सारांश : भाजपा का एजेंडा कॉर्पोरेट शोषण को बढ़ावा देना और सनातन धर्म में निहित दमनकारी हिंसा को कायम रखना है. ये सभी नीतियां संचयी रूप से, पुरानी असमानताओं को जारी रखते हुए, असमानता के नए रूपों को भी बढ़ावा दे रही हैं. भाजपा अच्छी तरह से जानती है कि माओवादी आंदोलन के पास जीवन के उन्हीं क्षेत्रों में विकल्प बनाने की क्षमता, दृष्टि और पहल है, जहां से भगवा पार्टी कॉर्पोरेट राज और हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहती है. इसलिए, पहला कदम इस देश को “माओवाद मुक्त भारत” बनाना है, तभी इसे कॉरपोरेट भारत में तब्दील किया जा सकता है.
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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की कि माओवाद मुक्त भारत का सपना सच हो रहा है. उनका यह घृणित बयान 21 जनवरी को छत्तीसगढ़ और ओडिशा की सीमा से लगे गरियाबंद के गहरे जंगलों में एक शीर्ष माओवादी नेता – सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति के सदस्य – चलपति और उनके 13 साथियों की हत्या के बाद आया है.
उनका उत्साह स्पष्ट है: उन्होंने कहा कि देश में माओवादी आंदोलन ‘अपनी आखिरी सांस पर है.’ ये बयान माओवादी आंदोलन और भारत सरकार के बीच चल रहे राजनीतिक, आर्थिक, वैचारिक और सांस्कृतिक संघर्ष को दर्शाते हैं. बढ़ती मुठभेड़ की घटनाएं, माओवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की बढ़ती संख्या और ऐसी हर घटना में लोगों की निर्मम हत्या मध्य भारतीय जंगलों में इस तीव्र सशस्त्र युद्ध की अभिव्यक्तियां हैं.
भले ही राज्यों में किसी भी पार्टी की सत्ता हो, केंद्र सरकार ने माओवादी आंदोलन को दबाने का बीड़ा उठाया है. इससे पहले जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार थी, तब केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने मिलकर आदिवासी इलाकों पर हवाई हमले किये थे. उन्होंने रॉकेट और ड्रोन का उपयोग करके आदिवासी गांवों को तबाह कर दिया. जिन सशस्त्र बलों को देश की सीमाओं पर तैनात माना जाता है, वे छत्तीसगढ़ के बस्तर के जंगलों में पहुंच गए.
क्रांतिकारियों की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए उन्नत तकनीक का उपयोग करते हुए सुरक्षाकर्मियों ने पिछले दशक में हजारों क्रांतिकारियों को घेर लिया और मार डाला. यह चरण-अर्थात् ऑपरेशन कागार (अंतिम ऑपरेशन)-जब राज्य में भाजपा सत्ता में आई तो और तेज हो गई और युद्ध और भी भयावह हो गया.
कॉर्पोरेट वर्ग की सेवा करना
सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे संवैधानिक रूप से कार्य करें और लोगों के कल्याण का ध्यान रखें. हालांकि, भारतीय राज्य, जो लालची कॉर्पोरेट पूंजी के साथ मिला हुआ है, केवल कॉर्पोरेट वर्ग के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हितों की सेवा कर रहा है, जो संसाधनों और मानव श्रम पर अधिकार रखता है.
जंगल, खदानें, समुद्र तट, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम और लोगों की संपत्ति अडानी और अंबानी जैसे निगमों को सौंप दी जाती है. ये शासन नीतियां, कानून और सैन्य कार्रवाइयां केवल कॉर्पोरेट राज्य के हितों को लागू करती हैं. राज्य का मूल उद्देश्य साम्राज्यवादी हितों के साथ रूढ़िवादिता को मिलाकर इस व्यवस्था को बनाए रखना है.
भाजपा का एजेंडा कॉर्पोरेट शोषण को बढ़ावा देना और सनातन धर्म में निहित दमनकारी हिंसा को कायम रखना है. ये सभी नीतियां संचयी रूप से, पुरानी असमानताओं को जारी रखते हुए, असमानता के नए रूपों को भी बढ़ावा दे रही हैं.
भारतीय राज्य माओवादी आंदोलन के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है. जबकि फासीवाद सभी लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति घृणा रखता है, माओवादी आंदोलन की उग्रता, बलिदान की भावना, व्यापक विश्वदृष्टि और मानव जीवन के पुनर्निर्माण की दीर्घकालिक दृष्टि इसके बिल्कुल विपरीत है, जिससे इसका हमला तेज हो गया है.
क्रांतिकारी आंदोलन ने सभी संसदीय दलों को उथल-पुथल में डालने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है. माओवादी आंदोलन ही एकमात्र ऐसी ताकत है जिस पर फासीवादी पूरी तरह से काबू पाने में असमर्थ हैं. आंदोलन की ताकत उसके विश्वदृष्टिकोण और विचारधारा में निहित है.
माओवादियों का राजनीतिक कार्यक्रम कई मुद्दों पर विविध संघर्षों को जन्म देने के लिए प्रेरित करता है, प्रतिरोध की विविध धाराओं को बढ़ावा देता है और उन्हें प्रतिरोध की सहानुभूति प्रदान करता है. संक्षेप में, संवैधानिक ढांचे के भीतर और बाहर लोगों के आंदोलन निगमीकरण के लिए अद्वितीय बाधाओं के रूप में उभरे हैं. ये आंदोलन रुढ़िवादी विचारधाराओं का विरोध करते हुए तर्कसंगत चर्चा में योगदान दे रहे हैं.
फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष
क्रांतिकारी आंदोलन के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नेतृत्व और प्रभाव के तहत, लोगों के संघर्ष फासीवाद की नींव पर प्रहार कर रहे हैं. जब तक माओवादी आंदोलन एक शक्तिशाली राजनीतिक और वैचारिक शक्ति बना रहेगा, शासन के लिए इस देश को कॉर्पोरेट भारत में बदलना एक कठिन कार्य रहेगा.
भाजपा अच्छी तरह से जानती है कि माओवादी आंदोलन के पास जीवन के उन्हीं क्षेत्रों में विकल्प बनाने की क्षमता, दृष्टि और पहल है, जहां से भगवा पार्टी कॉरपोरेट राज और हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना चाहती है. इसलिए, पहला कदम इस देश को ‘माओवाद मुक्त भारत’ बनाना है, तभी इसे कॉरपोरेट भारत में तब्दील किया जा सकता है. इन दोनों कार्यों के लिए पिछले पांच-छह वर्षों से गहन प्रयास चल रहे हैं.
उनका दावा है कि मार्च 2026 तक वे माओवादी आंदोलन को खत्म कर देंगे. माओवादी आंदोलन के खतरे से अपनी दीर्घकालिक रणनीति को सुरक्षित रखने के इरादे से, राज्य ने देश को गृहयुद्ध में धकेल दिया है. एक बार माओवादी आंदोलन समाप्त हो जाए, तो राज्य मानता है कि प्रतिरोध के अन्य रूपों को दबाना आसान काम होगा.
राज्य न केवल क्रांतिकारियों को भौतिक रूप से समाप्त कर रहा है, बल्कि माओवादी आंदोलन को जड़ से उखाड़ने के लिए इसके चारों ओर एक वैचारिक कथा भी तैयार कर रहा है. अमित शाह जानते हैं कि उनका एकमात्र दावा कि माओवादी आंदोलन अपनी ‘अंतिम सांस’ पर है, इच्छित प्रभाव पैदा नहीं कर सकता. यह आख्यान समग्र रूप से समाज में व्याप्त होना चाहिए. इस तरह की कहानियों को बुनने का उद्देश्य लोगों पर थोपे गए फासीवादी और प्रतिक्रियावादी गृहयुद्ध के वास्तविक उद्देश्यों को दबाना और कॉर्पोरेट एकाधिकार को मजबूत करना है.
राज्य अपने वास्तविक इरादों से भटकाने के लिए क्रांतिकारी आंदोलन की गलतियों को खंगालने का बौद्धिक माहौल तैयार कर रहा है. उन्हें सभी और विविध लोगों को यह बोलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि क्रांति जारी रखना अब आगे बढ़ाने लायक नहीं रह गया है. यह विश्वास पैदा करने के लिए निराशा की एक कहानी फैलाई जानी चाहिए कि क्रांति अब व्यवहार्य नहीं है.
‘माओवादी-मुक्त भारत’ का मतलब केवल सभी माओवादियों को मारना नहीं है; इसका मतलब ऐसी मानसिकता को आकार देना भी है जो समाज को यह विश्वास दिलाए कि मौलिक परिवर्तन असंभव है. उदारवादियों, पहचान आंदोलनों की उत्पीड़ित ताकतों और अन्य क्रांतिकारी संगठनों को इस पर विचार करना चाहिए कि यह विचार कितना भयावह है.
क्या माओवादी पार्टी को एक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में कभी ख़त्म किया जा सकता है ? पिछले साढ़े पांच दशकों में इस आंदोलन ने हर जगह इसी तरह का दमन देखा है. इसने कई महत्वपूर्ण चरणों को पार किया है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लोगों ने सोचा कि आंदोलन समाप्त हो गया है जब दर्जनों प्रमुख नेता और सैकड़ों दूसरे और तीसरे स्तर के नेता मारे गए. कई लोगों की मृत्यु बीमारी या बुढ़ापे के कारण हुई है. कई अन्य लोग आधे रास्ते से ही चले गए हैं.
इन सभी उथल-पुथल के बीच, क्रांतिकारी आंदोलन उस स्तर तक बढ़ गया है जहां यह केंद्र सरकार के लिए एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया है. माओवादी आंदोलन की रणनीतिक ताकत इस तथ्य में निहित है कि मुट्ठी भर शोषकों को छोड़कर देश के 140 करोड़ लोगों के लिए क्रांति एक तत्काल आवश्यकता बन गई है. यह महज आशावाद नहीं है.
जब तक जनता और शासक वर्गों के बीच बुनियादी अंतर्विरोध बने रहते हैं, क्रांतिकारी आंदोलन जनता को एकजुट करने और उन अंतर्विरोधों को संबोधित करने में दृढ़ रहता है. जबकि फासीवादी हिंदुत्व ताकतें समाज को रसातल में धकेलने पर आमादा हैं, क्या ‘माओवादी मुक्त भारत’ कभी संभव होगा ? क्या पूरा होगा अमित शाह का सपना ?
- पानी
(वाराणसी सुब्रमण्यम द्वारा तेलुगु से अनुवादित. ‘पानी’ एक पत्रकार, कवि, लघु-कथा लेखक और उपन्यासकार हैं, जो छत्तीसगढ़ के जंगलों में माओवादियों के वैकल्पिक शासन पर अपनी 2017 की पुस्तक ‘जनता राज्यम’ के लिए प्रसिद्ध हैं. यह आलेख अंग्रेज़ी वेबसाइट counter view से लिया गया है. इसका हिन्दी अनुवाद हमारा है).
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