8 जून 2012 को सीमा आज़ाद और विश्व विजय को बिना किसी साक्ष्य और बिना किसी कृत्य के आरोप के अजीवन कारावास की सज़ा हो गयी थी. इसके बाद दोनों को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सज़ा गलत मानते हुए 6अगस्त 2012 को जमानत पर रिहा कर दिया. उसके बाद कानपुर में बंद 8 लोगों में से कुछ 4 वर्ष की जेल के बाद और कुछ 7 वर्ष से अधिक जेल काटकर ज़मानत पर बाहर आए. गोरखपुर में बंद हीरामनी उर्फ आशा 4.5 वर्ष जेल बिता कर बाहर आईं थी. उसी गोरखपुर में राजेन्द्र मुंडा लगभग नौ वर्ष बाद जमानत पाए.
सीमा आज़ाद की वह सज़ा यूपी न्यायालय की मिसाल बन गयी. आप कोई बहस करें रुलिंग्स दें, हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट जाएं आपको पहले ट्रायल कोर्ट से सज़ा लेना है. इसी लाइन पर चलते हुए 9 जून, 2023 को हीरामनी की फर्जी गिरफ्तारी, फर्जी बरामदगी, फर्जी एफआईआर होते हुए भी बिना किसी कृत्य के ATS कोर्ट के जज ने 8 जून 2012 के जजमेन्ट को कॉपी पेस्ट करते हुए आजीवन जेल की सजा सुना दिया.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कृपा शंकर ने कोर्ट के निर्णय की समीक्षा करते हुए सवाल उठाए हैं कि ‘यह जजमेंट 2010 में जब चार्जशीट पेश हुई थी ATS द्वारा तभी लिखा जा सकता था और 13 वर्षों की अदालती कार्यवाही से बचा जा सकता था. जज और ATS के विवेचक एक थिंकिंग प्रोसेस और एक ही मीटिंग ऑफ माइंड पर हैं.’ प्रस्तुत आलेख पढ़ें और भारत की न्यायपालिका के फासीवादी चरित्र को महसूस कीजिए. देश की आम मेहनतकश जनता से नफरत की आग में जल रही इस सड़ चुकी फासिस्ट न्यायालय का विकल्प तलाश कीजिए. – सम्पादक
क्या यह बता सकते हैं कि निम्न लेख किसी स्टेट सिक्योरिटी एजेंसी का है या किसी सामान्य महिला को आजीवन सज़ा देने वाले जज का निर्णय, जिसमें महिला पर किसी एक्टिविटी का आरोप भी न हो ? नीचे उद्धृत अंश 9 जून 2023 को विशेष न्यायाधीश ATS/NIA एक्ट, लखनऊ द्वारा उद्घोषित निर्णय का हिस्सा है. यह सरकार बनाम हीरामनी उर्फ आशा के मामले जो 2010 में गोरखपुर में फर्जी गिरफ्तारी करके दर्ज किए गए मामले में आया है. इस मामले सिर्फ कुछ साहित्य की बरामदगी दिखाकर हीरामनी जी को 4.5 वर्षों तक उस समय जेल में रखा गया था. अब 9 जून को पुनः लखनऊ जेल में भेज दी गईं हैं.
‘भारत के सबसे हिंसक आन्दोलन यानि माओवाद/नक्सलवाद के सम्बन्ध में अगर यह कहा जाए तो लोग शायद चकित होंगे कि भारत में हिंसक हमलों में होने वाली मौतों में सबसे अधिक मौतों का कारण नक्सली आतंकवाद है. इसमें चकित होने की कोई बात नहीं है क्योंकि यह एक तथ्य है कि भारत में उग्रवाद से होने वाली सबसे अधिक मौतों का कारण जेहादी आतंकवाद नहीं बल्कि वामपंथी उग्रवाद है, इसी कारण नक्सलवाद आंतक का पर्याय बन गया है.
‘अमेरिका के अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सीरिया और इराक में कहर बरपाने वाले इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान के लिए नासूर बने तालिबान के बाद भारत का नक्सली संगठन विश्व का तीसरा सबसे हिंसक संगठन है. माओवादी आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस आंदोलन की शुरूआत पश्चिम बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी. नक्सली भारतीय गणतन्त्र और इसके बुर्जुवा संविधान को नष्ट कर माओवादी चीन के मॉडल पर कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना करना चाहते हैं.
‘सन् 1962 के भारत चीन के युद्ध के समय नक्सलियों ने ‘चीन का चेयरमेन हमारा चेयरमेन है’ का नारा देने वालों की जमात है. नक्सलियों की दृष्टि में कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना में भारत में सबसे बड़ा बाधक एकीकृत गणराज्य है. इसलिए नक्सली सबसे पहले भारत को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं. दशकों से सशस्त्र संघर्ष और आतंक के बाद नक्सली इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि एकीकृत भारत को परास्त करना असंभव है, इसलिए वे अब भारत को विघटित कराने की फिराक में है क्योंकि उन्हें लगता है कि छोटे-छोटे राज्यों पर कब्जा करना आसान होगा.
‘नक्सली और वामपंथी सैद्धान्तिक रूप से भारत को एक कृत्रिम राष्ट्र मानते हैं, उनकी ये भी समझ है कि भारत एक दमनकारी, साम्राज्यवादी संरचना है, जिसने उपमहाद्वीप के विभिन्न राष्ट्रियताओं पर कब्जा कर रखा है. इनके अनुसार भारत का अस्तित्व ही समस्या की जड़ है और यहां की जनता को भुखमरी, गरीबी और अन्याय से आजादी भारत राष्ट्र को नष्ट किए बिना नहीं मिल सकती है, यही मौलिक वामपंथी लाइन है, और इसी कारण वामपंथियों ने आजादी के पहले न केवल पाकिस्तान बनाये जाने का पुरजोर समर्थन किया बल्कि भारत को 30 और हिस्सों में बांटने की वकालत की थी.
‘आज भी वामपंथी किस्म-किस्म के अलगाववादी संगठनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समर्थन देते हैं और उनकी मांगों को बल प्रदान करते हैं. यह कार्य सार्वजनिक जीवन में सक्रिय उनका वह कैडर करता है जो अकादमिक और साहित्य जगत के साथ-साथ पत्रकारिता, गैर सरकारी संगठनों और कारपोरेट जगत में भी मौजूद है, यही कैडर शहरी नक्सली है. इसके मुख्य काम हथियारबंद पैसा और संदेश पहुंचाना, शहरों में उनके लिए सुरक्षित ठिकाने तैयार करना और गिरफ्तार नक्सलियों को मानवाधिकार और कानून की दुहाई देकर बचाना है. इसके अलावा शहरी नक्सली अपने एजेंडे का प्रचार-प्रसार भी करते हैं, इसी क्रम में मीडिया एवं शैक्षणिक संस्थाओं के जरिए भारतीय शासन व्यवस्था के खिलाफ माहौल भी बनाते हैं.
‘माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीनहंट जब भारत सरकार द्वारा सन् 2009 में चलाया गया तो उससे उन्हें भारी क्षति हुई, तब नक्सली / माओवादियों ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए शहरी इलाके में अपने विस्तार पर बल देना शुरू किया. इसी के बाद शहरी नक्सलियों की गतिविधि में तेजी आयी. नक्सलियों ने शहरी इलाकों में अपनी गुपचुप सक्रियता बढाने के साथ ही देश में चल रहे आंतकवादी और जेहादी संगठन से तालमेल बढ़ाना प्रारम्भ किया.
‘माओवादियों / नक्सलियों की समझ से दिल्ली को कमजोर करने का सबसे आसान तरीका अलगवावादी ताकतों को मजबूत करना, अलग-अलग चल रहे लोकतान्त्रिक आंदोलनों जैसे दलित, मजदूर और किसानों के आंदोलनों में घुसपैठ करना और उन्हें हिंसक रास्ते पर मोड़ना भी माओवादी नक्सली रणनीति का अहम हिस्सा है.
‘माओवादी यह मानता है कि शहर भारतीय राज्य एवं पूंजीपतियों की शक्ति का केन्द्र है और शहरों में ही प्रशासन, न्यायपालिका, विधायिका, सेना आदि की प्रभावी उपस्थिति है, इसलिए यहां अराजकता पैदा करके राज्य के संसाधानों और शासकों का ध्यान शहरों की सुरक्षा में ही फंसा देना है.
‘उनके मुताबिक इससे भारतीय शासन के लिए अलगावादियों और जेहादी ताकतों से मुकाबला करना मुश्किल हो जाएगा और भारत का विघटन (टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा तथा दिल्ली की सत्ता एवं शक्ति संकुचित हो जाएगी तो अनिर्णय और अराजकता की हालत में माओवादी अपनी गुरिल्ला सेना के जरिए विभिन्न हिस्सों पर कब्जा कर कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना कर लेगें. यही यह समझना भी आवश्यक है कि भूमिगत नक्सलियों और उनके शहरी कैडर यानी, कि शहरी नक्सलियों का दुश्मन मोदी, भाजपा या संघ नहीं बल्कि भारत है और दिल्ली में बैठने वाली सरकार उसकी दृष्टि फासीवादी और जनविरोधी है.
‘शहरी नक्सली एक अदृश्य शत्रु है, जो देश और समाज के खिलाफ हथियार नहीं उठाते लेकिन सिस्टम के खिलाफ धीरे-धीरे अविश्वास का माहौल पैदा करते रहते हैं. समाज में इनकी हैसियत सामान्यतः विद्वान और विचारक के तौर पर बनी है लेकिन यह नक्सलियो की हिंसक लड़ाई को शहरों में बैठकर वैचारिक आधार प्रदान करते हैं. यह हमारे आपके बीच मुखौटा लगाकर आस-पास मौजूद रहते हैं लेकिन हमें भनक तक नहीं मिलती. दरअसल ऐसे लोग शहरी युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित कर उन्हें सरकार विरोधी आंदोलन करने को उकसाते हैं.
‘शहरी नक्सली शहर के लोगों को गांव के लोगों के विरुद्ध भड़काना, दलितों को उच्चवर्ग के खिलाफ भड़काना, हिन्दु को मुसलमानों के खिलाफ भड़काना, मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ भड़काना, मजदूरों को उद्योगपतियों के खिलाफ भड़काना, आदिवादियों को गैर-आदिवासियों के खिलाफ भड़काना आदि कार्य करते हैं. जाहिर है जितने प्रकार से समाज टूट सकता है और जिस तरह से टूट सकता है, यह सभी तरीके शहरी नक्सली प्रयोग में लाते है.
‘यही नहीं हिन्दुओं के मध्य हिन्दू देवी-देवताओं की भयावह तस्वीर पेश कर उनके मध्य फूट डालने का भी कार्य करते हैं तथा भारत की सांस्कृतिक उदारता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपने मंसूबों को अंजाम देने का कार्य करते हैं.
‘मेरे विचार में अरबन नक्सल और उनके समर्थक जंगलों में घुसपैठ कर बैठी नक्सलियों की सेना से भी अधिक खतरनाक है, तथाकथित बुद्धिजीवी, मानवाधिकार और असहमति के अधिकार की आड़ लेकर सुरक्षाबलों की कार्यवाही को कमजोर करने के लिए कानूनी प्रकिया का सहारा लेते हैं और झूठे प्रचार-प्रसार के जरिए सरकार और उनकी संस्थाओं को बदनाम करते हैं.
‘प्रख्यात युद्ध रणनीतिज्ञ विलियम एस० लिंड ने अपनी पुस्तक ‘फोर्थ जनरेशन वारफेयर’ में लिखा है कि युद्ध की यह रणनीति समाज में सांस्कृतिक संघर्ष के रूप में दरार उत्पन्न करने पर टिकी होती है और देश को नष्ट करने के लिए बाहर के आक्रमण की कोई आवश्यकता नहीं होती, वह भीतर भीतर स्वयं टूट जाता है.’
यह जजमेंट 2010 में जब चार्जशीट पेश हुई थी ATS द्वारा तभी लिखा जा सकता था और 13 वर्षों की अदालती कार्यवाही से बचा जा सकता था. जज और ATS के विवेचक एक थिंकिंग प्रोसेस और एक ही मीटिंग ऑफ माइंड पर हैं. This is fit case for criminal conspiracy.
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