भारत और पाकिस्तान दोनों अब अपना-अपना पुराना चोला उतारने की कोशिश में लगा हुआ है. इस कोशिश ने पाकिस्तान के इमरान खान का तख्तापलट कर दिया गया तो वहीं भारत में नरेन्द्र मोदी की सत्ता को उसके ही दल के द्वारा चुनौती दी जा रही है. नरेन्द्र मोदी की सत्ता जायेगी या बचेगी यह इस पर तय होगा कि नरेन्द्र मोदी अपने संघी आका के द्वारा निर्धारित अमेरिकी साम्राज्यवादी गिरोह में शामिल होता है या नहीं ? वह रुस से दूरी बनाता है या नहीं ? नेहरू के द्वारा निर्धारित विदेश नीति से पलटता है या नहीं ?
जिस तरह भारत-पाकिस्तान की आजादी का देश के विभाजन से तो अभिन्न सम्बन्ध है, उसी प्रकार इस आजादी के बाद के दस्तूर का भी विश्व की अन्तराष्ट्रीय राजनीति से अटूट सम्बन्ध है क्योंकि भारत (पाकिस्तान) की आजादी का सम्बन्ध आन्तरिक से ज्यादा बाह्य कारण (अन्तराष्ट्रीय राजनीति) से हुआ है. चूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया की अन्तराष्ट्रीय राजनीति दो धुरी केन्द्र में बंट चुका था, जिसमें एक का अन्तराष्ट्रीय नेता संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के नेतृत्व में अन्तराष्ट्रीय साम्राज्यवाद था तो दूसरे हिस्से का नेता सोवियत संघ के नेतृत्व में अन्तराष्ट्रीय सर्वहारा था.
साम्राज्यवाद और सर्वहारा के बीच बंटी दुनिया में भारत का शासक वर्ग जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में खुद को गुट-निरपेक्ष रखते हुए सोवियत संघ के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया और भारत को सोवियत संघ के ही तर्ज पर विकसित करने का दीर्घकालीन योजना लिया. इसके पीछे जो सबसे मजबूत कारण था वह था भारत की जनता के बीच सोवियत संघ के विचारों का व्यापक प्रभाव होना. इसके उलट नवनिर्मित पाकिस्तान ने जिन्ना के नेतृत्व में खुद को गुटनिरपेक्ष रखने की जगह खुद को अमेरिकी साम्राज्यवादी गुट के ज्यादा करीब कर लिया, फलतः पाकिस्तानी आवाम के बीच भी अमेरिकी साम्राज्यवादी विचारों ने ज्यादा जगह बना लिया, खासकर पाकिस्तानी शासक वर्ग के बीच अमेरिकी साम्राज्यवादी ने अपनी मजबूत पैठ बना लिया.
1991 में सोवियत संघ के पतन के साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवाद ने दुनिया पर एकछत्र राज कायम कर लिया और दुनिया में अपने गुंडों नोटो को साथ लेकर अपना मनमानी करना आरम्भ कर दिया और दुनिया भर में अपनी दादागिरी करते हुए अपनी सेनाओं को युद्ध में झोंकने लगा. इसमें पाकिस्तान भी अमेरिकी साम्राज्यवाद का पुछल्ला बनकर उसके साथ घूमता रहा.
आजादी के बाद भारत में सोवियत समर्थक सत्ता में तो आ गये थे लेकिन अमेरिका समर्थक (आरएसएस और उसके गैंग) सत्ता से बाहर रहकर या साझीदार बनकर खुद को मजबूत करते रहे. इसी तरह पाकिस्तान में इसके उलट अमेरिका समर्थक सत्ता में तो आ गये लेकिन सोवियत समर्थक खेमा भी खुद को धीरे-धीरे मजबूत करता रहा. इन दोनों ताकतों में भारी उथल-पुथल के बाद भारत में 2014 ई. में अमेरिकी समर्थक खेमा आरएसएस के नेतृत्व में देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया तो वहीं पाकिस्तान में इमरान खान के नेतृत्व में 2018 ई. में यह ‘तख्तापलट’ हुआ और सोवियत समर्थक खेमा देश की सत्ता पर कब्जा जमा लिया. भारत की सत्ता पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थक नरेन्द्र मोदी तो वहीं पाकिस्तान मेें सोवियत (रूस) समर्थक खेमा इमरान खान के सत्ता पर काबिज होने के साथ ही दोनों देशों की आन्तरिक नीति के साथ-साथ विदेशनीति में भी भारी बदलाव आया.
यह दोनों ही चुनावी ‘तख्तापलट’ एक तरह से दोनों की देशों की जनता के बीच भारी उथल-पुथल पैदा कर दिया. चूंकि भारत की जनता के बीच सोवियत संघ (अब रूस) की लोकप्रियता ने गहरी पैठ बना ली थी और उसी तरह पाकिस्तान की जनता के बीच भी अमेरिकी साम्राज्यवाद की गहरी पैठ होने के कारण ही इस ‘चुनावी तख्तापलट’ के बावजूद दोनों ही देशों की जनता अपने-अपने शासक वर्ग के खिलाफ उठ खड़ी हुई. भारत में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ तो पाकिस्तान में इमरान खान के खिलाफ. लेकिन दोनों ही देशों की परस्पर विरोधी सत्ता कायम रही.
भारत में अमेरिकी पिट्ठू आरएसएस के एजेंट नरेन्द्र मोदी देश की आन्तरिक नीति में अमेरिकी नीतियों को लागू करना शुरू किया, जिससे देश पूरी तरह बदहाल होता चला गया. कोरोना के नाम पर चली साजिश ने देश के 80 करोड़ लागों को गरीबी रेखा से नीचे धकेल दिया तो वहीं सैकड़ों की तादाद में अरबपति औ़द्योगिक घरानों ने बैंकों से लाखों करोड़ रूपया घपला कर देश से भाग गया या यही मजे से रह रहा है. इसके उलट रूसियों के नजदीक जाते इमरान खान की सरकार ने देश में जनहितैषी नीतियों को लागू किया जिससे पाकिस्तान अपनी पिछली तमाम सरकारों की तुलना में आम लोगों के हित में बेहतरीन काम को अंजाम देता रहा, अमेरिकी दवाब के बावजूद.
भारत का अमेरिकी कुत्ता नरेन्द्र मोदी लगातार अमेरिकी साम्राज्यवाद की तरफ पूंछ हिलाता रहा अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हितों में देश को कंगाल और बदहाल करता रहा. चूंकि देश के अन्दर सोवियत संघ की असीम प्रतिष्ठा और एक बेहद ही मददगार दोस्त होने के कारण वह रूस से अपना रिश्ता एकाएक भंग नहीं कर सकता था, इसलिए उसने सोवियत संघ पर हमला करने के लिए जवाहरलाल नेहरू और उनके वंशजों को अपना निशाना बनाया और विदेश नीति में अपना रूख बदलना शुरू कर दिया लेकिन इसी बीच एक ऐसी घटना घट गई जिसने मोदी सरकार को नंगा खड़ा कर दिया. जिसके कारण वह अपनी कमजोर स्थिति के कारण न तो रूस के खिलाफ भौंक सकता था और न ही अमेरिका के तरफ पूंछ ही हिला सकता था. यह घटना थी-यूक्रेन के खिलाफ रूस की सैन्य कार्रवाई.
यूक्रेन पर रूस की इस सैन्य कार्रवाई की आशंका अमेरिका समेत किसी भी पश्चिमी मीडिया को नहीं था. लेकिन जब रूस ने इस सैन्य कार्रवाई को अंजाम दिया तब अमेरिका समेत सारी दुनिया हतप्रभ रह गई. गरजने वाला अमेरिका भी अपना पूंछ समेट लिया और रूस के खिलाफ किसी भी सैन्य अभियान से साफ इंकार कर दिया तो वहीं भारत के लिए भी यह तय करना बेहद मुश्किल हो गया कि वह किधर जायें ? रूस के खिलाफ जाने का सीधा मतलब था देश को सैन्य तौर पर बेहद कमजोर कर देना क्योंकि भारतीय सैन्य बल की पूरी सैन्य सप्लाई का 85 प्रतिशत सैन्य हथियार भारत को रूस ही मुहैय्या कराता है और रातोंरात पूरी सैन्य मशीनरी को बदलकर अमेरिकी सैन्य सप्लाई से भर देना केन्द्र की मोदी सरकार के औकात से बाहर की बात थी, ऐसे में यह अमेरिकी कुत्ता नरेन्द्र मोदी ने अपने प्राचीन दुश्मन जवाहरलाल नेहरू की ही गुटनिरपेक्ष नीति को अपनाया, लेकिन उसने रूस की निकटता को ठुकरा दिया वरना यूक्रेन में पढ़ने गये भारतीय छात्रों को रूस के माध्यम से आसानी से वही निकाल सकता था, जो नरेन्द्र मोदी ने बिल्कुल नहीं किया बल्कि उसने भारतीय छात्रों को रूसी सेना के सामने मानव ढाल की तरह प्रस्तुत कर दिया.
भारत का यह अमेरिकी कुत्ता लगातार रूस से दूर होता जा रहा है और अमेरिका के निकट आता जा रहा है. इसका प्रमाण है रूस के साथ रक्षा सौदों, पेट्रोलियम आयात और अन्य कारोबारों को लगातार कम करता जा रहा है (क्योंकि वह एकाएक बंद नहीं कर सकता), दूसरी ओर अमेरिकी मंहगे सौदों को लाने के लिए एक धीमा तरीका अपनाया है, मसलन, कभी फ्रांस तो कभी इजराइल से सैन्य व अन्य समानों का आयात कर रहा है. नरेन्द्र मोदी रूस के करीब न जा पाये इसके लिए अमेरिका भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लगातार धमकी भी दे रहा है तो वहीं सत्ता के बेदखल करने का एक छोटी सी अनुगुंज भी सामने आई थी. लेकिन भारत में सोवियत संघ (रूसी) समर्थकों की इतनी विशाल तादाद है कि उसके सामने अमेरिकी समर्थक टिक नहीं पाया और अमेरिकी कुत्ता नरेन्द्र मोदी की भी इतनी हिम्मत नहीं रह गई है कि वह रूस के खिलाफ जाकर अमेरिका के सामने पूंछ हिला पाये.
तात्पर्य यह कि भारतीयों के मनोविज्ञान को धीरे-धीरे बदलते हुए, भारत को धीरे-धीरे रूस के निर्भरता से दूर हटाते हुए अमेरिकी एजेंट नरेन्द्र मोदी देश को अमेरिकियों के चरणों में डाल रहा है, जिस दिन भारत रूसी साजो-सामान से मुक्त हो जायेगा, उसी दिन भारत अमेरिकियों के चरणों में जा गिरेगा.
इसी कड़ी में यूक्रेन के खिलाफ रूस की सैन्य कार्रवाई के दौरान पाकिस्तान के सर्वाधिक योग्य प्रधानमंत्री इमरान खान अमेरिकी साम्राज्यवादियों से सीधे दूर छिटककर रूस के निकट जा पहुंचे. यहां तक कि जिस दिन रूस ने यूक्रेन के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की शुरूआत किया था, इमरान खान उस वक्त रूस में ही थे. और उसी दिन यह भी साफ हो गया था कि इमरान खान की सत्ता पाकिस्तान में स्थिर नहीं रह सकती. आगे हुआ भी यही.
अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने आनन-फानन में इमरान खान की सत्ता को पलटने के लिए बकायदा एक अभियान चला दिया. पाकिस्तान में अमरीकी एजेंटों को साफ-साफ बतला दिया कि इमरान खान की सत्ता पलट होनी चाहिए, वरना वे अमेरिकी प्रकोप का शिकार बन जायेगा. इस बात की साफ जानकारी स्वयं इमरान खान ने अपनी पाकिस्तानी जनता के साथ-साथ दुनिया की जनता को भी बतलाया कि अमेरिकी साम्राज्यवाद किस तरह पाकिस्तान के अन्दरूनी राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है और जनता द्वारा चुनी गई सरकार को पलटकर नवाज शरीफ जैसे अमेरिकी एजेंट के भाई को सत्ता पर काबिज करा दिया है. ईमानदार इमरान ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के देेश के अन्दरूनी हस्तक्षेप को जिस साहस के साथ दुनिया के सामने रखा क्या भारत का बईमान कायर मोदी सरकार इतनी हिम्मत कभी जुटा सकता है ? कतई नहीं. एक अनपढ़ राजनीतिक गुंडा में इतनी साहस कभी नहीं हो सकता.
इमरान खान का वक्तव्य –
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