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पुलवामा वर्षगांठ : क्या चाहिए, तानाशाही का कूड़ेदान या लोकतंत्र की पहरेदारी ?

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पुलवामा वर्षगांठ : क्या चाहिए, तानाशाही का कूड़ेदान या लोकतंत्र की पहरेदारी ?

जब वो सत्तर साल का हिसाब मांगते हैं तो आपके गले बात उतरने लग जाती है. ठीक भी है ! लोकतंत्र है जवाबदेही होनी ही चाहिए लेकिन जब वो तीन साल पहले हुए पुलवामा हमले के सवालों के जवाब नहीं देते, क्या तब भी आपका मन नहीं करता कि पूछे क्यों ?

जब बार–बार इंटेलिजेंस रिपोर्ट होने के बावजूद हमला हो जाता है, तब भी आपका मन नहीं करता कि पूछे क्यों ? जब तमाम खुफिया रिपोर्ट्स के बावजूद पुलवामा में तीन सौ किलो आरडीएक्स पहुंच जाता है, तब भी आपका मन नहीं करता कि पूछे क्यों ?

जब हिजबुल मुजाहिदीन और लश्कर–ए–तैयबा के आतंकियों के साथ डीएसपी देवेंद्र सिंह गिरफ्तार होता है, तब सवाल उठते हैं कि आखिर संसद से लेकर पुलवामा हमले तक इस डीएसपी की भूमिका क्या थी ? क्या तब भी आप का मन यह नहीं कहता कि इन सवालों के जवाब तो देश को जानने ही चाहिए ?

सवाल ढेर सारे हैं ! सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इस देश के प्रधानमंत्री ने हमारे चालीस जवानों की शहादत के नाम पर वोट मांगा था, क्या जवान सीमा पर किसी इस या उस पार्टी की चुनावी जीत के लिए तैनात हैं ? क्या उनकी शहादत चुनाव का मुद्दा भी हो सकती है ? लेकिन हम आप तो तब कतारबद्ध हो कर वोट दे रहे थे मानों देश सिर्फ इस एक प्रधानमंत्री की बदौलत सुरक्षित है !

हम तो आज भी भूल जाते हैं कि चीन हमारे देश के भीतर कहां तक घुस आया है, और हम सवाल करना तो छोड़ यह भी नहीं पूछते कि सैनिक वर्दी पहनने में भी संकोच न करने वाले प्रधानमंत्री देश को सच्चाई क्यों नहीं बताते ?

पर हम ही कौन सा सच जानना चाहते हैं ? हमारी रुचि तो बस इतनी रह गई है कि मोहल्ले में कोई मुसलमान न रहने आ जाए, किसी मुसलमान से सब्जी ना खरीदें, कोई मुसलमान गलती से ट्रेन में हमारा सह यात्री भी न बन जाए.

लोकतंत्र हम–आप पर यह जिम्मेदारी भी सौंपता है कि हम अपने मुंह, आंख, नाक, कान खुले रखें, लेकिन हिंदुस्तान का लोकतंत्र आज खतरे में है क्योंकि हमारे इन अंगों ने काम करना बंद कर दिया है है ! क्योंकि ना हम सुनना चाहते हैं, ना समझना ना महसूस करना और न ही सच देखना.

उन्होंने कहा पुलवामा पर वोट दो, हम लाइन में लग जाते हैं. वो कहते हैं मई–जून में शिमला बना दूंगा, हम लोकतंत्र के कठपुतली से दर्शकों की तरह तालियां बजाते हैं. आज पुलवामा की शहादत को याद करने का दिन है.

प्रधानमंत्री की तरह बस श्रद्धांजलि दे कर मत निकल जाइयेगा. प्रधानमंत्री तो जल्दी में थे. कहीं चुनाव प्रचार करना रहा होगा इसलिए बस श्रद्धांजलि दी और मामला खत्म ! इस बार पुलवामा पर वोट भी मांगते नजर नहीं आए, लेकिन हमको आपको पुलवामा के सवालों को जिंदा रखना चाहिए.

हमको आपको पुलवामा के सवालों को इसलिए जिंदा रखना चाहिए क्योंकि हमें अपने लोकतंत्र को भी जिंदा रखना है. क्योंकि हमें जानने का हक है कि चालीस जवानों की शहादत का जिम्मेदार कौन है, चूक कहां–कहां हुई और साजिश में कौन–कौन शामिल हैं ?

पुलवामा हमारे लिए वोट नहीं देश है. पुलवामा हमारे लिए सरकार नहीं झकझोर देने वाला सवाल है. सत्तर बरसों का हिसाब मांगना ही चाहिए और जिन्हें जवाब देना है वो हौसले के साथ जवाब देने को तैयार हैं, ना दें तो लोकतंत्र के पहरुए आप हैं ही.

पर एक पुलवामा एक बार चुनावी मुद्दा बन कर रह जाए तो समझ लीजिए आप लोकतंत्र की पहरेदारी छोड़ सिर्फ वोट देने वाली कठपुतली हो कर रह गए हैं, जिनकी जरूरत पांच साल में सिर्फ एक बार पड़ेगी. बाकी समय आप किसी तानाशाह के कूड़ेदान में वेब सीरीज का मनोरंजन पाते पड़े रहिए.

आपको तय करना है कि आपकी जगह तानाशाही का कूड़ेदान है या आप लोकतंत्र के पहरेदार का अभिमान चाहते हैं ? देश सीमाओं पर भी तब सुरक्षित रहेगा, जब आप यह तय करेंगे कि आपकी अपनी गलियों में लोकतंत्र सुरक्षित है. सारे सवालों के साथ पुलवामा के शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि.

  • रूचिर गर्ग

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