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स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ उनके जीवनकाल में क्यों प्रकाशित न हो सका ?

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स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा 'मेरा जीवन संघर्ष' उनके जीवनकाल में क्यों प्रकाशित न हो सका ?
स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ उनके जीवनकाल में क्यों प्रकाशित न हो सका ?
कैलाश चंद्र झा, न्यासी, श्री सीताराम आश्रम ट्रस्ट, बिहटा, पटना

मेरा जीवन संघर्ष
स्वामी सहजानंद सरस्वती
संपादक
अवधेश प्रधान
सेतु प्रकाशन (2024)

‘मेरा जीवन संघर्ष’ स्वामी सहजानंद सरस्वती की आत्मकथा (memory संस्मरण) की पुनरावृत्ति प्रो. अवधेश प्रधान के संपादन में ‘सेतु प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित, मुझे प्रेरित किया कि मैं ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के प्रकाशन के इतिहास को लिख डालूं. इसी इतिहास में पुस्तक के इस संस्करण की भी समीक्षा निहित है.

मैं और प्रो. वाल्टर हाउज़र ने ‘मेरा जीवन संघर्ष’ को संस्मरण (memory) माना है, न कि आत्मकथा. क्याेंकि सहजानंद ने हजारीबाग जेल में अपने स्मरण से इसे 1940 में लिखा और अवशिष्ट 1946 में. इसका प्रकाशन स्वामी जी के देहावसान, 1950 के बाद 1952 में श्री सीताराम आश्रम ट्रस्ट द्वारा हुआ. दो बातें हुई – एक यह कि स्वामी जी ने इसे स्मरण से लिखा, जिसके कारण कुछ त्रुटियां रही होंगी तारीख वगैरह की और साथ ही स्वामी जी ने इसकी प्रूफ रीडिंग भी नहीं की, जिस कारण वो त्रुटियां रह गईं.

इसकी पुनरावृत्ति 1985 में तैंतीस वर्ष बाद पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा हुई. फिर 2000 में ग्रंथ शिल्पी द्वारा अवधेश प्रधान के संपादन में ही प्रकाशित हुई और प्रशंसनीय प्रकाशन रही. फिर श्री सीताराम आश्रम ने भी इसका प्रकाशन किया. पुनः यह हिस्सा बना ‘स्वामी सहजानंद सरस्वती रचनावली’ का, राघव शरण शर्मा संपादित प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली द्वारा 2003 में. इसके बाद और भी पुनरावृत्ति हुई दूसरी जगहों से. इन सारे पुनरावृत्तियों में यह प्रयास कहीं नहीं दिखा, उन त्रुटियों को सुधारने का और ये होती गई.

इन त्रुटियों को पहली बार (CULTURE, VERNACULAR POLITICS, AND THE PEASANTS: INDIA, 1889-1950, An edited translation of SWAMI SAHAJANAND SARASWATI’S MERA JIVAN SANGHARSH (My Life Struggle), Translated and edited by WALTER HAUSER with KAILASH CHANDRA JHA , Manohar, 2015) में दूर करने का प्रयास किया गया.

श्री अवधेश प्रधान जी ने जब ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के इस संस्करण की बात मुझसे की तो मैंने उन्हें यह कमी बताई कि सारी पुनरावृत्तियां बिना उन त्रुटियों की तरफ ध्यान देते हुए होते जा रही हैं. दृष्टांत के तौर पर मैंने ‘अनिल मित्र’ न कि ‘अनिल मिश्र’ और तिलक का देहांत 01 अगस्त 1920, न कि 01 अगस्त 1919 की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया. मुझे हर्ष हो रहा है कि उन्होंने इस संस्करण में एक त्रुटि को दूर किया है (अनिल मिश्र की जगह अनिल मित्र, पृष्ठ 377 व 402 देखें). पता नहीं क्यों तिलक का देहांत तिथि ठीक नहीं कर पाये (पृष्ठ 142- उनकी मौत तो 1919 में 31 जुलाई की आधी रात के बाद हुई. सही तिथि है 1920 में 31 जुलाई की आधी रात के बाद. (Culture…… page 191, Endnote 31.)

‘मेरा जीवन संघर्ष’ के ऊपर वाल्टर हाउज़र व कैलाश चंद्र झा द्वारा बहुत ही विस्तारपूर्वक टिप्पणी उपरोक्त पुस्तक (Culture…) में किया जा चुका है. और साथ ही श्री अवधेश प्रधान ने दोनों प्रकाशन में भी संपादकीय में किया है, ग्रंथ शिल्पी और सेतु प्रकाशन संस्करण में. श्री कुबेर नाथ राय द्वारा भी संपादकीय (महाजागरण का शलाका पुरूष, स्वामी सहजानंद सरस्वती, कुबेर नाथ राय, संपादक, मनोज राय, सेतु प्रकाशन, 2022) में विश्लेषण विस्तार पूर्वक हो चुका है. इन्हीं कारणों से मैंने पुस्तक प्रकाशन का इतिहास लिखने का प्रयास किया है. पुनरावृत्तियों की मेरी समझ से समीक्षा अपेक्षित नहीं होती.

मुझे हमेशा कौतूहल रहा कि ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का प्रकाशन स्वामी जी के जीवन काल में क्यों नहीं हो सका ? और साथ ही ‘खेत मजदूर’ और ‘झारखंड के किसान’ का भी ? बाकी सारी हजारीबाग जेल में लिखी कृतियां उनके रहते हुए प्रकाशित हुई. और ये क्यों नहीं ? इस वर्ष सामग्रियों से गुजरते हुए मुझे एक पत्र मिला जो ‘किताब महल’ इलाहाबाद ने स्वामी जी को 29 जून, 1946 को लिखा था. मैं उस पत्र को यहां उद्धृत कर रहा हूं. इस पत्र पर बायीं तरफ स्वामी जी का नोट है – ‘Please return the original

यह पत्र स्पष्ट करता है कि क्यों ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का प्रकाशन अटक गया. मैं अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. साथ ही यह मेरा अनुमान है कि जब ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का प्रकाशन अटका तो इसका प्रभाव ‘खेत मजदूर’ व ‘झारखंड के किसान’ के प्रकाशन पर भी पड़ा.

KITAB MAHAL

PUBLISHERS OF HIGH CLASS & TOPICAL LITERATURE IN ENGLISH AND VARIOUS INDIAN LANGUAGES AND STANDARD EDUCATIONAL BOOKS

Dated 29th June, 1946

56-A ZERO ROAD
ALLAHABAD

Dear Swamiji

Enclosed is the letter of the Alld. Law Journal Press which requires no explanation. If they do not carry out their promise, I hope you will not accuse me. Your remark about publishers in your letter from the Leader press really pained me. You cannot keep all publishers into the category of other publishers.

Since I feel your auto-biography should capture the best market, I wish to suggest one thing in the hope that you would not mind it.

I went through it. I found that you have filled it date wise like a descriptive diary. There is no philosophy, humor or any such interesting descriptions which would keep the attention of the reader. I therefore suggest most confidentially that you give the MSS. to a novelist, to cut, add, change here and there and make it very interesting than mere description. Yours is a very adventurous career and the book if made interesting is bound to sell in lacs. From my experience, I feel that if it is published as it is, it will not cater the same market which your personality deserves. And I can make a friend of mine to do this work after you approve a few specimen pages.

Also, please send me the description of the picture which you want me to give in Gita Hiridaya. I shall also try some artist. Do you know the address of Kanu?

With kind regards.

Yours
Sincerely,

 

Enclo: A.L.J. Press letter.

(हिंदी अनुवाद : किताब महल, अंग्रेजी और विभिन्न भारतीय भाषाओं में उच्च श्रेणी और सामयिक साहित्य और मानक शैक्षिक पुस्तकों के प्रकाशक तारीख़ 29 जून, 1946 56-ए जीरो रोड इलाहाबाद प्रिय स्वामीजी एल्ल्ड का पत्र संलग्न है. लॉ जर्नल प्रेस जिसे किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है. यदि वे अपना वादा पूरा नहीं करते हैं, तो मुझे आशा है कि आप मुझ पर आरोप नहीं लगाएंगे. लीडर प्रेस से आपके पत्र में प्रकाशकों के बारे में आपकी टिप्पणी से मुझे सचमुच दुख हुआ. आप सभी प्रकाशकों को अन्य प्रकाशकों की श्रेणी में नहीं रख सकते. चूंकि मुझे लगता है कि आपकी आत्मकथा को सर्वश्रेष्ठ बाज़ार पर कब्ज़ा करना चाहिए, मैं इस उम्मीद में एक बात सुझाना चाहता हूं कि आप बुरा नहीं मानेंगे. मैं इससे गुजरा. मैंने पाया कि आपने इसे वर्णनात्मक डायरी की तरह तिथिवार भर दिया है. इसमें कोई दर्शन, हास्य या ऐसा कोई रोचक वर्णन नहीं है जो पाठक का ध्यान खींच सके. इसलिए मैं बेहद गोपनीय तरीके से सुझाव देता हूं कि आप एमएसएस दें. एक उपन्यासकार के लिए, यहां-वहां काटना, जोड़ना, बदलना और इसे मात्र वर्णन से अधिक रोचक बनाना. आपका करियर बहुत ही साहसिक है और अगर किताब को दिलचस्प बनाया जाए तो यह निश्चित तौर पर लाखों में बिकेगी. अपने अनुभव से, मुझे लगता है कि अगर इसे वैसे ही प्रकाशित किया जाता है, तो यह उस बाजार को पूरा नहीं करेगा जिसके लिए आपका व्यक्तित्व हकदार है. और आपके द्वारा कुछ नमूना पृष्ठों को स्वीकृत करने के बाद मैं अपने किसी मित्र को यह कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकता हूं. कृपया मुझे उस चित्र का विवरण भी भेजें जो आप चाहते हैं कि मैं गीता हृदय में दूं. मैं भी किसी कलाकार को आज़माऊंगा. क्या आप कनु का पता जानते हैं ? आदर के साथ. आपका अपना ईमानदारी से,)

स्वामी जी ने हजारीबाग जेल में जितनी भी कृतियां लिखीं उन्हें वह तारीख के अनुसार लिखते थे. प्रतिदिन की शुरूआत नये तारीख से करते थे. इससे उनकी पांडुलिपियां डायरी का बोध देती थीं.

एक कहावत है, ‘…आप कितना भी प्रूफ रिडिंग कर लें, पुस्तक पलटिये और प्रथम पृष्ठ पर हीं अशुद्धता दिखेगी…’ चरितार्थ होता है पृष्ठ Xiii पर ‘भोगेन्द्र झा, न कि योगेन्द्र झा.’

पृष्ठ 512-513 ‘…एक संन्यासी जिसे महातांडव का इंतजार था…’ लेख में अरविंद नारायण दास ने ‘…1938 में पटना जिला किसान सभा की स्थापना की. …और क्रमशः बिहार प्रांतीय किसान सभा तैयार हो गई…’ का उल्लेख किया है. 1927 में पश्चिम पटना किसान सभा की स्थापना हुई, (Culture .. page 340) और 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा (Culture .. page 355) और क्रमशः पश्चिम पटना किसान सभा, पटना जिला किसान सभा में परिवर्तित हो गई (Culture .. page 362).

श्री अवधेश प्रधान व सेतु प्रकाशन बधाई के पात्र हैं. मेरे अनुसार, ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का यह संस्करण अभी तक का सर्वोत्कृष्ट संस्करण है.

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