Home गेस्ट ब्लॉग किसका मास्टर स्ट्रोक, मोदी का या किसानों का ?

किसका मास्टर स्ट्रोक, मोदी का या किसानों का ?

10 second read
0
0
241

किसका मास्टर स्ट्रोक, मोदी का या किसानों का ?

चाटुकारों ने मोदी की चेतना की बत्ती बुझा रखी थी, उसी का नतीजा था कि वो संसद में ‘आंदोलनजीवी-परजीवी’ जैसी शब्दावली का इस्तेमाल कर रहे थे. सलाहकारों ने समझा दिया था कि आंदोलन लंबा खिंचने दो, इन्हें थका दो, ये स्वतः बिखर जाएंगे, टूट जाएंगे. पीएम मोदी को अंदाजा नहीं था कि ‘विलंब और लंबा खींचो रणनीति’ अमल में लाते-लाते यूपी चुनाव करीब आ जाएगा. मोदी पहली बार किसान आंदोलनकारियों का डीएनए पहचानने से चूक गए.

कार्तिक पूर्णिमा को ही क्यों चुना पीएम मोदी ने ?

वो रामनवमी को भी किसान कानून की वापसी का ऐलान कर सकते थे. दशहरा, दीवाली, छठ को भी उचित अवसर नहीं समझा था प्रधानमंत्री मोदी ने. हर साल कार्तिक पूर्णिमा को सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव जी की जयंती को पूरी दुनिया ‘प्रकाश पर्व’ के रूप में मनाती है. ऐसे अवसर पर लोगबाग गुरु नानक के संदेश, सामाजिक समरसता पर चर्चा करते हैं, लेकिन इस बार प्रकाश पर्व के दिन पीएम मोदी ने कुछ ऐसा कहा, जो देश-दुनिया के लिए विमर्श का विषय बन गया.

लगभग पौने दो साल बाद 17 नवंबर 2021 को करतारपुर कॉरीडोर खोला गया. क्या इसका कोई संबंध पंजाब के किसान वोट बैंक से है ? सिखों का एक बड़ा हिस्सा करतारपुर कारीडोर खोलने से नरम पड़ा, यह भी समझने की जरूरत है. मार्च 2020 से कोविड की वजह से करतारपुर कॉरीडोर बंद था.

9 नवंबर, 2021 को पाकिस्तान ने भारत से अनुरोध किया कि वह इसे खोले, ताकि भारत से सिख दर्शनार्थी यहां पहुंच सकें. तो क्या इमरान शासन अपरोक्ष रूप से दिल्ली की मदद को आगे आया था ? ये तो खालिस्तान को पालने-पोसने वाले लोग हैं.

शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने प्रधानमंत्री द्वारा किसान कानून वापसी के ऐलान को सकारात्मक माना है. प्रकाश सिंह बादल ने ट्विट किया और इसे किसानों की ऐतिहासिक जीत बताया. एसएडी के प्रवक्ता मनजिंदर सिरसा पार्टी की बीजेपी खेमे में वापसी के प्रश्न पर कहते हैं, ‘कोर कमेटी इसका निर्णय लेगी. ऐसे फैसले पार्टी अध्यक्ष भी तय नहीं कर सकते.’

17 सितंबर, 2020 को हरसिमरत कौर बादल ने किसान बिल के सवाल पर मंत्री पद छोड़ दिया था. उस समय के कांग्रेस नेता और सूबे के तत्कालीन सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह लगातार चोट कर रहे थे कि ‘बादल परिवार हिपोक्रेट है, बहू ने दिखावे के वास्ते इस्तीफा दिया है, ये बीजेपी से नाता नहीं तोड़ेंगे.’ उसके दस दिन बाद, 26 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल ने बीजेपी नीत एनडीए से 23 साल पुराना नाता तोड़ लिया था.

कालचक्र देखिये –

सालभर में सबकुछ बदल गया. ‘वक्त ने किया क्या हसी सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम.’ आज पंजाब से दिल्ली तक पूछा जा रहा है, हरसिमरत कौर बादल मोदी कैबिनेट में कब वापिस आ रही हैं ? और कैप्टन अमरिंदर सिंह क्या शिरोमणि अकाली दल तथा बीजेपी से बगलगीर होकर चुनाव मैदान में उतरेंगे ? विचित्र स्थिति है.

कल तक जो प्रक्षेपास्त्र संसद से सड़क तक छोड़े जा रहे थे, आज पुष्पवर्षा में परिवर्तित हो गए. गोले पीएम मोदी ने भी संसद मेें दागे थे. नौ माह पहले 8 फरवरी 2021 का यू-ट्यूब खोलिये और सुनिए प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यसभा में क्या कहा था –

‘हमलोग कुछ शब्दों से बड़े परिचित हैं.’

श्रमजीवी, बुद्धिजीवी. लेकिन मैं देख रहा हूं कि कुछ समय से इस देश में एक नई जमात पैदा हुई है, और वो है आंदोलनजीवी. ये जमात आप देखोगे, वकीलों का आंदोलन है, वहां नजर आएंगे, स्टूडेंट का आंदोलन है, वहां नजर आएंगे, मजदूरोंं को आंदोलन है, वहां नजर आएंगे. हमें ऐसे लोगों को पहचानना होगा.

देश आंदोलनजीवी लोगों से बचें, ऐसे लोगों को पहचानने की आवश्यकता है. ये सारे आंदोलनजीवी, परजीवी हैं.’

पीएम मोदी अपने इस व्यंग्य वाण से सदन में ताली और मेज की थपथपाहट पा तो गए, मगर उससे अशालीन मिजाज के नेताओं को शह मिली. उनकी कैबिनेट मंत्री मीनाक्षी लेखी ने 22 जुलाई 2021 को जो बयान दिया, वो निहायत आपत्तिजनक था, ‘ये किसान नहीं, मवाली हैं.’

सुनने वाले सन्नाटे में थे. इससे पहले 27 नवंबर, 2020 को बीजेपी आईटी सेल का अमित मालवीय किसान आंदोलनकारियों को अतिवादी साबित करने में लगे रहे. दिल्ली प्रदेश बीजेपी का नेता तेजिंदर सिंह बग्गा ट्विट और वीडियो के जरिए बताता रहा कि ये खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वाले किसान नहीं हो सकते.

खालिस्तान कार्ड चलाने के वास्ते बीजेपी आईटी सेल खुलकर मैदान में था. फरवरी 2021 में केंद्रीय खुफिया एजेंसियां रॉ और आईबी के हवाले से खबरें चलाई गईं कि खालिस्तान कमांडो फोर्स किसान आंदोलन में घुसा हुआ है, और साजिशें रच रहा है.

यह तो मानना होगा कि शब्द गढ़ने और कटाक्ष करने में पीएम मोदी अपने पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी से कई कदम आगे हैं. इस देश में लंबा इतिहास है किसान आंदोलन का. महाराष्ट्र में रामोसी किसान विद्रोह, निरंकुश सरकार और नौकरशाही के खिलाफ 1847 से आधी शताब्दी तक चले बिजोलिया किसान आंदोलन, 1872 का कूका किसान विद्रोह, जिसमें 66 नामधारी सिख शहीद हो गए थे, सूदखोरी के विरूद्ध 1874 का दक्कन विद्रोह, 1917 में महात्मा गांधी ने चंपारण जाकर नीलहा आंदोलन चलाया था.

इसके प्रकारांतर 22 मार्च 1918 को महात्मा गांधी द्वारा खेड़ा सत्याग्रह. खेड़ा किसान आंदोलन में सरदार बल्लभभाई पटेल, इंदुलाल याज्ञनिक भी सक्रिय हुए थे. 1928 में सूरत के बारदोली में सरदार पटेल ने किसानों द्वारा लगान अदा न करने का आंदोलन चलाया था.

क्या गांधी और पटेल ‘आंदोलनजीवी’ थे ?

1914 का टाना भगत आंदोलन और उससे पहले का मुंडा आंदोलन लगान के विरूद्ध ही था. 1918 में हरदोई, बहराइच, सीतापुर के किसानों का ‘एका आंदोलन’ चला, 1920 का मोपला विद्रोह जिसमें केरल के किसान अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध खड़े हो गए थे, उस आंदोलन में महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेता शरीक हुए थे.

1946 में आंध्र के जमींदारों-साहुकारों द्वारा शोषण के विरूद्ध का खड़ा हुआ तेलांगना आंदोलन, 1946 में ही 15 जिलों में फैले बंगाल का तेभागा किसान आंदोलन. ऐसे आंदोलनों में शरीक सारे आइकॉन क्या आंदोलनजीवी-परजीवी थे ? संसद में अपनी शब्दावली से आह्लादित प्रधानमंत्री मोदी को यह स्पष्ट करना चाहिए.

गुजरात के गर्भ से एक तीसरा आंदोलन भी पैदा हुआ था, ‘नव निर्माण आंदोलन.’ यह छात्र आंदोलन 20 दिसंबर, 1973 से 16 मार्च, 1974 तक चला, जिसमें जेपी आए और उसके प्रकारांतर पटना के गांधी मैदान में ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा देशव्यापी दावानल में परिवर्तित हो गया.

इस आंदोलन का परिणाम था कि इमरजेंसी लगी. के. कामराज की कांग्रेस, जनसंघ, लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी. क्या इन पार्टियों में नेतृत्व देने वाले सारे महानुभाव परजीवी-आंदोलनजीवी थे ? उन्हें छोड़ें, रामलीला मैदान में झंडा गाड़े अन्ना हजारे तो सबसे बड़े ‘आंदोलनजीवी‘ थे, जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहयोग कर रहा था.

देश के प्रधानमंत्री के एक-एक शब्द मानीखेज होते हैं. वो इतिहास की ऐसी इबारत के रूप में होते हैं, जिसे हम-आप मिटा नहीं सकते. पंजाब से यूपी तक राजनेताओं की टिप्पणियां सुनिए, उससे राजनीतिक लक्ष्य साफ हो जाते हैं.

मोदी समर्थक केवल घोषणा भर को ‘मास्टर स्ट्रोक’ बता रहे हैं, किसान समर्थक अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ मानकर आह्लादित हैं. कांग्रेस इसे तानाशाह शासकों की हार के रूप में निरूपित कर रही है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव बोल रहे हैं कि किसानों से घबराकर मोदी ने कानून वापसी की घोषणा की.

केजरीवाल कह रहे हैं, किसानों की शहादत अमर रहेगी. अमरिंदर सिंह, मोदी को धन्यवाद दे रहे हैं, तो क्या इससे पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को नुकसान का सामना करना पड़ सकता है ?

अब प्रश्‍न यह है कि आगे क्या होगा ?

कृषि सुधार जैसा सवाल मुंह बाए खड़ा है. पीएम मोदी ने किसानों का इनकम 2022 तक डबल करने का अहद कर रखा है, वो क्या एमएसपी लागू कर देने भर से दोगुना हो जाएगा ? डीजल की कीमतें कम होने का नाम नहीं ले रहीं, जो कि कृषि उत्पादन लागत का बड़ा हिस्सा है.

बिजली, पानी, खाद, नियंत्रण मुक्त यूरिया, ऐसे बहुतेरे सवाल मुंह बाए खड़े हैं. 700 से अधिक किसान आंदोलन के समय मौत के मुंह में समा गए. उनके आश्रितों का क्या होगा ? न मुआवजा, न नौकरी. दस हजार से अधिक किसानों पर मुकदमे दर्ज हैं, क्या उसे वापिस लिए जाएंगे ?

एक बात तो माननी पड़ेगी किसान नेतृत्व रणनीतिक दृष्टि से युधिष्ठिर वाली भूमिका में रहा है. कुछ ऐसे कांड हुए, जिससे कई बार लगा था कि व्यापक हिंसा फैलेगी. लाल किले से लेकर लखीमपुर खीरी और सिंधु बार्डर तक हिंसा प्रज्ज्वलित करने के विविध षड्यंत्र किए गए.

उकसाने वाले बयानों की बाढ़ आई हुई थी. सरकारी तंत्र का इस्तेमाल हरावल दस्ते की तरह किया जा रहा था, फिर भी किसान नेता संगठित और संयमित रहे, इसका अनुमान लगाने से सात लोक कल्याण मार्ग चूक गया.

सबसे अधिक नुकसान किसी की छवि को हुआ, तो मोदी की

मालूम नहीं उनके सलाहकारों ने कैसे कन्विंस कर दिया कि आंदोलन लंबा खिंचने दो, इन्हें थका दो, ये स्वतः बिखर जाएंगे, टूट जाएंगे. पीएम मोदी को अंदाजा नहीं था कि ‘विलंब और लंबा खींचो रणनीति’ अमल में लाते-लाते यूपी चुनाव करीब आ जाएगा. पीएम मोदी पहली बार किसान आंदोलनकारियों का डीएनए पहचानने से चूक गए. दरबारी सलाहकारों ने चेतना की बत्ती बुझा रखी थी. उसी का नतीजा था कि वो संसद में आंदोलनजीवी-परजीवी जैसी शब्दावली का इस्तेमाल कर रहे थे.

29 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र होने जा रहा है. फर्ज कीजिए, किसान कानून की वापसी दिसंबर के पहले हफ्ते में हो भी जाती है, उसके बाद के तीनेक माह में डैमेज कंट्रोल हो जाएगा क्या ?

आंदोलन के समय मौतें, मौसम की दुश्‍वारियां, खेती का चौपट हो जाना और दसेक हजार मुकदमे, इतनी जल्दी स्मृति लोप करा देंगे संघ के कार्यकर्ता और बीजेपी के पन्ना प्रमुख ? जेपी नड्डा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष होने के बावजूद यूपी चुनाव में फ्रंट फुट पर खेलते नहीं दिख रहे हैं,  क्या वे अबतक के सबसे कमजोर अध्यक्ष साबित होने जा रहे हैं ?

2022 में कुछ गड़बड़ न हो, यह जोखिम आलाकमान लेना नहीं चाहता. अमित शाह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपने का मतलब भी यही है. इस सबों से कहीं अधिक सतपाल मलिक किसान आंदोलन की उर्वरता को पहचान रहे थे. राज्यपाल रहते कड़वे शब्द बोलकर अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले सतपाल मलिक को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए थी !

  • पुष्पा गुप्ता

Read Also –

 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं मोबाईल एप डाऊनलोड करें

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…