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मोदी सरकार विज्ञान कांग्रेस और संविधान का विरोध क्यों करती है ?

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मोदी सरकार विज्ञान कांग्रेस और संविधान का विरोध क्यों करती है ?
मोदी सरकार विज्ञान कांग्रेस और संविधान का विरोध क्यों करती है ?

संविधान के अनुच्छेद 51(क) में स्पष्ट उल्लेख है कि यह सभी नागरिकों की बुनियादी जिम्मेदारी है कि ‘वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करे.‘ लेकिन भारत की मौजूदा सरकार ठीक इसके उलट कार्य कर रही है. वह लोगों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के बजाय अवरोध पैदा कर रही है. विज्ञान के खिलाफ अपने भगवा एजेंडा को लागू कर रही है. यही कारण है कि देश में  दशकों से चले आ रहे ‘भारतीय विज्ञान कांग्रेस’ को बंद करने का प्रयास किया जा रहा है.

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार और कवि चन्द्र भूषण जिनका जनांदोलनों से लंबा जुड़ाव रहा है, उन्होंने इस वर्ष 2024 में होने वाली भारतीय विज्ञान कांग्रेस को मौजूदा सरकार द्वारा रद्द करने के सवाल पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि हाल में कोरोना के दो साल छोड़कर 1914 से अब तक हर साल आयोजित होती आई इंडियन साइंस कांग्रेस इस साल न केवल निलंबित कर दी गई है, बल्कि आशंका इस बात की है कि यह सिलसिला अब बंद ही हो जाएगा. ध्यान रहे, भारत ही नहीं, पूरे एशिया का यह सबसे पुराना और निरंतर जारी वैज्ञानिक जमावड़ा है.

इसकी जो गत इस साल बनी है, उससे देश की छवि को धक्का लगेगा. इस आयोजन की धुरी इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन (आईसीएसए) रही है, जो भारत में वैज्ञानिकों–तकनीकविदों का एकमात्र राष्ट्रीय संगठन है और जिसके 40 हजार से ज्यादा सदस्य हैं. लेकिन साइंस कांग्रेस का मुख्य प्रायोजक भारत सरकार का साइंस–टेक्नॉलजी विभाग ही रहा है.

विभाग की ओर से इधर काफी समय से हर साल पांच करोड़ रुपये का बजट विज्ञान कांग्रेस के लिए जारी होता आया है, जो सीधे आयोजन स्थल बने विश्वविद्यालय को सौंप दिया जाता है. आयोजन की तिथि स्थायी रूप से 3 जनवरी चली आ रही है. इस साल विज्ञान मंत्रालय लखनऊ विश्वविद्यालय में विज्ञान कांग्रेस कराना चाहता था, जिसके लिए पता नहीं क्यों आईसीएसए राजी नहीं हुआ. कुछ दिन यह झगड़ा दबा रहा,

फिर सितंबर 2023 में आईसीएसए ने इसे जालंधर की लवली पब्लिक यूनिवर्सिटी में कराने की घोषणा की, जहां इससे पहले 2019 में यह आयोजन हो चुका है. उसी समय विज्ञान मंत्रालय ने इसमें अपना योगदान करने से मना कर दिया, साथ ही यह घोषणा भी की कि आईसीएसए अगर अपना रवैया नहीं सुधारता तो वह आगे भी इस मद में कोई पैसा नहीं देगा.

लवली पब्लिक यूनिवर्सिटी को जैसे ही जानकारी मिली कि इस बार सरकार की ओर से पैसे नहीं आने वाले, उसने कुछ अपरिहार्य कारणों का हवाला देते हुए आयोजन से अपने हाथ खींच लिए. इधर कुछ वर्षों से इंडियन साइंस कांग्रेस की साख कुछ अच्छी नहीं जा रही है. वैज्ञानिक शोध रिपोर्टों के बजाय हर साल इसकी चर्चा कभी भारत के प्राचीन विमान शास्त्र तो कभी गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी के लिए ही हो रही है.

और तो और, पांचेक साल पहले एक केंद्रीय मंत्री ने साइंस कांग्रेस के मौके पर ही डार्विनियन थिअरी और इवॉल्यूशन को नकारते हुए भारतीयों को किसी बंदर या चिंपांजी के बजाय ‘ऋषि–मुनियों की संतान’ बताया था तो पूरी दुनिया के वैज्ञानिक हलकों में चर्चा शुरू हो गई थी कि पश्चिम के पोंगापंथी पादरियों में व्याप्त यह बीमारी आखिर भारत में कैसे और कब पहुंच गई !

बहरहाल, इन सारी समस्याओं के बावजूद कुछ नोबेल पुरस्कार विजेता और अन्य ख्यातिलब्ध विदेशी वैज्ञानिक भारतीय वैज्ञानिकों के आग्रहपूर्ण बुलावे पर इस आयोजन में शामिल हो ही जाते हैं. ऐन मौके पर इंडियन साइंस कांग्रेस के रद्द हो जाने से उन्हें अपने व्यस्त कार्यक्रम में हेरफेर करना पड़ा होगा, जो साइंस–टेक्नॉलोजी में भारत की साख के लिए और भी ज्यादा नुकसानदेह है.

घोषित रूप से भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्देश्य देश में वैज्ञानिक संस्कृति के विकास और साइंस–टेक्नॉलजी में आम दिलचस्पी बढ़ाने के अलावा भारत में हो रहे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शोधों को दुनिया की नजर में लाना है. इसके लिए विभिन्न शोध पत्र–पत्रिकाओं के प्रकाशन का जिम्मा भी आईएससीए को सौंपा गया है. हालांकि व्यवहारतः इसकी दशा देश के बाकी सरकारी संगठनों जैसी ही है.

बताया जा रहा है कि इंडियन साइंस कांग्रेस का स्वरूप बदलने की तमाम कोशिशों के बावजूद इसके प्रति मौजूदा भारत सरकार की अरुचि का मूल कारण यह है कि वह इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल (आईआईएसएफ) को बढ़ावा देना चाहती है, जिसमें केंद्रीय भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े ‘विज्ञान भारती’ नाम के संगठन की है. ऐसे धूम–धड़ाके भारतीय मतदाताओं को यह बताने का अच्छा मंच हो सकते हैं कि दुनिया की सारी खोजें और वैज्ञानिक दृष्टि प्राचीन हिंदू शास्त्रों से ही चुराई हुई है और अभी की सरकार उन्हें खोज–खोजकर वापस ला रही है.

सरकार अगर चाहे तो अपने इस आयोजन को भारतीय विज्ञान कांग्रेस के साथ–साथ और उसके समानांतर भी चला सकती है. इस तरह के मद में हर साल पांच करोड़ के बजाय दस करोड़ खर्च में कुछ खास समस्या उसे नहीं होने वाली. लेकिन शायद एक आयोजन को बंद करके दूसरा शुरू करने के जरिये वह कोई संदेश भी देना चाहती है.

संदेश यह कि वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता का यह द्वैत अब भारत से विदा होना चाहिए. प्रधानमंत्री स्वयं ‘विकास और विरासत एक साथ’ का नारा दे रहे हैं. यानी चढ़ता शेयर बाजार और अयोध्या में बन रहा भव्य राम मंदिर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, फिर इससे अलग किसी और वैचारिक अग्रगति के बारे में सोचने की जरूरत क्या है.

भारतीय संविधान में सरकारों के लिए तय नीति निर्धारक तत्वों में एक ‘वैज्ञानिक चेतना का विकास’ भी है. इसका अर्थ है– लोगों में तार्किक समझ विकसित करना, सवालों के इहलौकिक जवाब खोजना और इंसानों को जाति–धर्म के खांचों में बांटकर न देखना. लेकिन देश अभी मंदिर ‘वहीं’ बनाने के दौर से गुजर रहा है.

टीवी पर तो क्या, संसद में भी धर्म के नाम पर गालियां दी जाती हैं. अखबारों में अपराधियों का नाम तक इस समझदारी के साथ छपता है कि किस श्रेणी में कौन सा नाम बहुसंख्यक पाठकों को कैसा लगेगा. ऐसे में 110 साल जी चुकी इंडियन साइंस कांग्रेस का टेंटुआ टीपकर ‘इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल’ का संस्कारी गदर शुरू कर देने में हर्ज क्या है ?

विज्ञान पर हमला कर सरकार क्या संदेश दे रही है ?

कवि, भौतिक विज्ञानी और विज्ञान कार्यकर्ता ‘गौहर रजा’ इसे ‘आज़ाद भारत और वैज्ञानिक सोच पर हमला’ मानते हैं. वे इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि विज्ञान और आध्यात्म सवालों के ज़रिए यथार्थ को समझने के दो अलग अलग तरीक़े हैं. दोनों में जानने की प्रक्रिया की शुरुआत सवालों से होती है लेकिन इन दोनों के सवालों की प्रकृति में फ़र्क़ होता है. आध्यात्म के सवाल ‘क्यों‘ से शुरू होते हैं, और विज्ञान के सवाल ‘कैसे’ से शुरू होते हैं. उदाहरण के तौर पर आध्यात्म में सवाल पूछा जाएगा कि ‘पृथ्वी क्यों घूमती है ?’ लेकिन विज्ञान सवाल उठाएगा कि ‘पृथ्वी कैसे घूमती है?’

यानी आध्यात्म के ज़रिए हम अपने ज्ञान की सीमा तक पहुंचते ही पृथ्वी के घूमने को भगवान की मर्ज़ी मान लेंगे लेकिन विज्ञान में ‘कैसे‘ का सवाल लगातार चलता रहेगा. जैसे बिग बैंग कैसे हुआ यह आज के वैज्ञानिकों को नहीं मालूम, लेकिन इसका जवाब ‘भगवान की मर्ज़ी’ नहीं हो सकता, हां हम ये कह सकते हैं वैज्ञानिकों को इसके बारे में आज नहीं मालूम, लेकिन शोध जारी है, तो शायद कल मालूम हो जाए. और ये सही जवाब होगा, विज्ञान में ‘मुझे नहीं मालूम’ भी सही जवाब है.

इन सवालों के बीच फ़र्क़ है, और उसी की वजह से अन्य फ़र्क़ भी पैदा होते हैं. जैसे विज्ञान का सच चिरस्थायी सच नहीं हो सकता. कई महान वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने विज्ञान की पारभाषित करने की कोशिश की है. कार्ल पॉपर का कहना है कि कोई दावा एक वैज्ञानिक दावा तभी तक हो सकता है, जब तक उसको झूठा/ग़लत साबित करने की संभावना है.

यानी विज्ञान के मौजूदा सच को चुनौती दी जा सकती है. अगर चुनौती नहीं दी जा सकती तो वो दावा वैज्ञानिक दावा है ही नहीं. थॉमस कुहन ने आगे चल कर कहा कि विज्ञान निरंतर प्रगति करता रहता है और फिर कोई वैज्ञानिक अपने वक्त तक उपलब्ध सारी संभावनाओं के संयोग से विज्ञान में एक बड़ा बदलाव ले आता है, जिससे विज्ञान के लिए बिलकुल नयी राहें खुल जाती हैं और पुरानी चीज़ें ग़लत साबित हो जाती हैं.

उदाहरण के लिए, न्यूटन ने कहा कि सारा ब्राह्मण गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर व्यवस्थित है, और फिर इतने बड़े वैज्ञानिक के दावे को आइंस्टाइन ने चुनौती दी, गुरुत्वाकर्षण बल है ही नहीं. आइंस्टाइन के रिलेटिविटी के सिद्धांतों ने विज्ञान में इंकलाब पैदा कर दिया, शोध की नई राहें खोल दीं. एक आम उदाहरण लें तो कल तक वैज्ञानिक कह रहे थे कि DDT रसायन इंसानियत की सारी परेशानियों का हल है, और फिर कहने लगे कि DDT से कैंसर होता है और अब DDT को दुनियाभर में प्रतिबंधित किया जा चुका है. लेकिन ये सभी बातें विज्ञान से ही पता चलीं.

यही सुंदरता है विज्ञान की, कि आप बड़े से बड़े वैज्ञानिक सिद्धांत को चुनौती दे सकते हैं. वहीं दूसरी तरफ़, आप किसी धार्मिक ग्रंथ में लिखी हुई किसी बात को ग़लत नहीं कह सकते, या उसके ग़लत होने का दावा नहीं कर सकते. आध्यात्म और धर्म में ऐसा मुमकिन नहीं है. मतलब बहुत सरल है. जब कोई विज्ञान में अपने किसी पूर्वज को चुनौती देता है, तो उन्हें बहिष्कृत नहीं किया जाता. उनके घर नहीं जलाए जाते, उनके ख़िलाफ़ फ़तवे नहीं सुनाए जाते, बल्कि हम जश्न मनाते हैं.

हिन्दोस्तान एक ऐसा समाज है जहां इंसान ऐतिहासिक रूप से जाति और लिंग के पदानुक्रमों में बंटे रहे हैं. महिलाओं को ‘ताड़न की अधिकारी’ बताया गया है लेकिन इस समाज में इंसानी बराबरी की बुनियाद पर रचा गया संविधान पारित हो जाता है. ऐसा नहीं है कि संविधान पर दस्तख़त करने वाले संविधान सभा के सभी सदस्य इंसानी बराबारी के सिद्धांत में यक़ीन रखते थे. ये उस वक्त के राजनीतिक नेतृत्व के प्रयासों की वजह से मुमकिन हो पाया था.

इसकी एक वजह हमें स्पष्ट होनी चाहिए. यह कि उस वक्त के नेतृत्व के चारों तरफ सिर्फ़ हिन्दोस्तान ही नहीं, अपितु पुरी दुनिया की सबसे बेहतरीन काबिलियतों वाले शख़्स मौजूद थे (आज भी हैं). ये शख़्सियतें सिर्फ विज्ञान में ही नहीं, बल्कि साहित्य, संगीत, लेखन, दर्शन, और इतिहास इतिहास जैसी विधाओं में भी पारंगत थी. अद्भुत बात ये है कि इस तरह के लोगों के बीच में गांधी और नेहरू जैसे लोगों के व्यक्तित्व का विकास हो रहा था.

इन शख़्सियतों के राजनीतिक लीडरशिप से सीधे संबंध थे इसीलिए नेहरू अपने कारावास (1942-45) के दौरान ‘भारत की खोज’ जैसी किताब लिख पाते हैं. यह कमोबेश इतिहास की एक किताब है, लेकिन इसमें कोई दस पन्नों में नेहरू ने एक सदी की वैज्ञानिक बहस का संक्षिप्त वर्णन कर वैज्ञानिक सोच के बारे लिखा है. बावजूद इसके कि नेहरू राजनीतिज्ञ थे, वैज्ञानिक नहीं. ये दस पन्ने आज़ाद हिन्दोस्तान के संदर्भ में बहुत अहम हो जाते हैं.

आज़ादी के बाद हमारा मुल्क दुनिया का पहला ऐसा मुल्क बनता है जिसकी संसद 1958 में वैज्ञानिक नीति प्रस्ताव (SPR) पेश करती है. प्रधानमंत्री नेहरू पार्लिमेंट में उठ कर खड़े होते हैं, और कहते हैं कि इस प्रस्ताव का हर एक शब्द हमारे मुल्क के भविष्य के लिए जरूरी है, और इसलिए मैं यह पूरा प्रस्ताव पढ़ूंगा. और वो पूरा प्रस्ताव पढ़ते हैं. जबकि परम्परागत रूप से जब कोई प्रस्ताव पेश किया जाता है तो उसे टेबल कर दिया जाता है और उस पर बहस होती है, कोई उसे पढ़ कर नहीं सुनता.

बहस में आम तौर पर विरोधी पक्ष खड़ा होकर किसी शब्द, या अनुच्छेद पर आपत्ति जताता है और उसे हटाने अथवा संशोधित करने की मांग करता है लेकिन SPR एक अकेला ऐसा प्रस्ताव है, जिसपर विरोधी पक्ष ने ये कहा कि आप इस प्रस्ताव को पहले क्यों नहीं लेकर आए. उस वक्त के नेतृत्व के बीच एक आम सहमति थी कि प्रगति करने के लिए वैज्ञानिक नीति और वैज्ञानिक चेतना जरूरी है.

जब देश का प्रधानमंत्री खड़ा होकर कहता है कि वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक नीति इस मुल्क के लिए, और इसके भविष्य के लिए जरूरी है तो नीचे तक एक कारगर संदेश पहुंचता है. इसके परिणामस्वरूप पूरे तंत्र और वैज्ञानिक समुदाय में ऊर्जा का नवसंचार होता है. हम CSIR, IIT, ISRO, DRDO आदि जैसे संस्थानों का निर्माण शुरू करते हैं. वैज्ञानिक तरक्की हेतु प्रतिबद्ध एक बुनियादी संरचना तैयार होती है. जबकि यह याद रखना भी आवश्यक है कि उस वक्त हमारा मुल्क न सिर्फ़ गरीब, बल्कि लहुलहान भी था. जब ये प्रस्ताव हमने पास किए थे, तब हमने अपनी कमर कस ली थी. क्यों ? क्योंकि तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व यह समझा रहा था कि यह क्यों जरूरी है.

अब आप वहां से 2014 में आ जाइए. वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व कहां से आया है ? उसकी सोच का विकास कहां और किनके बीच में हुआ है ? उसकी परवरिश कहां हुई है ? आप पाएंगे कि वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व का हर नेता सत्तर और अस्सी के दशक में उभरे बाबाओं के पैर छूकर यहां पहुंचा है. इन बाबाओं में एक आचार्य बालकृष्णा हैं, जिनकी संपत्ति 2.2 बिलियन डॉलर है. बाबा रामदेव की कुल सम्पत्ति 210 मिलियन डॉलर जबकि माता अमृता की कुल सम्पत्ति 250 मिलियन डॉलर है. शीर्ष के दस बाबाओं में निम्नतम सम्पत्ति–धारी बाबा की सम्पत्ति भी दो मिलियन डॉलर है.

चन्द्रयान का बजट इससे थोड़ा ही ज़्यादा था. आप समझ सकते हैं कि समाज आज अपना पैसा कहां लगा रहा है, किस दिशा में अग्रसर है. इस माहौल में ऐसा ही होगा कि एक बाबा खड़ा हो कर कहेगा कि आधुनिक चिकित्सा बकवास है, हमें जड़ी–बूटियों की तरफ जाना चाहिए. ये अलग बात है कि उनको अपने इस तरह के बयानों पर माफ़ी मांगनी पड़ती है, लेकिन अब से बीस तीस साल पहले क्या कोई ये कहने की हिम्मत कर सकता था ?

एक तरफ़ राजनैतिक नेतृत्व है, और दूसरी तरफ मिथकों और अंधविश्वासों के कारखानों की तरह काम करने वाले बाबा गण हैं. जब हम और आप जैसे लोग इस मुल्क की तामीर में लगे हुए थे, तब ये बाबा अंधविश्वास पैदा कर रहे थे और उन्हें नए–नए लिफ़ाफ़ों में लोगों को पेश कर रहे थे. आज ये कारखाने बेहद मज़बूत हो चुके हैं. राजनैतिक नेतृत्व, इन बाबाओं और सहचर पूंजी (क्रोनी कैपिटल) का एक गठजोड़ तैयार हो गया है. यह गठजोड़ एक–दूसरे के हितों को साधने के लिए इन तीनों के बीच एक समझौते को निरूपित करता है.

आज हम देखते हैं कि प्रधानमंत्री कहते हैं गणेश प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी के होने का प्रमाण हैं. दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले देश के प्रधानमंत्री का इस तरह का बयान देना न सिर्फ देश को बदनाम करने के समान है, बल्कि नीचे तक यह संदेश देने के समान है कि अब आप कोई भी कहानी सुनाकर विज्ञान की मनगढ़ंत परिभाषा तैयार कर सकते हैं.

यह प्रधानमंत्री के हुक्म की तामील करने के लिए तैयार खड़े देश के हज़ारों उत्कृष्ट वैज्ञानिकों और गणितज्ञों को यह संदेश देना है कि अब यही होगा. ऐसे बयान इंगित करते हैं कि वैज्ञानिक चेतना को काल–कोठरी में बंद किया जा सकता है. यही कारण है कि एक मुख्यमंत्री कहता है कि महाभारत–काल में अणु बम मौजुद था और एक न्यायाधीश कहता है कि मोर आंसुओं से प्रजननन करते हैं.

वैज्ञानिक चेतना में ह्रास का ही परिणाम है कि राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) डारविन के सिद्धांत और आवर्त सारणी (Periodic Table) को पाठ्य सूची से बाहर निकाल देती है. डारविन के सिद्धांत के प्रति बहुत सारे देशों ने यही रुख अपना रखा है.

आवर्त सारणी को स्कूली पाठ्यक्रम से निकालना इसलिए जरूरी है ताकि बाबाओं के लिए यह बताना संभव को पाए कि हर चीज मात्र पांच तत्वों से मिलकर बनी है. यह कितनी शर्मनाक बात है कि 2006 के बाद से पाकिस्तान ने अपनी पाठ्यसूची में डार्विनवाद को अपनाया है, और हमने पिछले साल उसे हटा दिया. जबकि हमने वो चार्टर साइन किया हुआ है जिसमें लिखा है कि ‘स्कूली शिक्षा में डार्विनवाद को अपनाया जाना और अक्षुण्ण रखा जाना चाहिए.’

आज विज्ञान की सीधी मुखालफ़त कर पाना बेहद मुश्किल है. पूरी दुनिया में विज्ञान का प्रभुत्व स्थापित हो चुका है. इसी कारण विज्ञान–विरोधी अप्रत्यक्ष हमले कर रहे हैं. आईआईटी को आवंटित धन में कटौती करके, संजीवनी बूटी पर शोधकार्य हेतु धन आवंटित करके तथा पाठ्यक्रम के जरूरी हिस्से हटाकर आदि माध्यमों से विज्ञान के खिलाफ़ अप्रत्यक्ष हमले किए जा रहे हैं.

लेकिन इस माहौल में यह बहुत ज़रूरी है कि हम वैज्ञानिक चेतना की लगातार बात करते रहें. वैज्ञानिक चेतना की रक्षा इसी में निहित है. जब हमने 1949 में यह फ़ैसला लिया कि हमारे मुल्क के विकास का आधार विज्ञान होगा, तो उसके नतीजे हमको लगभग चालीस साल बाद दिखने शुरू हुए. विज्ञान पर हो रहे मौजूदा दौर के हमलों का असर भी हमें बाद ही में दिखेगा.

विज्ञान का खिलाफत कर क्या हासिल करना चाहती है मौजूदा सरकार

मौजूदा सरकार न केवल विज्ञान पर संगठित हमले कर रही है अपितु भारत में पिछले 65 सालों से अर्जित की गई शिक्षण कार्य को भी ध्वस्त करना चाह रही है. इसके लिए उसने तकरीबन ढ़ाई लाख स्कूलों को बंद कर दिया है, विश्वविद्यालयों में संघी मिजाज वाले और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विरोधी लोगों को बड़े पैमाने पर भर्तियां की है ताकि शिक्षा का स्तर गिर जाये. भूत, प्रेत आदि जैसे विषयों की पढ़ाई करवाई जा रही है. पकौड़ा और पंक्चर बनाने जैसी स्तरहीन शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है. सार्वजनिक शिक्षा को खत्म करने के लिए शिक्षकों के पदों को नहीं भरा जा रहा है.

तो, सवाल उठता है सरकार आखिर ऐसा कर क्यों रही है ? वह विज्ञान समेत शिक्षण कार्य को हतोत्साहित क्यों कर रही है ? इसका जवाब जानने के लिए हमें अतीत में जाना होगा. कार्ल मार्क्स ने कहा था कि अगर हम इतिहास से नहीं सीखते हैं, तो इतिहास खुद को दुहराता है. एक बार त्रासदी के रुप में, दूसरी बार प्रहसन के रुप में. ठीक यही चीज अभी भारत में चल रहा है.देश मनुस्मृति का क्रूरतम बदशक्ल रुप त्रासदी के रुप में देख चुका है, अब मोदी सरकार में प्रसहन के रुप में देख रहा है.

7वीं सदी में पहली बार भारत में विदेशी ब्राह्मण ने सत्ता पर कब्जा किया था और उसने अपनी सत्ता को स्थायित्व देने के लिए यहां के स्थानीय लोगों को गुलाम बनाने की प्रक्रिया को शुरु किया था, जिस कारण उसने मनुस्मृति का ईजाद किया था. मनुस्मृति का लिखा जाना 7वीं सदी में हुआ, जब यहां के लड़ाकू लोगों पर शस्त्र उठाने का प्रतिबंध लगाया गया, और उसका आखिरी अध्याय क्रूर और नृशंस पेशवा राज के खात्मे के साथ सम्पन्न हुआ, जब भारत के लोगों के गले में हड़िया और कमर में झाड़ू बांधा गया था.

मौजूदा सरकार एकबार फिर से उसी मनुस्मृति आधारित समाज की अमानवीय व्यवस्था स्थापित करने जा रही है, जहां ब्राह्मण की सर्वभौम सत्ता होगी. मनुस्मृति स्थापित करने के लिए यह जरूरी है कि भारत के गैर ब्राह्मण अशिक्षित हों, अनपढ़ और धार्मिक मूढ़ हो. मोदी सरकार ठीक यही चीज कर रही है. यही कारण है कि मोदी सरकार लगातार एक के बाद एक शुद्र विरोधी, विज्ञान विरोधी अमानवीय नीतियों को लागू कर रही है. चूंकि विज्ञान और संविधान इसके आड़े आ रही है, तो इसका निशाना भी विज्ञान और संविधान ही है.

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