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छद्म सपनों की आड़ में धर्मवाद और कारपोरेटवाद की जुगलबंदी भाजपा को किधर ले जायेगा ?

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छद्म सपनों की आड़ में धर्मवाद और कारपोरेटवाद की जुगलबंदी भाजपा को किधर ले जायेगा ?

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

उत्तर प्रदेश से भाजपा के लिये बहुत अधिक उत्साहवर्द्धक संकेत नहीं आ रहे. उत्तराखंड और गोवा में वह कांटे के संघर्ष में उलझ गई है जबकि पंजाब में उसके लिये वजूद बचाने की चुनौती है. राजनीतिक दलों के लिये चुनावी हार-जीत एक सिलसिला है और समय के साथ उनके ग्राफ में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. लेकिन, भाजपा का संकट गहरा है.

हिन्दूवाद की खोल में कारपोरेट राज के लिये बैटिंग करती भाजपा ने बीते सात-साढ़े सात वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था की जितनी बुरी गत की है, अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखने के लिये उसे धार्मिक विभाजन की राह पर और अधिक निर्लज्ज हो कर आगे बढ़ना ही पड़ेगा. इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में अमित शाह और योगी आदित्यनाथ ने बेरोजगारी, महंगाई आदि जलते सवालों से मुंह चुरा कर हिन्दू-मुसलमान के मुद्दों को उछालने की ही हर संभव कोशिशें की.

दिलचस्प यह भी है कि यूपी चुनावों की बिसात पर भाजपा में ‘पोस्ट मोदी लीडरशिप’ पर काबिज होने के लिये भी जितनी चालें चली जा रही हैं, अमित शाह और योगी ही इसके दो प्रमुख किरदार हैं. राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी आदि के रहते भी उत्तराधिकार के लिये योगी-शाह का द्वंद्व बता रहा है कि भविष्य की भाजपा जमीनी सच्चाइयों से कितनी दूर, धार्मिक विभाजन के किस गहरे दलदल में देश को धकेलने के लिये तैयार हो रही है.

नरेंद्र मोदी जिस बात को सीधे बोलने में संकोच करेंगे, शब्दों की बाजीगरी से बातों में जहर भरेंगे, उसे अमित शाह अपेक्षाकृत अधिक खुल कर बोल सकते हैं, जबकि योगी आदित्यनाथ को तो इन सब बातों के अलावा बाकी कुछ बोलने के लिये है ही नहीं.

अटल बिहारी वाजपेयी से वाया आडवाणी, नरेंद्र मोदी तक की भाजपा की राजनीतिक यात्रा में जिस तरह अनुदारता और कट्टरता के भाव गहराते गए हैं, ‘पोस्ट मोदी भाजपा’ के लिये और कोई रास्ता बचता भी नहीं. देश का चाहे जो हाल हो, भविष्य की भाजपा योगी और शाह के द्वंद्व से निकले निष्कर्ष के हवाले ही होने वाली है.

140 करोड़ की विशाल जनसंख्या वाले निर्धन और समस्याग्रस्त देश के राजनीतिक शीर्ष पर कभी अमित शाह या योगी आदित्यनाथ जैसा नेता भी स्थापित हो सकता है, यह कल्पना भी विचारवान लोगों के मन को सिहरा देने वाली है. किन्तु, राजनीति जैसे-जैसे विचारों से दूर होती जाती है, वह मतदाताओं की राजनीतिक समझ को उसी अनुपात में विकृत करती जाती है. नरेंद्र मोदी के राजनीतिक उभार के साथ इस विकृति के बढ़ते जाने का उदाहरण हमारे सामने है.

विश्लेषकों के एक बड़े तबके का मानना है कि 2017 में प्रचंड जीत के बाद यूपी के सत्ता शीर्ष पर अचानक से योगी की ताजपोशी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भावी राजनीतिक सोच का संकेत है. इससे यह संदेश गया कि नरेंद्र मोदी के बाद संघ योगी को राष्ट्रीय राजनीति में आगे कर सकता है. बीते कुछ महीने पहले मोदी-शाह की अति शक्तिशाली जोड़ी के साथ राजनीतिक द्वंद्व में योगी का जो आत्मविश्वास नजर आया, उसके तार संघ में उनकी बढ़ती स्वीकार्यता से भी जुड़ते हैं.

अपनी स्थापना के सौ वर्षों के बाद और इस दौरान ऐतिहासिक उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भविष्य की योजनाओं में अगर योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं की प्रासंगिकता ही बढ़ती जा रही है, तो यह संघ के लिये चाहे जो साबित हो, देश के लिये दुर्भाग्य के सिवा कुछ और साबित नहीं हो सकता. ऐसा ही कुछ अमित शाह के साथ भी है.

नरेंद्र मोदी का दौर बीतते-बीतते शीर्ष पद के लिये शाह और योगी जैसों के बीच का द्वंद्व संघ और भाजपा के वैचारिक दिवालियेपन का प्रतीक तो है ही, उसकी उस विकल्पहीनता का भी प्रतीक है, जो देश को बहुत भारी पड़ सकती है.

कल्पना करें, किसी संसदीय चुनाव के पहले किसी प्रमुख दावेदार राजनीतिक दल का शीर्ष नेता यह बयान दे, ‘यह 80 और 20 प्रतिशत की लड़ाई है,’ तो यह कितना ग़लीज़ किस्म का माहौल निर्मित करेगा ? राजनीति को वैचारिक पतन के किस गर्त्त में ले जाने वाला साबित होगा ??? लेकिन, भाजपा जिस राह बढ़ती नजर आ रही है, सम्भव है, यह लिजलिजी कल्पना भविष्य की विकृत हकीकत में बदल जाए.

क्या देश इस बात के लिये तैयार है कि उसका भावी नेतृत्व योगी या शाह जैसे लोग संभालें ? इसका सीधा उत्तर है, ‘नहीं.’ छद्म सपनों की आड़ में धर्मवाद और कारपोरेटवाद की जुगलबंदी ने नरेंद्र मोदी की राह आसान की तो इसके पीछे भारतीय मध्य वर्ग की बेहतर जीवन की आस की भूमिका सबसे बड़ी थी. मोदी को किसी धार्मिक उन्नायक से अधिक ‘विकास पुरुष’ की छवि के साथ सामने लाया गया जो 21वीं सदी के तेज रफ्तार वक्त के साथ देश को कदम से कदम मिलाने लायक बना सके.

नरेंद्र मोदी की आर्थिक विफलताओं ने अमित शाह और योगी आदित्यनाथ आदि भावी भाजपा नेताओं से यह सुविधा छीन ली है कि वे करोड़ों बेरोजगार नौजवानों को रोजगार के सपने दिखा कर अपने साथ कर सकें, निर्धारित समय में किसानों की आय दोगुनी करने और बेघरों को घर मुहैया करने के वादे कर उनका समर्थन हासिल कर सकें.

भविष्य की भाजपा के नेता के लिये धार्मिक मुद्दों से चिपके रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं जबकि, संकेत आने लगे हैं कि देश का जनमानस अब इन मुद्दों से ऊबने लगा है. बेरोजगारी और महंगाई ऐसे तथ्य हैं जिन्हें कोई चाह कर भी एक सीमा से अधिक नजरअंदाज नहीं कर सकता. हिन्दी पट्टी की धार्मिक भावभूमि पर भी एक कहावत सदियों से कही जाती रही है, ‘भूखे भजन न होय गोपाला.’

अपने दम पर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने में भाजपा को दशकों के राजनीतिक सफर से गुजरना पड़ा, लेकिन शीर्ष से उतर कर राजनीति की तलहटी में कहीं भूलुंठित नजर आने में उसे महज कुछ वर्ष ही लगने वाले हैं. चाहे नेतृत्व की माला शाह के गले में डाली जाए या योगी के या इस टाइप के किसी भी अन्य नेता के.

भारत की राजनीति में रोजगार और अन्य आर्थिक मुद्दों की उपेक्षा कर भावनात्मक उबाल पैदा करते हुए अपनी रोटी सेंकने का दौर खत्म हो रहा है. युवाओं की बढ़ती बेचैनी परिदृश्य के बदलने का संकेत दे रही है. बेचैनियां तो मध्य वर्ग में भी नजर आ रही हैं जो सरकार की आर्थिक विफलताओं और बेहिंसाब बढ़ते टैक्सों से हलकान हैं.

एक और तथ्य यह स्थापित हो रहा है कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ का उबाल पैदा करने के साथ-साथ आप ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के भी दांव-पेंच अधिक समय तक नहीं खेल सकते. इस देश के दलित-पिछड़े अब इतने भी भोले नहीं रहे कि हिंदुत्व के खोल में छिपे वर्चस्ववाद को पहचान नहीं सकें.

भाजपा का शीराज़ा बिखर रहा है और समय आ रहा है कि इस बिखराव को खुली आंखों से देखा जा सकेगा. लोकतंत्र में विकल्पहीनता महज एक थोपा हुआ मिथक होता है. विकल्प नेता नहीं, विचार देंगे. वही विचार, जिनकी ऐसी की तैसी करते हुए भाजपा ने मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को विचारहीनता के दलदल में धकेल दिया था.

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