर में है जहां से मोदी को अभी पूरी छूट मिली हुई है इसलिए गडकरी कोई खास चुनौती नहीं हैं.

अगर संघ चाहेगा तो वह गडकरी क्या किसी को भी आगे ले आएगा इसलिए गडकरी का कोई महत्व नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि संघ को मोदी कब तक उपयोगी लगते हैं. उनकी वोट खींचने की ताकत और दिए हुए टास्क को पूरा करने में नहीं हिचकना. मोदी खुद की छवि बनाते हुए अजेंडा सारा संघ का ही पूरा कर रहे हैं.

विदेशों में इतना जाना, दोस्ती बनाना और वहां छवि भी खराब होने के बावजूद मोदी देश में कहीं हिन्दु मुसलमान करने से पीछे नहीं हटे. वे जानते हैं कि संघ की मूल राजनीति यही है. इसे करने में अपनी अन्तरराष्ट्रीय छवि के कारण वाजपेयी थोड़ा ढीले पड़े तो संघ ने उनके खिलाफ नारे लगवा दिए थे.

मोदी ऐसी कोई गलती नहीं करेंगे. दरअसल उन्हें इस समय पार्टी के अंदर से सबसे तगड़ी चुनौती इसी खेल में मिलने का खतरा है. अभी कुछ दिनों पहले तक संघ के साथ भक्तों में भी योगी का ग्राफ बहुत बढ़ गया था, मगर पहले उन्हें अपनी गाड़ी के पीछे पैदल चलता दिखाकर और फिर कंधे पर आशीर्वाद की तरह हाथ रखकर मोदी ने योगी को वापस कट टू साइज करने की कोशिश की है.

ऐसे में अखिलेश की उपयोगिता भी बढ़ गई है. एक तरफ केन्द्र में राहुल को घेरने में और दूसरी तरफ यूपी में योगी को कमजोर करने में वे तुरुप की तरह इस्तेमाल हो सकते हैं.

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