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तुम जीत गए तो इससे क्या ?

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तुम जीत गए तो इससे क्या ?

तुम जीत गए तो इससे क्या ?

इस देश को उल्टा कर दोगे ?
पब्लिक सेक्टर खा जाओगे ?
जनता की गाढ़ी कमाई को
पूंजीपतियों पे लुटाओगे ?

मंदी के चाबुक मार मार
कारख़ाने बंद कराओगे ?
बाज़ार में सुस्ती लाओगे ?
बेरोज़गारी को बढ़ाओगे ?

तुम जीत गए तो इससे क्या ?
तुम संविधान की लोकतंत्र की
धज्जियां रोज़ उड़ाओगे ?
ताक़त के बल पर अपनी
मनमर्ज़ियों को तुम मनबाओगे ?
जो जायेंगे तेरे ख़िलाफ़
उनके अस्तित्व मिटाओगे ?

जनतंत्री संस्थाओं के मुंह
रुपयों से सिल, उन्हें पक्ष में कर
खुद के स्याह कारनामों पर
उनकी ‘हां’ की मुहर लगबाओगे ?
सदियों तक को बंदूकों के
बल पर तुम गूंगा बनाओगे ?

तुम जीत गए तो इससे क्या ?
पैसे के बल पर परदे में
करके षडयंत्र ख़रीद-फरोख्त
लोगों को दे दे कर झांसे
फेंक फेंक कर शकुनी की तरह
द्रौपदियों पर दुःशासनों को,
छल छद्म कुटिलता के पाशे
जनतंत्र का नाम इसे दोगे ?

तुम जीत गए तो इससे क्या ?
यूनियन बनाने का,हड़ताल का हक़
श्रमिकों से छीनोगे ?
असुरक्षित पूर्ण बना करके
जीते जी मरण उन्हें दोगे ?
झोंकोगे धमन भट्ठियों में
शीवरों मे उनको मारोगे ?
उल्टे उनको कह कामचोर
मुफ्तखोर कह धिक्कारोगे ?
आत्महत्याओं पर किसानों के
कायर कह उन्हें पुकारोगे ?
मरने के बाद भी व्यंग्य चुभन के
नश्तर इनमें उतारोगे ?
जिनके वोटों से जीते तुम
उनसे ही मांगोगे प्रमाण
इस देश के नागरिक होने के ?
हो जांय ताकि वो हलाकान।
तुम भीतरी बाहरी युद्धों में
क्या रखोगे सबको उलझाए ?
कभी इसको कभी उसको दुश्मन
घोषित कर जाओगे लड़वाये
एक अंधी सुरंग में, जिसमें सुरंगें
अंधी होती हैं, न राह,
उसमें भारत को ठेल हमेशा
के लिए कर दोगे तबाह ?

तुम जीत गए तो इससे क्या ?
बाहर सड़कों पर लामबंद
जनता है तुम्हें ललकार रही
तेरे षड़यंत्रों के ख़िलाफ़
तेरे काले मनसूबों से तंग आ करके
वो खून के आंसू है रो रही
हर जख्म सुलगते रक्त बहाते आ हैं रहे
दूसरे जख्मों से मिल हैं रहे
जख्मों का एक समंदर है
नारे हैं या गूंगे अंतस्तल के पुकार

  • वासुकि प्रसाद ‘उन्मत्त’
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