मोदी-बाइडेन वार्ता के बाद सिर्फ दो पत्रकारों को सवाल पूछने का मौका दिया गया, फिर भी अमेरिकी पत्रकार ने प्रधानमंत्री मोदी से भारत में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और विरोधियों के दमन से जुड़ा चुभता हुआ सवाल पूछ लिया. जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा कि मैं इस सवाल पर हैरान हूं. इसके बाद अपनी चिर-परिचित शैली में उन्होंने संविधान की दुहाई देकर दावा किया कि भारत में न्याय और कानून का राज है.
गांधी और संविधान, विदेशी धरती पर मोदी के दो सबसे बड़े सुरक्षा कवच यही दोनों हैं. गांधी, जिनकी सरकार हर दिन वैचारिक हत्या कर रही है. संविधान भी वही है, जिसे आरएसएस ‘कट एंड पेस्ट कंस्टीट्यूशन’ बताता आया है और सरकार के कई मंत्री जिसे बदलने की मंशा खुलेआम जता चुके हैं.
क्या भारत में सबकुछ अच्छा होने का दावा करते वक्त प्रधानमंत्री को अंदर से कोई ग्लानि हुई होगी ? उनके स्वभाव को देखते इस बात की अपेक्षा बेमानी है. बीजेपी इस बात का ढोल पीटती रही है कि पूर्वोत्तर को मोदीजी ने देश की मुख्यधारा से जोड़ा है. उसी पूर्वोत्तर का एक प्रमुख राज्य मणिपुर में गृहयुद्ध जैसे हालात हैं. हज़ारों की तादाद में स्वचालित हथियार पुलिस थानों से निकलकर आम घरों तक पहुंच चुके हैं. सेना के हथियार भी कई जगहों पर लूटे जाने की खबर है.
चाणक्य के तौर पर ब्रांड किये गये तड़ीपार गृहमंत्री आगे की चुनावी तैयारियों में व्यस्त हैं और जेम्स बांड के रूप में स्थापित किये गये राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार देश को मणिपुर के बारे में आश्वस्त करने के बदले घूम-घूमकर बयान देते फिर रहे हैं कि अगर नेहरू की जगह सुभाष चंद्र बोस देश के प्रधानमंत्री बने होते तो भारत का कितना भला होता.
मक्कारी, बेशर्मी, कपट, अक्षमता और अहंकार संघी राजनीति के पांच केंद्रीय तत्व है. इन्हीं पर आधारित एक बर्बर बहुसंख्यकवादी समाज और देश की रचना का प्रोजेक्ट रात-दिन चल रहा है. राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियों को लोक स्मृति से मिटाकर राजा-रानियों के किस्सों को इसी मकसद से स्थापित किया जा रहा है. सेंगॉल पर हुआ तमाशा इसका ताजा उदाहरण है.
संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि राष्ट्र साझा सुख-दुःख से बनता है और इस लिहाज से भारत का राष्ट्र बनना अभी बाकी है. क्या मणिपुर का दुःख इस देश ने महसूस किया है ? राष्ट्रीय मीडिया से मणिपुर की खबर लगभग पूरी तरह गायब है. मणिपुर की खबरों को दबाकर गोदी मीडिया ‘लव जेहाद’ के झूठे किस्से गढ़ने में व्यस्त है, ताकि 2024 में बीजेपी की वापसी का रास्ता तैयार हो सके.
अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है. अल्पसंख्यक शब्द सुनकर बीजेपी समर्थकों के तन-बदन में आग लग जाती है. उन मूर्खों को ये पता नहीं है कि अल्पसंख्यक शब्द के मायने क्या हैं ? छह लोगों के परिवार में देर रात तक शोर-शराबा चलता है और जो बूढ़े दादाजी टीवी हाई वॉल्यूम की वजह से पूरी रात नहीं सो पाते हैं, अल्पसंख्यक वही हैं. मर्द सहकर्मियों की अश्लील लतीफेबाजी के बीच सिर झुकाकर खड़ी आपके ऑफिस की जो दो महिलाएं हैं, अल्पसंख्यक वही है.
कोई भी समाज सभ्य और देश रहने लायक तभी बनता है, जब वो अपने अल्पसंख्यकों के प्रति संवदेनशील और सहिष्णु होता है. अमेरिका ने दिवाली की छुट्टी का एलान किया तो भारत में कई लोगों ने उसे हिंदुओं के सांस्कृतिक विजय के तौर पर देखा. किसी को ये समझ में नहीं आया कि ये अमेरिका के सभ्य होने की निशानी है, जिसने एक प्रतिशत से कम तादाद वाले समूह तक की भावनाओं का सम्मान किया. क्या मोदी की न्यू इंडिया में यह संभव है ?
न्यू इंडिया ये मानता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक का संपूर्ण भू-भाग हमारा है, मगर लोग कहीं और के हैं. वो भारत को आपसी सहमति से बना एक लोकतांत्रिक राज्य नहीं मानते बल्कि एक विजित प्रदेश के तौर पर देखते हैं. उन्हें लगता है कि आर्टिकिल-370 का पन्ना फाड़ देने से कश्मीर समस्या खत्म हो गई. वहां के लोगों पर बात करने की ज़रूरत नहीं है.
आज मणिपुर पर जो चुप्पी है, क्या किसी बड़ी आबादी वाले राज्य में यह सब होने पर भी ऐसी ही चुप्पी होती ? यकीनन पूरा देश उसकी चर्चा कर रहा होता और वोट बैंक बचाने की खातिर सरकार सिर के बल खड़ी होती. मणिपुर के बीजेपी नेता तक रो-रोकर कह रहे हैं कि हम भी इस देश का हिस्सा हैं और सरकार कोई कदम उठाये लेकिन प्रधानमंत्री दुनिया भर में घूम-घूमकर अपनी महानता का गाल बजा रहे हैं और मीडिया रात-दिन इन कोशिशों में जुटा है कि मणिपुर की खबरें हेडलाइन ना बनें.
आपको ठहरकर एक बार सोचना पड़ेगा कि एक संघीय देश के रूप में भारत का भविष्य क्या है और असली टुकड़े-टुकड़े गैंग कौन है ?
- मनीष सिंह
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