प्रियदर्शन
लेखक और मनोविज्ञान विशेषज्ञ विनय कुमार जी ने जानना चाहा कि कविताओं पर तो बहुत सी कविताएं लिखी गई हैं, लेकिन कहानी और लेखक के रिश्ते पर कौन सी कहानियां लिखी गई हैं. मुझे याद आया, मेरी कहानी कुछ बरस पहले ‘आजकल’ में आई थी. वह कहानी साझा कर रहा हूं.
एक दिन कहानी ने पलटकर कहानीकार को घेर लिया- ‘तुम मेरा कवच की तरह इस्तेमाल करते हो.’
हैरान कहानीकार ने पूछा, ‘कैसे ? मैं तो तुम्हारा निर्माता हूं. अपनी भावनाओं से तुम्हारा निर्माण करता हूं. तुम मेरी संतान हो, मेरी आत्मा के रेशे तुम्हारे भीतर हैं.’
कहानी ठठा कर हंसी- ‘झूठ ! मैं सिर्फ़ तुम्हारी नाकामियों का दर्पण हूं.’
कहानीकार उदास हुआ, ‘ठीक है, मैं जैसी कहानियां लिखना चाहता था, वैसी लिख नहीं पाया. लेकिन मेरा सबसे ईमानदार रूप तुम्हारे भीतर है. मेरी सबसे ख़ूबसूरत कल्पनाओं का मूर्त रूप हो. तुम मेरे सबसे गहरे अनुभवों का निचोड़ हो.’
कहानी कुछ देर के लिए गंभीर हुई- ‘वाकई तुम मुझे इतनी गंभीरता से लेते हो ?’
कहानीकार ने भरोसे के साथ सिर हिलाया- ‘बिल्कुल. तुम्हें रचते हुए मैं कई बार आंसू बहाता हूं. कई बार तुम्हीं मेरा रुख़ मोड़ देती हो. जो लिखना चाहता हूं, उससे अलग लिख जाता हूं. तुम तो दरअसल मेरा पूरा जीवन हो, तुम्हारे भीतर मेरे सारे रिश्ते-नाते बसे हुए हैं.’
कहानी कुछ देर चुपचाप सोचती रही. वह कुछ उदास सी हो गई.
उसने कहा, ‘इस पर यकीन करना चाहती हूं, लेकिन कर नहीं पाती. कई बार मुझे लगता है, मुझे तुमने अपनी हताशाओं का घर बना रखा है. तुम मेरे निर्माता हो, लेकिन तुमने कभी मेरे साथ न्याय नहीं किया.
कहानीकार चुप रहा. वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे. यह भी समझ नहीं पा रहा था कि कहानी ही पलट कर उससे सवाल कैसे करने लगी. एक लम्हे को उसे खयाल आया- वह कहानी को नष्ट कर दे. वे पन्ने ही चिंदी-चिंदी कर फेंक दे जिन पर यह कहानी लिखी जा रही है. इससे सारे सवाल ख़त्म हो जाएंगे. लेकिन उसे यह बहुत असुविधाजनक स्थिति लग रही थी.
लेकिन उसे नहीं मालूम था कि कहानी उसके दिमाग़ के भीतर भी घुसी हुई है. वह हंसी- तो तुम मेरी हत्या ही कर देना चाहते हो. यह तुम्हारा पुराना तरीक़ा है. ज़िंदगी से भागते हो, कहानी में दाखिल हो जाते हो. अब कहानी से भी भाग रहे हो. कहां-कहां भागोगे तुम ? और मुझे मार कर क्या तुम बचे रह जाओगे ?’
कहानीकार सोचने लगा- उसे लगा कि कहानी कुछ ज़्यादा ही भोली है. उसे पता ही नहीं, उसने कितनी कहानियों की हत्या की है. वह कुटिलता से मुस्कुरा रहा था.
लेकिन कहानी ने इस बात को भी समझ लिया- तुम क्या सोच रहे हो. मैं नहीं समझ रही ? तुमने बहुत सारी कहानियों की हत्या भी की है. जो कहानियां तुम लिख नहीं सके, उन्हें तुमने हमेशा-हमेशा के लिए दफ़न कर दिया. तुम्हें सुविधाजनक सच्चाइयां चाहिए- वैसी जिनसे तुम आंख मिला सको, वैसी जिनके आईने में तुम ख़ुद को पाक-साफ़ महसूस कर सको, वैसी जिनको लिखकर तुम अपनी ज़िंदगी का पश्चाताप करने की सोचते हो.’
कहानीकार सकपकाया हुआ था. यह कहानी उसके कितने भीतर धंसी हुई है ? उसकी कितनी सारी कहानियों से परिचित है ? किस अंधेरे में छुपी थी जो अचानक निकल आई है ?
लेकिन वह उस पर कुछ ज़्यादा ही इल्ज़ाम मढ़ रही है. जो कहानियां उसने लिखी हैं, वह सच्चे दिल से लिखी हैं. जो नहीं लिख पाया, उनके संकट कुछ और भी थे. यह तो कुछ ऐसा हो रहा है जैसे कहानी ही नए सिरे से लेखक को लिख रही हो
‘नहीं, मैं तुम्हें नए सिरे से लिख नहीं रही.’
जैसे किसी गहरे कुएं से आई कहानी की इस आवाज़ ने उसे फिर चौंका दिया. वह कह रही थी- ‘जो तुम असल में हो, तुम्हें उसकी याद दिला रही हूं.’
कथाकार सोचने लगा, वह असल में क्या है ? क्या वह कुछ है भी ? या वह किसी और द्वारा लिखी जा रही एक कहानी भर है ? कौन उसे लिख रहा है ? उसके कितने रूप हैं ? यह कहानी उससे कहना क्या चाहती है ? कहानियां उससे कैसे कुछ कह सकती हैं ? वे तो बेजान होती हैं ?
लेकिन कहानी साबित करने पर तुली थी कि वह बेजान नहीं है. बल्कि उसमें सिर्फ़ जान ही नहीं, वह तीक्ष्ण संवेदन भी है जिसके सहारे वह कथाकार के बिल्कुल अंधेरे कोनों को देख ले रही है. बल्कि वह उसका ईश्वर होने पर तुली थी.
अब कहानी की आवाज़ कुछ सहानुभूति से भरी थी- ‘ठीक से अपने-आप को देखो तुम. तुमने क्या लिखा है ?’
‘वही, जो जीवन में घटा है.’ उसने जल्दी से जवाब देना चाहा.
‘नहीं, जो जीवन में घटा है, उससे तुमने डायरी बनाई. उसमें भी कुछ कहानी मिला दी. तुमने दरअसल वह लिखा जो जीवन में घटा ही नहीं.’
‘यानी ?’
‘यानी, जीवन में जो प्रेम तुम कर नहीं पाए, वह तुमने कहानी में किया. जिस रिश्ते का निर्वाह जीवन में तुमसे संभव नहीं हुआ, उसे तुमने कहानी में जिया. सड़क पर जिस ग़रीब की तुमने घोर उपेक्षा की, कहानी में उसका सम्मान किया.’
‘नहीं, ऐसी नकली कहानियां मैंने नहीं लिखीं. जीवन में भी मैंने प्रेम किया, रिश्तों का निर्वाह किया, गरीबों की फ़िक्र की, और इसी फ़िक्र के बीच से कहानी बनाई- ताकि दूसरों को भी यह चीज़ छू सके, उनके जीवन को भी कुछ बदल सके.’
इस बार कहानी ज़ोर से हंसी- ‘यह नई कहानी किसको सुना रहे हो तुम ? अपनी लिखी एक-एक कहानी याद करो तुम. याद करो कि पाठकों से छल करने से पहले अपने-आप से छल करते रहे हो तुम.’
कथाकार का गला सूखने लगा था. उसे लग रहा था कि उसके विरुद्ध उसकी ही कहानी कोई मुक़दमा चला रही है. अचानक यह कहां से चली आई ? इतनी जिरह क्यों कर रही है ?
‘क्योंकि तुम अपने-आप से जिरह नहीं कर रहे. अगर कर भी रहे हो तो कहानी में. यानी मेरे भीतर. तुम याद करो, तुमने कब अपने-आप को कठघरे में खड़ा किया है ?’
‘लेकिन मैं क्यों करूं ? मैं तो बस कहानीकार हूं. और ज़रूरी नहीं कि हमेशा अपनी कहानी लिखूं. कहानीकार का जीवन उसकी कहानी से अलग हो सकता है या नहीं ?’
कहानी मुस्कुराने लगी- ‘इसे कथाकार की चालाकी कहते हैं. कहानी में जिस सच तक पहुंचना चाहते हो, जिस क्षण को छूना चाहते हो, जीवन में वहां तक पहुंचना, उसे छूना क्यों नहीं चाहते ? क्या इसलिए कि कहानी लिखना आसान है और जीवन जीना मुश्किल ?’
कहानीकार झुंझलाने लगा था. उसकी सकपकाहट अब गुस्से में बदल गई थी- ‘तुम उदाहरण देकर बात करो. कब ऐसा हुआ है.’
कहानी वाकई उदाहरण ले आई- ‘बहुत मोटा उदाहरण देती हूं. जनवरी की ठंड में रेड लाइट पर एक छोटे से बच्चे ने तुम्हारी कार के शीशे साफ़ किए थे. लेकिन तुमने उसे पैसे नहीं दिए.’
‘हां, क्योंकि मेरे पर्स में तब पैसे नहीं थे.’ कहानीकार ने हकला कर कहा.
‘झूठ बोलते हो तुम’- कहानी ने गुस्से में कहा- ‘तुम्हारे पास पैसे थे लेकिन सौ के नोट थे, दस-दस के नहीं. तुम्हें लगा कि सौ रुपये देना बहुत ज़्यादा है, दस होते तो तो तुम दे देते.’
कथाकार ने ख़ुद को बचाने की कोशिश की- ‘हां, यह सच है कि सौ रुपये बहुत ज़्यादा नहीं थे ?’
‘इसलिए तुम उसके 10 रुपये भी मार लोगे ? अंततः उस ग़रीब को तुमने पैसे नहीं दिए. यह तो सोचो कि तुम्हारे लिए 100 रुपयों की जो क़ीमत थी, उस गरीब बच्चे के लिए दस रुपये उनसे कहीं ज़्यादा बहुमूल्य थे.’
अब कथाकार बिल्कुल सफ़ाई की मुद्रा में था- ‘मैं सौ रुपये देने की सोच रहा था, लेकिन तब तक लाइट ग्रीन हो गई थी. मैंने पर्स में हाथ डाला भी था लेकिन फिर पीछे बज रहे हॉर्न की वजह से मुझे गाड़ी बढ़ा देनी पड़ी.’
लेकिन कहानी इस सफ़ाई से संतुष्ट नहीं थी- क्या यह सच नहीं है कि तुम्हें उस हॉर्न के बजने से राहत ही मिली थी. तुम मन ही मन चाह रहे थे कि यह रेड लाइट जल्दी ख़त्म हो ? और अगर तुम सौ रुपये देने को तैयार ही थे तो उस बच्चे के लिए नहीं, अपने गुनाह के एहसास से बचने के लिए ? तुमसे अपना ही पाखंड झेला ही नहीं जा रहा था ?’
‘यह सब मैंने कहानी में लिखा है’- कथाकार अब भी हार मानने को तैयार नहीं था- ‘तुम कोई ऐसी बात नहीं कह रही जो मैंने न लिखा हो.’
‘वही तो, कहानी में तुमने यह भी लिख दिया कि दो किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद तुम लौट कर आए थे, लेकिन वह बच्चा तुम्हें मिला नहीं. तो तुमने एक दूसरी औरत को सौ रुपये देकर अपने-आप को ग्लानि से मुक्त किया.’
कहानी की आवाज़ में अब कुछ तकलीफ़ भी चली आई थी- ‘लेकिन जो कहानी में किया उसे जीवन में क्यों नहीं किया ? अगर तुम वाकई दो किलोमीटर दूर से लौट आते, वाकई उस लड़के को या किसी और को 100 रुपये दे देते तो क्या वह कहानी लिखने से ज़्यादा बेहतर न होता ? मान लो, वह लड़का न मिलता, उसकी जगह कोई और सच्चाई मिलती, तब भी क्या तुम्हारी कहानी अच्छी नहीं होती ? नहीं भी होती तो क्या वह ज़्यादा संतोषजनक स्थिति न होती.’
कहानीकार चुप था. उसे वे और भी स्थितियां याद आ रही थीं जिनमें अपने पलायन को उसने कहानी में इस्तेमाल किया था. जीवन की क्षतिपूर्ति कथा में ? वह ख़ुद से पूछ रहा था.
लेकिन कहानी पूछ नहीं रही थी, बता रही थी- ‘सच तो यह है कि जो असली कहानियां होती हैं, उनसे तुम भागते रहते हो. उनको लिखना नहीं चाहते. क्योंकि उनसे उबकाई आती है. ख़ुद आत्महत्या कर लेने की इच्छा पैदा होती है. अपने-आप से आंख मिलाना मुश्किल होता है.’
कहानीकार के लिए वाकई इस कहानी से आंख मिलाना मुश्किल हो रहा था. उसे लग रहा था कि वह लेखक नहीं, एक डरावनी सी कहानी का भागता हुआ किरदार है लेकिन यह डरावनी कहानी क्या है ?
‘यह ज़िंदगी है.’ कहानी उसके भीतर उठे सवाल का जवाब दे रही थी. ‘वह बाहर से बहुत चमक-दमक से भरी है, लेकिन उसके भीतर बहुत सारी कालिमा है. घरों में जैसे होता है न ? भीतर-भीतर एक नाली होती है जो किसी गटर में मिलती है और घर की सारी गंदगी बाहर निकालती है.’
‘लेकिन हम लोगों को गटर नहीं, ड्राइंग रूम ही दिखाते हैं.’ कथाकार ने अपने ढंग से एक दलील खोजने की कोशिश की. गटर है, लेकिन वह घर नहीं है. घर गटर से नहीं, दूसरी चीज़ों से बनता है.’
कहानी हंसने लगी- ‘यही तुम्हारे लेखक होने का राज़ है. तुम सच को अपनी तरह से मोड़ना जानते हो. गटर हर कहीं है. तुम्हारे भीतर भी. बहुत सारे गटर जीवन के सड़ रहे हैं. क्योंकि उनकी गंदगी निकलने की राह पर हमने बहुत सारे पत्थर रख दिए हैं. वहां बहुत सारा इत्र छिड़क दिया है क्योंकि उसकी बदबू हम तक न आए. कहानी में भी तुम यही कर रहे हो. गटर को छुपा रहे हो.’
कथाकार को बात कुछ उलझती लग रही थी. उसने पूछा, क्या करूं, ‘लिखना बंद कर दूं कहानी ?’
कहानी फिर हंसने लगी- ‘यह सबसे मुफ़ीद है तुम्हारे लिए, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. न रहेगी कहानी न करेगी शिकायत.’
कथाकार का धीरज अब जवाब दे रहा था- ‘तुम्हारे इतने सारे उलाहने सुन कर कोई बात समझ में नहीं आई.’
कहानी ने कहा- ‘यह उलाहना नहीं है. बस याद दिलाने की कोशिश है कि जो कहानी तुम लिख रहे हो, वह नकली है. असली कहानियां तुमने छुपा रखी हैं. वे कहानियां शायद तुम कभी लिख नहीं सकोगे. लेकिन जो भी लिखो- याद रखना, उसमें तुम भी दिखते हो. कहानी कहने को झूठ होती है, लेकिन वह असल में सच होती है और जितना कथा के बारे में नहीं बताती, उतना कहने वाले के बारे में बताती है.’
कथाकार सुनता रहा. सोचता रहा कि क्या वह लिख पाएगा वैसी कहानी, जैसी लिखी जानी चाहिए ? उसे उम्मीद थी कि कहानी कोई जवाब देगी. मगर कोई जवाब नहीं आया. कहानी ने तय कर लिया था कि वह अपने कहानीकार की ही कहानी लिख देगी. उसे मालूम था कि कहानीकार ही कहानियां नहीं लिखता, कहानियां भी अपने कथाकार को रचती हैं. यह हमेशा से होता आया है. कथाकार इस मुगालते में होता है कि वह ईश्वर है और अपनी दुनिया बना रहा है. जैसे ईश्वर इस मुगालते में होता है कि वह है और यह दुनिया उसकी बनाई हुई है और उसके इशारों पर चल रही है. लेकिन जैसे ईश्वर को पता नहीं होता कि दरअसल दुनिया भी उसे बना रही होती है, वैसे कथाकार को पता नहीं चलता कि कहानी भी उसे रच रही है.
लेकिन इस कहानी को कुछ अलग से खयाल आ रहे थे. उसने तय किया कि वह अपने कथाकार को रचने नहीं, तोड़ने का काम करेगी. वह उसका निर्माण नहीं, ध्वंस चाहती थी. वह महसूस करती थी कि उसका रचयिता न उसके प्रति ईमानदार है और न अपने प्रति- उस दुनिया के प्रति तो कतई नहीं जिसे वह रोज़ बचाने और बदलने की कसम खाता है.
ऐसा नहीं कि यह कहानी बहुत समझदार थी. लेकिन वह संवेदनशील थी और इस नाते दु:खी थी. दु:खी इस बात से थी कि लिखने को इतना कुछ है और लिखा उससे भी ज़्यादा जा रहा है, लेकिन वह नहीं लिखा जा रहा है जो लिखा जाना चाहिए, या जो सच है. उसे मालूम था कि उसके कथाकार के दिमाग में भयावह कुरूपताएं हैं, ऐसी डरावनी अश्लीलताएं हैं कि उसके आगे सारी कहानियां पानी भरें, लेकिन यह कथाकार के दिमाग का वह आलमीरा था जिसे वह अपने साहित्य में नहीं खोलता था.
तो कहानी ने तय किया कि वह इसी आलमीरे को खोलेगी. लेकिन इसके लिए भी उसे कथाकार की मदद लेनी थी. उधर कथाकार परेशान था कि उसकी कहानी उसके हाथ से निकल गई है, उसी से पलट कर सवाल पूछ रही है. कथाकार अपने तई ज़िंदगी को बहुत गहराई से देखता था. वह चाहता था कि यह ज़िंदगी अपनी पूरी मार्मिकता में कहानी में दर्ज हो. यह अनायास नहीं था कि उसके किरदार अंत में या तो पागल हो जाते थे, या आत्महत्या कर लेते थे. कभी-कभी उनकी हत्या भी हो जाती थी.
लेकिन वे किरदार थे. लेखक उनका लिबास पहन कर उनकी आत्मा में दाख़िल होने की कोशिश करता था. जबकि कहानी ज़िद कर रही थी कि वह किरदार न रचे, ख़ुद को रचे.
क्या यह इतना आसान है ? क्या वह अपनी कहानी की बात मान ले ? वह मेज़ पर झुका बैठा था. याद कर रहा था कि उसके जीवन में कितनी कहानियां अनलिखी रह गईं. उसके हाथ कांप रहे थे. उसने धीरे-धीरे लिखना शुरू किया. फिर जो लिखा था, उसे काट कर फेंक दिया. उसे समझ में आ रहा था कि कहानी ने उसे बड़ी मुश्किल में डाल दिया है. जो कहानी वह लिखने जा रहा है, वह उसके जीवन के साथ ही ख़त्म होगी.
पहली बार उसे कहानी की ताक़त मालूम हो रही थी. कहानी ने जैसे अपना शिकंजा उसकी गर्दन के आसपास कस दिया था- या तो सांस निकले या कहानी निकले. उसे दिल में हल्का सा दर्द महसूस हो रहा था. यह दर्द तीखा और तेज़ होता जा रहा था.
सुबह लोगों ने देखा- लेखक अपनी मेज़ पर झुका बैठा है. उसकी कलम उसके हाथ में फंसी है. उसका कागज़ ख़ाली है. उसकी सांस बंद है.
कहानी ने अपने लेखक को नष्ट कर दिया था- वह किसी शून्य में विचर रही थी- मायूस कि अब उसे कौन लिखेगा. वह भी दरअसल अपने लेखक के साथ मर गई थी.
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