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ट्रंप ने भारत को 26% का तोहफा-ए-ट्रंप आखिर क्यों दिया होगा ?

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ट्रंप ने भारत को 26% का तोहफा-ए-ट्रंप आखिर क्यों दिया होगा ?
ट्रंप ने भारत को 26% का तोहफा-ए-ट्रंप आखिर क्यों दिया होगा ?

ट्रंप के टैरिफ को लेकर कुछ दुविधा भारतीय लिबरल बुद्धिजीवी तबके में बनी हुई है. कई लोगों को लग रहा है कि अमेरिका पर टैरिफ लगाकर सारी दुनिया उसे दशकों से चूना लगा रही है, जिसमें भारत भी शामिल रहा है. फिर वे यह भी मान लेते हैं कि दुनिया भर के मुल्कों ने अपने देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए इम्पोर्ट ड्यूटी लगा कर अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाया है, इसलिए ट्रंप अपने हिसाब से सही कर रहा है.

लेकिन रुकिए ! भारत और चीन जैसे देश तो आजादी के बाद से ही अपनी अर्थव्यवस्था को बंद या संरक्षित रखे हुए थे. उन्हें सपना नहीं आया था कि वे WTO और वैश्वीकरण में कूद पड़े. उन्हें इसके लिए यूरोपीय और अमेरिकी पूंजी और सरकारों ने ही समझाया, और इसके लिए दबाव डालने के साथ-साथ विश्व बैंक IMF तक का सहारा लिया.

70 के दशक से पहले तक अमेरिका मैन्युफेक्चरिंग में दुनिया में शीर्ष पर था. अपनी अर्थव्यवस्था को वित्तीय अर्थव्यवस्था बनाकर कई गुना बढ़ाने की खब्त उसे ही सवार थी. उसके कॉर्पोरेट दुनिया के कोने-कोने में अपनी तकनीक और पूंजी के बल पर सस्ते श्रम का दोहन कर अपना मुनाफा कई-कई गुना करने के लिए बेताब थे.

चीन की छलांग से पहले एशियाई टाइगर की स्टोरी हम सब सुन चुके हैं. लेकिन जापान और दक्षिण कोरिया की तरक्की को कब ठिकाने लगाना है, उसकी कुंजी भी अमेरिका के पास थी. अमेरिकी सेना इन दोनों देशों में स्थायी अड्डा बनाये हुए है.

80 के दशक में चीन और 90 के दशक में भारत को भी उसी ने कुदाया. बस फर्क ये है कि भारत सहित इन सभी देशों की चाभी अमेरिका के पास बनी रही, लेकिन चीन ने अपने श्रमिकों, पर्यावरण और संसाधनों का दोहन होने देने के साथ-साथ, अपने रणनीतिक लक्ष्य को कभी नहीं छोड़ा.

चीन की समाजवादी व्यवस्था में पब्लिक सेक्टर और पूंजीवाद दोनों चला. वैश्विक पूंजी के दोहन में भी चीनी श्रमिकों की आय पहले की तुलना में बढ़ी. स्किल्स भी सीखा और चीन ने अपने देश में स्किल डेवलपमेंट के लिए स्कूली शिक्षा से इसे चरणबद्ध ढंग से लागू कराया, साथ ही लाखों की संख्या में उच्च शिक्षा के लिए अपने युवाओं को यूरोप अमेरिका भी भेजा.

शुरू में कुछ लोग वहीं रुक गये. लेकिन चीन की सरकार के पास कमान बनी हुई थी, इसलिए जैक मा या उनके जैसे दर्जनों चीनी कॉरर्पोरेट की हसरत एक हद से आगे नहीं बढ़ने दी. सबका साथ, सबका विकास सिर्फ जुमला नहीं था, बल्कि जरूरत पड़ने पर कई टेक कंपनियों, गेमिंग एप्प को सरकार ने अक्ल भी ठिकाने की.

पिछले दिनों रियलिटी सेक्टर को चीन की सरकार ने खुद गिराने में मदद की, क्योंकि वे इसे आसमान तक ले जा रहे थे. अब सरकार ही इस जमीन पर आ चुके सेक्टर को उठा रही है, ताकि करोड़ों लोगों को किफायती दरों पर आवास मिल सके.

सरकार ने ही देश के स्टार्ट अप और टेरेफिक10 कंपनियों को आवश्यक प्रोत्साहन और मदद कर उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उनके स्टॉक को खरीदने के लिए निवेशक भागे-भागे चीन आ रहे.

अगर हाल के वर्षों पर नजर डालें तो चीनी विश्वविद्यालय यूरोपीय, अफ्रीकी और एशियाई छात्रों की आमद से गुलज़ार हो रहे. इसलिए नहीं कि चीन की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही. बल्कि इसलिए क्योंकि विश्वस्तरीय शिक्षा यदि यूरोप-अमेरिका की तुलना में 1/10 पैसे खर्च कर मिल रही है, तो उधर क्यों जायें ?

अब चीन की तरह खुद को ताकतवर बनाने की दक्षिण कोरिया और जापान की हैसियत इसलिए भी नहीं हो सकती थी, क्योंकि वे साइज़ में भी छोटे थे, और दूसरा उनकी अर्थव्यवस्था भी कॉर्पोरेट (भगवान) के भरोसे ही खड़ी है.

भारत में भी मिश्रित अर्थव्यवस्था से शुरुआत हुई. लेकिन हमें शुरू से ही मोरारजी देसाई से लेकर आरएसएस और मुंबई के लालाओं की ओर से ताने सुनाये जाते रहे. संसदीय राजनीति में अपनी पार्टी को हर हाल में जिताने के लिए चंदा भी यही आगे बढ़कर देते हैं.

धीरे-धीरे पूंजी से चुनाव जीतना महत्वपूर्ण होता गया, और 90 के दशक से मुंबई के सेठों का सिक्का चलने लगा. उसी दौर में धीरूभाई का एक कथन आज भी याद किया जाता है कि ‘कांग्रेस मेरी एक जेब में, तो दूसरी जेब में बीजेपी है.’

2014 का तो चुनाव ही पहली बार पूरी तरह से कॉर्पोरेट की पसंद यहां तक कि उन्हीं के हवाई जहाज से लड़ा गया. जब पूंजी का इतना नांच हो जाय, तो गुंजाइश कहां बच सकती है ?

हम तो पहले भी अपने देशी पूंजीपतियों को पालपोसकर बड़ा कर रहे थे. आईटी क्रांति को भी माना जाता है कि भारतीय कॉर्पोरेट ने सस्ते मजदूर (आईटी स्टाफ) सप्लाई से ज्यादा कभी समझा नहीं. जबकि चीन ने हमेशा याद रखा कि ‘एक पीढ़ी खपाकर अपने देश को न सिर्फ स्किल्स में मजबूत करना है बल्कि भविष्य की प्रौद्योगिकी में नवोन्मेष के लिए उसे जर्मनी और अमेरिका से पीछे नहीं रहना है.’

अब जब चीन में खुद के ही कुशल श्रमिक भी हैं, रिसर्च के लिए संस्थान और सरकार की मदद भी है, तो 140 करोड़ क्या-क्या नहीं कर सकता ? इसलिए यदि आज अमेरिका टैरिफ लगाकर चीन और भारत को धमकाता है, तो उसकी अलग-अलग प्रतिक्रिया आनी (=नत मस्तक होना) स्वाभाविक है.

चीन का राष्ट्रपति तो अभी तक अपना मुहं भी नहीं खोला है. ट्रंप ने सबसे पहले शी जिन पिंग को ही अपने शपथ ग्रहण में आमंत्रित किया था. किंतु जो जाने के लिए तड़प रहे थे, उन्हें बुलाया तक नहीं !

अब जब ट्रंप ने अपने सबसे कड़े प्रतिद्वंद्वी सहित अपने मित्र देशों और इजराइल सहित भारत पर भी 17% और 26% टैरिफ ठोंक दिया है, तो हवा टाइट होने पर ‘अब्दुल’ पर खीझ उतारी जा रही. लेकिन टाइट तो सबसे ज्यादा गुजरात के हीरा कारोबारी और लाखों मजदूर हो रहे.

दवा कंपनियां जो परसों तक बल्ले-बल्ले हो रही थीं, उन्हें अगले राउंड में स्पेशल टैरिफ लगाएगा. आईटी कंपनियां नीम बेहोशी की हालत में हैं. जबकि चीन पहले ही अपना व्यापार अमेरिकी निर्भरता में कमी लाकर आसियान, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका से भरपाई कर चुका है. अमेरिका जिसकी-जिसकी ठुकाई कर रहा, उसे संभालने और आश्वस्त करने पर चीन ने पूरा फोकस बनाये रखा है.

जो चीन कर पा रहा है, वह भारत भी कर सकता था (आबादी का लाभ) अपने देश के युवाओं को शिक्षित और आवश्यक स्किल देकर. लेकिन हमें गौ रक्षा, मुस्लिम आर्थिक बहिष्कार और अब औरंगजेब की क्रूरता की याद दिलाकर विक्षिप्त बनाया जा रहा. रही-सही कसर विश्वविद्यालयों में आरएसएस सर्टिफिकेट प्राप्त प्रोफेसर और वाईस चांसलर पूरी कर रहे है !

तो आपको क्या लगता है कि पिछले डेढ़ महीने से भारत ने ट्रंप को पटाने के लिए हार्ले डेविडसन से लेकर गूगल टैक्स और एलन मस्क और उसके पूरे परिवार और नैनी तक को मस्का लगाया, उसके बाद भी ट्रंप ने ऊपर से 26% का तोहफा-ए-ट्रंप आखिर क्यों दिया होगा ?? ऐसी क्या भूल हुई, जिसकी सजा हमको मिली ??

  • गिलडियाल संजीव 

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