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नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाई क्यों नहीं हो रही है ?

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नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाई होनी चाहिए, बिलकुल होनी चाहिए. सवाल है कि क्यों नहीं हो रही है ? ऐसा तो नहीं कि नफरत फैलाने वालों के रोज़ देखे जाने वाले दंगल से आर्थिक लाभ सरकार के पक्षधर मीडिया का हो रहा है और राजनैतिक लाभ सरकार चलाने वालों का ?

सुभाषिनी अली, कानपुर की पूर्व सांसद रही हैं. वो नेशनल कमिशन फॉर वुमेन की सदस्य भी रह चुकी हैं. इन दिनों वो ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमन्स एसोसिएशन की वाइस प्रेसिडेंट भी हैं.

कभी-कभी बड़े शहरों की घटनाओं के विवरण के पीछे, छोटे शहरों और कस्बों की दर्दनाक कहानियां छिप जाती हैं; कभी-कभी चीखती हुई सुर्खियों और चैनलों की मुनादियों के शोर मे बड़े अन्याय के खिलाफ दबी आवाज़ें सुनाई नहीं पड़ती हैं; कभी-कभी बड़े ही तार्किक तरीके से पेश किए जाने वाली सच्चाई के पीछे असली तथ्य गुम हो जाते हैं. प्रयागराज में 10 जून को जुमे की नमाज़ के बाद, शहर के एक मोहल्ले मे नारे बाज़ी और टकराव की घटना घटी. मामला जल्द नियंत्रण में लाया गया.

कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ लेकिन, रात को ही, दंगा भड़काने के आरोप मे मोहम्म्द जावेद नाम के नागरिक को हिरासत में ले लिया गया. यही नहीं, उस रात को उनकी मां, पत्नी और बेटी को बिलकुल ही गैर-कानूनी और अनुचित तरीके से घर से पुलिस ने हटा दिया. बाद में, उन्हें छोड़ दिया गया लेकिन जावेद को जेल भेज दिया गया. दो दिन बाद, रविवार की सुबह तड़के, उनके घर पर प्रयागराज विकास प्राधिकरण का नोटिस चस्पा किया गया कि घर के निर्माण में कई अनियमिताएं हैं और कुछ घंटों के बाद, बुलडोजर ने उसे तोड़ दिया. कारण अनियमिताओं के साथ मोहम्मद जावेद का दंगा भड़काने में हाथ, दोनों बताए गए.

इस कार्यवाही की तीव्र निंदा प्रयागराज उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने की और इस मामले की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के सामने हुई. सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को निर्देशित किया कि वह 3 दिन मे जवाब दे कि उसने यह कार्यवाही क्यों और कैसे की. ऐसा लगा कि देश की न्याय प्रक्रिया अभी बची हुई है. लोगों के घर बच जाएंगे. खरगौन की उस टूटी-फूटी मस्जिद, जिसमें गाय बांधी जाने लगी थी और जिसमें अब चार परिवार जिनके घर बुलडोजर द्वारा ध्वंस्त कर दिए गए हैं, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से बेखबर रही.

11 अप्रैल को, खरगौन में हमेशा की तरह रामनवमी का जुलूस निकला और तालाब चौक पर समाप्त हुआ. हमेशा की तरह वहां के मुसलमानों ने उसका स्वागत किया. लेकिन फिर जो हुआ वह कभी नहीं हुआ था. जुलूस वहीं रुका रहा. उसका नेतृत्व करने वालों ने वहां भारी भीड़ जुटाई और पुलिस के विरोध के बावजूद, मुसलमानों की बस्ती में तब प्रवेश किया जब नमाज़ पढ़कर लोग मस्जिद से निकल रहे थे. इधर से नारे बाज़ी हुई, उधर से आपत्ति और फिर बवाल हो गया. 11 को ही इद्रीस मार दिया गया लेकिन उसकी मौत की खबर पुलिस ने कई दिन तक गुप्त रखी और अपनी एकतरफा कार्यवाई शुरू कर दी.

कई मुसलमानो को जेल भेजा और उनके 16 घर और 29 दुकानों को रौंद दिया. एक पर पत्थर चलाने का आरोप लगाकर उसकी गुमटी तोड़ दी जबकि उसके दोनों हाथ कटे थे. एक शहर के बाहर था लेकिन उसका भी घर तोड़ दिया क्योंकि वह भी पत्थर चला रहा था; अमजद खान का घर प्रधानमंत्री आवास योजना के तहद बना था लेकिन वह भी नहीं बचा. लोगों ने तमाम दरवाजे खटखटाए, न्यायालय के दर पर भी गए, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई. 2023 में विधान सभा का चुनाव है. 2018 के चुनाव मे भाजपा खर्गौन और आस-पास के इलाके के 10 मे से 9 सीटे हार गई थी. ध्रुवीकरण के सहारे जीतने की उम्मीद है.

कानपुर में एक बिल्डिंग पर प्रशासन ने बुलडोजर यह कहकर चला दिया कि उसका मालिक इश्तियाक है (जो लगातार 2017 के बाद से राष्ट्रीय चैनलों पर देखे जा रहे हैं). और वह 3 जून को हुई गड़बड़ी के ‘मास्टरमाइंड’ हयात जफर हाशमी का रिश्तेदार है. बिल्डिंग गैरकानूनी भी है लेकिन इश्तियाक तो मर चुके हैं. बिल्डिंग उनका लड़का इफ़्तेखार बना रहा है और हाशमी उनका रिश्तेदार भी नहीं है. हाशमी ने 3 जून को दुकानें बंद रखने का आवाहन किया था और उसे जेल भेज दिया गया है. इश्तियाक पर कोई मुक़द्दमा नहीं है लेकिन उसकी बिल्डिंग तोड़ दी गई है. पता नहीं सर्वोच्च न्यायालय कि नज़र उस पर पड़ेगी कि नहीं ?

सहारनपुर (यहां थाने में मुस्लिम युवाओं को बड़ी बर्बरता के साथ पुलिसवालों ने लाठियों से पीटा था) में भी बुलडोजर 11 जून को चला और मुजम्मिल और अब्दुल वाकिर, जो बहुत ही गरीब हैं, उनके घर तोड़ दिए गए. दोनों जेल मे हैं लेकिन बिना मुक़द्दमे की सुनवाई के उनको सज़ा दे दी गई है. 3 और 10 जून की घटनाओं के बाद, नफरत फैलाने वाली बयानबाज़ी चर्चा का बड़ा विषय बन गया है. यह चर्चा अक्सर इस बिन्दु पर समाप्त हो जाती है कि कार्यवाई तो दोनों तरफ के खिलाफ होनी चाहिए. सवाल यह है कि कार्यवाई किसको करनी है ? निश्चित तौर पर, सरकार को.

पिछले 4-5 सालों से नफरती बयानबाजी की बाढ़ आई हुई है. पीले कपड़े पहने, हाथ में तलवार और त्रिशूल लिए लोग टीवी के स्क्रीन पर और सार्वजनिक स्थानों में, अल्पसंख्यकों के कत्लेआम और अल्पसंख्यक औरतों के साथ बलात्कार की बातें बड़े सहज रूप से कर रहे हैं. सरकार उनकी बातों को अनसुनी कर रही है. सरकार के एक मंत्री पर 2 साल से नफरत भरे नारे लगाने के जुर्म में मुक़द्दमा दर्ज करने की कोशिश की जा रही है लेकिन नीचे से लेकर उच्च न्यायालय तक इसकी मंजूरी नहीं दे रहे हैं क्योंकि इसकी अनुमति सरकार ने नहीं दी है.

पिछले माह, भाजपा की अधिकृत प्रवक्ता, नूपुर शर्मा, ने एक राष्ट्रीय टीवी चैनल पर मोहम्मद साहब पर आपत्तिजनक टिप्पणी की और भाजपा और उनकी सरकार दोनों खामोश रहे. इसी टिप्पणी के खिलाफ इस्लामी मुल्कों की सरकारों ने घोर आपत्ति जताई और सरकार को माफी मांगने और प्रवक्ता को दल से निलंबित करने पर मजबूर किया. लेकिन उनकी नीयत का पता इस बात से चलता है कि उन्हें दंडित नहीं किया गया है.

नूपुर शर्मा का पक्ष लेने वाले अब कह रहे हैं कि उस पर तो कार्यवाई हुई है लेकिन हिन्दूओं की भावनाओं को आहत करने वालों के खिलाफ कार्यवाई क्यों नहीं हो रही है ? सरकार को इसका जवाब देना चाहिए. टीवी पर आपत्तिजनक बातें करने वाले एक इलियास शरफुद्दीन हैं, जिन्हें खोज खोजकर चैनल वाले डिबेट के लिए बुलाते हैं. अपनी तरफ से सरकार ने इनके खिलाफ कुछ भी नहीं किया है. अब एक मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्त्ता, नुरुद्दीन लतीफ़ नायक, ने उनके खिलाफ शिकायत की है और उनकी गिरफ्तारी की मांग की लेकिन सरकार अब भी हरकत में नहीं आई है !

नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाई होनी चाहिए, बिलकुल होनी चाहिए. सवाल है कि क्यों नहीं हो रही है ? ऐसा तो नहीं कि नफरत फैलाने वालों के रोज़ देखे जाने वाले दंगल से आर्थिक लाभ सरकार के पक्षधर मीडिया का हो रहा है और राजनैतिक लाभ सरकार चलाने वालों का ? अनसुनी आवाज़ों को सुनना होगा, बड़ी घटनाओं के पीछे छिपे अनदेखे अन्याय को खोजना होगा और बार-बार दोहराई जाने वाली सच्चाई के पीछे असली तथ्य खोजने होंगे.

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