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मैं कौन हूं…

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मैं कौन हूं
कहां से आया हूं
इन सवालों का जवाब
मजहब भी देते हैं
लेकिन सच्चे सवालों के
वो मजहबी जवाब झूठे होते है

मैं कौन हूं
कहाँ से आया हूं
यह हर उस इंसान के सवाल हैं
जो इस धरती पर पैदा हुआ
लेकिन
ज्यादातर लोगों ने
झूठे जवाबों से मुत्मइन होकर
मजहबों के आगोश में
अपने सवालों के साथ
अपना वजूद भी गिरवी रख दिया
बदले में सच्चे सवालों पर
झूठे जवाबों के अलावा
उन्हें जो हासिल हुआ
वह था
नफरत और जहालत

मैं कौन हूं
कहाँ से आया हूं
इस सवाल ने मुझे भी परेशान किया
मैंने भी इन सवालों का जवाब
तलाशना शुरू किया

मैंने अपनी खोज में
पाया कि
मैं दो पैरों पर चलने वाला
एक सामाजिक प्राणी हूं
होमोसेपियंस वंश से
ताल्लुक रखता हूं
और जाति से पुरुष हूं

मेरे पूर्वज
70 हजार साल पहले
अफ्रीका से बाहर निकलने में
कामयाब हुए थे और
तकरीबन
65 हजार साल पहले
भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुंचे थे
मेरे कुछ रिश्तेदार
अफ्रीका में रह गए
कुछ यूरोप चले गए
कुछ ऑस्ट्रेलिया अमेरिका तक पहुंचे
और कुछ
एशिया के अलग अलग हिस्सों में जाकर बस गए

जब मैने
यह जान लिया कि
मैं कौन हूं
कहां से आया हूं
तो अगला प्रश्न खड़ा हुआ
कि मेरी जिंदगी का मकसद क्या है ?

मैंने इस सवाल का जवाब भी ढूंढा
और मुझे मालूम हुआ कि
मेरी जिंदगी का
असली मकसद
बस यही है कि मैं
एक बेहतर सामाजिक प्राणी बनूं
और समाज कि विसंगतियों को
दूर करने में अपना योगदान देकर
समाप्त हो जाऊं

लेकिन
मेरा समाज ?

मैं किसे समाज मानूं ?

कहां है समाज
मैं किसे समाज कहूं ?

यहां समाज नाम की कोई चीज तो
एक्जिस्ट ही नही करती

मैं विलाज में रहने वाली प्रजाति को
समाज कहूं

या 4 बीएचके के ग्रुप में
रहने वालों को समाज मानूं

थ्री और टू वालों का भी एक अलग झुंड है

इनसे अलग वो भी हैं जो
कालोनियों में रहते हैं

झुग्गी वालों की दुनिया भी अलग है

फुटपाथों पर भी
एक विचित्र प्रजाति रहती है

मजदूरों की दुनिया अलग
तो वेश्याओं की दुनिया अलग

सबके अलग अलग झुंड हैं
इनमें किस झुंड को मैं
इंसानी समाज मानूं ?

कहां है समाज
मैं किसे समाज कहूं ?

सामाजिक होना मेरे वंश की
विवेषता है
और यदि इस विशिष्टता को हटा दें तो
मैं भी दूसरे
जानवरों से ज्यादा अलग नहीं

होमोसेपियंस
कि वास्तविक पहचान
उसका सामाजिक होना ही है
समाज के बिना
इंसान कुछ नहीं

हमारे पूर्वजों ने
हजारों साल में
जंगलों से निकलकर
गुफाओं में रहकर
जंगली पशुओं से लड़कर
दुनिया के कोने कोने तक
पैदल चलकर
एक समाज बनाया था

दिमाग छोटा था और जिंदगी अधूरी थी
कदम छोटे थे मगर महाद्वीपों की दूरी थी
अंजान रास्तों पर साथ चलने की मजबूरी थी
अज्ञानता के अंधेरों में साझेदारी भी जरूरी थी

सामूहिकता के बिना
कैसे पार होते समंदर ?

एक दूजे का साथ न होता तो
कैसे बदल पाते मुकद्दर ?

साथ चलने और साथ रहने की
मानसिकता से बना वो समाज
आधुनिकता तक पहुंचते पहुंचते
बिखर गया

कहां है समाज
मैं किसे समाज कहूं ?

प्रकृति से जूझने की
सामूहिकता से
बना वो समाज
मजहबों की दहलीज तक
पहुंचते पहुंचते
दम तोड़ गया

कहां है समाज
मैं किसे समाज कहूं ?

अछूत बना कर छंटी हुई आबादी
या हजारों जातियों में बंटी हुई आबादी
धर्म और साम्प्रदाय में कटे हुए लोग
या हाशिये पर धकेले गए लोग

ये झुंड अलग वो झुंड अलग
और इन अलग अलग झुंडों के
विशाल अजायबघर में

कहां है समाज ?
मैं किसे समाज कहूं ?

  • शकील प्रेम

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