रविश कुमार, अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट है कि लखनऊ के 25 अगस्त को एक युवक ने मिट्टी का तेल डालकर खुद को जलाने का प्रयास किया, पुलिस ने बचा लिया. युवक का कहना है कि उसे सवा करोड़ के गबन के झूठे आरोप लगा कर जेल भिजवा दिया गया. यह युवक अपने सरकारी नौकरी करने वाले रिश्तेदार के साथ ठेके का काम करता है. इस कहानी से आपको तंत्र के भीतर की सड़न और वास्तविकता दिख जाती है. इस युवक ने व्हाट्स एप किया है कि सुसाइड ही रास्ता बचा है.
अमर उजाला की ख़बर है कि 29 जुलाई को 65 साल के एक बुज़ुर्ग ने विधानभवन के सामने आत्मदाह का प्रयास किया है. धर्मराज नाम के ये बुज़ुर्ग किसी विवाद में शासन से मदद न मिलने पर हताश हो चुके थे. पुलिस ने इन्हें बचा लिया और चाय भी पिलाई. विधान भवन के सामने अक्तूबर 2021 में और फरवरी 2021 में अलग-अलग मामलों से संबंधित दो महिलाओं ने खुद को जलाने के प्रयास किए.
अमर उजाला में एक ख़बर छपी है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने एक पीड़िता और उसके गवाह साथी ने ख़ुद को जला लिया. दोनों अब मर चुके हैं. इनका आरोप है कि बसपा सांसद अतुल राय ने कथित तौर पर पीड़िता के साथ बलात्कार किया था. सांसद जेल में है लेकिन दोनों ने आग लगाने से पहले पुलिस अधिकारिकों पर जांच न करने के आरोप लगाए. फेसबुक लाइव किया. मैंने ऐसे मामलों को सर्च करना शुरू किया.
पत्रिका भास्कर में संयुक्त पुलिस आयुक्त नवीन अरोड़ा का बयान छपा मिला. 6 फरवरी 2021 का है. नवीन अरोड़ा ने बताया है कि ‘7 जुलाई 2019 से लेकर फरवरी 2021 के बीच लखनऊ के विधान भवन के सामने 363 लोगों ने आत्म दाह के प्रयास किए हैं’ इनमें से 251 ऐसे थे जो एलान कर आए थे कि आत्मदाह करने जा रहे हैं. कई लोगों को बचा लिया जाता है.
आत्मदाह की आशंका के कारण विधानभवन का मार्ग रात 11 बजे से सुबह के 6 बजे तक के लिए बंद कर दिया जाता है. इस खबर की रिपोर्टिंग में भी कई झोल है. एक ही पुलिस अधिकारी के बयान को अलग-अलग अख़बारों ने अलग-अलग तरीक़े से छापा है. क्या वाक़ई हर दिन आत्मदाह होता है ?
इनमें से कुछ लोग बेशक राजनीतिक कारण से आते होंगे लेकिन इतनी बड़ी संख्या बता रही है कि पुलिस और अन्य विभागों की पेशेवर व्यवस्था ख़त्म हो चुकी है. लोगों को फर्ज़ी मामलों में फंसाया भी जाता है और असली मामलों में जांच नहीं होती है. जला लेना सामान्य घटना नहीं है. यह तो केवल लखनऊ का आंकड़ा है. पूरे उत्तर प्रदेश का या पूरे भारत का निकालेंगे तो ऐसी घटनाओं की संख्या और इनमें समानता से सन्न रह जाएंगे.
हिन्दू मुस्लिम के कारण आपने सही ग़लत देखना बंद कर दिया है. न जाने कितने मुसलमान युवकों को फर्ज़ी किस्से बनाकर बीस-बीस साल आतंक के आरोप में जेल में बंद कर दिया गया. होना तो यह चाहिए कि जो आतंक में शामिल है तो वही जेल में हो लेकिन जिसे कुछ अता पता नहीं है, उसे आतंकवादी बताकर जेल में डाल दिया जाता है.
कई बार आप अपने राजनीतिक कारणों से ऐसी घटनाओं का समर्थन करते हैं या चुप रहते हैं. किसी को एससी / एसटी उत्पीड़न में फंसाया जाता है तो उसका भी सवाल यहीं से है कि सिस्टम काम ही यही करता है – झूठे मामलों में फंसाने का और वसूली करने का. कोई चैन से नहीं है. लखनऊ से संबंधित जिन दो चार घटनाओं का ज़िक्र किया है, उसमें से एक भी मुसलमान नहीं हैं. हिन्दू हैं. कोई दलित है, कोई सवर्ण है, कोई पिछड़ा है.
इसका क्या मतलब हुआ ? मतलब यह हुआ कि हमारा सिस्टम जिसे चाहे, जब चाहे, जैसे चाहे लोगों के साथ कुछ भी कर सकता है, परिवारों को बर्बाद कर देता है. उनकी पूंजी हड़प लेता है इसलिए सिस्टम के भीतर पारदर्शिता और पेशेवर तरीके से काम करने की जवाबदेही होनी चाहिए. किसी की सरकार हो, किसी जाति या धर्म की सरकार हो, जब तक हम सबके लिए ईमानदार सिस्टम की मांग नहीं करेंगे, यह नहीं थमने वाला है. समाज में सुख-चैन नहीं रहेगा.
इस लेख के उदाहरण यूपी के हैं लेकिन ऐसे उदाहरण राजस्थान से लेकर पंजाब और कहीं के भी दिए जा सकते हैं. आख़िर पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियों को यह छूट कब तक दी जाएगी कि वे संविधान की शपथ लेकर नागरिकों से ही वसूलेंगे ? उनका ही जीवन बर्बाद कर देंगे.
हमेशा आपका सवाल यह होना चाहिए कि सिस्टम ने झूठे मामले में क्यों फंसाया ? क्यों नहीं असली मामले में सही व्यक्ति को पकड़ा ? वरना लोग विधान सभा और सुप्रीम कोर्ट के सामने जाकर खुद को आग लगाते रहेंगे.
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