सुब्रतो चटर्जी
शुरु में ही स्पष्ट कर दूं कि इस विवेचना का आधार नैतिक से ज़्यादा व्यावहारिक है. हालिया सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले, जिसके मुताबिक़ अगर कोई स्त्री स्वेच्छा से देह व्यापार में लिप्त है तो वह क़ानूनन जुर्म नहीं है, लेकिन संगठित और जबरन देह व्यापार में धकेलना जुर्म है, ने इस सदियों पुराने सवाल को फिर से ज़िंदा कर दिया है. इस फ़ैसले का मतलब यह हुआ कि किसी भी स्त्री या पुरुष को अपनी देह को पैसे के लिए बेचना अपराध नहीं है.
नैतिक दृष्टिकोण से यह फ़ैसला बहुत लोगों को नागवार गुजरा होगा, लेकिन, एक पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था में यह फ़ैसला समयानुकूल है. इसके पीछे हमारी वह सामंती सोच है, जिसके तहत स्त्री भोग की वस्तु है. हालांकि, दास प्रथा, जिसका विस्तार भारत के देवदासी प्रथा में दिखता है. उससे मौद्रिक विनिमय के बदले देह का सौदा करना एक क़दम आगे की बात है. इस सौदे बाज़ी में व्यक्ति अपनी देह की क़ीमत लगाने को स्वतंत्र है, यद्यपि यह समय, काल और परिस्थितियों पर निर्भर करता है.
वैशाली की नगरवधू से लेकर आज की कॉल गर्ल्स, एस्कॉर्ट्स और जिगोलो, यानि पुरुष वेश्या इसी श्रेणी में आते हैं. इस व्यवस्था में सबसे बड़ी बात है कि इसमें किसी व्यक्ति के पास ना कहने का अधिकार अक्षुण्ण रहता है. दूसरी बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने संगठित देह व्यापार को ग़ैरक़ानूनी माना है, जबकि भारत में रेड लाइट एरिया लाइसेंस के तहत चलते हैं.
फ़ैसले के इस हिस्से में सुप्रीम कोर्ट ने संगठित देह व्यापार को मानव तस्करी के लिए कारक माना है. NCRB के डेटा के मुताबिक़ भारत में हरेक 8 मिनट में एक बच्चा अगवा हो जाता है. इन बच्चों को भीख मांगने का रैकेट या देह व्यापार में देर सबेर धकेल दिया जाता है. आपको जान कर आश्चर्य होगा कि दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार न तो हथियार का है और न ही तेल का, दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार मानव तस्करी का है. इससे आप संगठित वेश्यावृत्ति की भयावहता को समझ सकते हैं.
नैतिक मूल्यों के आधार पर हम वेश्यालय या वेश्यावृत्ति का विरोध कर सकते हैं, लेकिन नैतिक मूल्यों के असर में मध्यम वर्ग रहता है, जो कि पूरी दुनिया की जनसंख्या का मात्र 15% है. धनी वर्ग, मध्यम वर्ग के नैतिक मूल्यों को घास नहीं डालता और ग़रीबों को देह से नैतिकता को जोड़ने की फ़ुर्सत नहीं है.
आख़िर वेश्यालय किसके लिए ज़रूरी है ?
सवाल ये है कि आख़िर वेश्यालय किसके लिए ज़रूरी है ? इसके जवाब में मुझे समाज शास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान और व्यक्तिगत जुगुप्सा की कई परतों को खोलना पड़ा. पहली बात तो ये है कि भारत जैसे सेक्स कुंठित समाज में अपनी यौन इच्छाओं के निर्वाध अभिव्यक्ति के लिए वेश्यालय से ज़्यादा मुफ़ीद और कोई जगह नहीं है.
एक आम आदमी, जो अपनी नैसर्गिक यौन इच्छाओं की अभिव्यक्ति साधारण सामाजिक जीवन में नहीं कर सकता है, वह एक लाल वृत्त के अंदर जाकर, वही काम बिना किसी कुंठा के कर सकता है. इस तरह से वेश्यालय उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा है. इस विषय पर ज़्यादा शोध करने की ज़रूरत है.
दूसरा पक्ष यह है कि भारत में अक्सर लोगों की शादी जवान होते ही कर दी जाती है और पैंतीस साल की उम्र होते होते वह दो तीन बच्चों का बाप बन जाता है. अक्सर उनकी पत्नियां बच्चों की परवरिश और घर के देखभाल में इतना मशगूल हो जातीं हैं कि अपने पर ध्यान नहीं दे पातीं है. ग्रामीणों के बीच यह बड़ी समस्या है. नतीजा यह होता है कि पुरुषों में कुछ लोग वेश्यागमन करते हैं. अगर सर्वे किया जाए तो देखा जाएगा कि रेड लाइट एरिया में ज़्यादातर अधेड़ उम्र के लोग जाते हैं. स्त्री की अपेक्षा में पुरुषों का देर से बूढ़ा होना एक नैसर्गिक कारण है.
क्या वेश्यालय का कोई विकल्प नहीं है ?
अब सवाल यह है कि क्या वेश्यालय का कोई विकल्प नहीं है ? हम जानते हैं कि थाईलैण्ड जैसे देशों ने वेश्यावृत्ति को क़ानूनी मान्यता दे कर टूरिज़्म व्यवसाय को बढ़ावा दिया और अपनी अर्थव्यवस्था को संभाला. दूसरी तरफ़ हम यह भी जानते हैं कि सोवियत संघ के सत्तर सालों में वहां कोई वेश्यावृत्ति नहीं थी. मानव तस्करी पूरी तरह से बंद था. समाजवादी व्यवस्था में रोटी कमाने के लिए शरीर बेचने की ज़रूरत नहीं होती है.
1980 में सोवियत संघ के विघटन के बाद वहां तेज़ी से आर्थिक असमानता बढ़ी और सामाजिक सुरक्षा के ढांचे के ध्वस्त होने के बाद युवतियां फिर से देह व्यापार में धकेल दी गईं. पूर्व सोवियत संघ और टर्की की लड़कियां दिल्ली भी आ गईं और आज भी आप उन्हें महिपालपुर के सस्ते होटलों और बार में देख सकते हैं. पांच सितारा होटलों में भी मिल जाएंगी.
कहने का तात्पर्य यह है कि वेश्यावृत्ति के सामाजिक और आर्थिक दोनों कारण हैं. जब कोई ये कहता है कि वेश्यालय नहीं हो तो समाज में व्यभिचार बढ़ जाएगा, वे वेश्यागमन को क्या सदाचार की परिभाषा में लाते हैं ?
दूसरी तरफ़, वेश्यालय या वेश्या वृत्ति के खिलाफ नैतिक मूल्यों की दुहाई देने वालों के पास क्या ऐसी कोई राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सोच है क्या जो दुनिया के इस सबसे प्राचीन व्यवसाय को नहीं पनपने देने के लिए कोई ज़मीन मुहैया करा सकें ? जवाब है, नहीं.
एक आख़िरी बात. सिर्फ़ देह से देह का अर्थोपार्जन के लिए मिलना ही देह व्यापार नहीं होता. फेनिल समुद्र के तट पर कंडोम का प्रचार करती कोई अर्द्ध नग्न महिला भी प्रकारांतर में वही कर रही है. ये औरत उस कोठे वाली से ज़्यादा घातक है, क्योंकि उसने आपकी जुगुप्सा को बढ़ा कर आपको एक विकृति दी है और उस कोठे वाली ने आपकी जुगुप्सा को शांत कर आपको मानसिक रूप से एक बेहतर हालत में लाकर छोड़ा है.
दमित यौन इच्छाओं से उत्पन्न विकृतियों पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है. आपको यह जानना काफ़ी है कि हिंसा के मूल में यही है साधारण परिस्थितियों में.
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