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वह हर कोई भारतीय है जो भारत में रह रहा है

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वह हर कोई भारतीय है जो भारत में रह रहा है

असम में रहने वाले नागरिकों की पहचान का मुद्दा एक बार फिर से गाया गया और देखते ही देखते इसे भारत की चुनावबाज राजनैतिक पार्टियों द्वारा राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया गया. संघियों, भाजपाइयों और टीवी चैनलों के एंकरों को मनमाफिक मुद्दा मिल गया. राष्ट्रवाद के मौसमी बुखार से इन सब का बदन जलने लगा. जैसे तेज बुखार में लोग कुछ भी अनाप-शनाप बोलते हैं, वैसे ही राष्ट्रवाद के बुखार के मारे सारे बोलने लगे.

बुखार की शुरूआत अमित शाह से हुई और फिर पूरी भाजपा-संघ में रोग फैल गया. टीवी एंकरों की कंपकंपी इतनी ज्यादा थी कि पूरा स्टूडियो हिलने लगा. देश के मजदूर-मेहनतकश इस नजारे को देखकर कुछ विस्मित, कुछ चिंतित होने लगे. जिन लोगों के नाम राष्ट्रीय नागरिकता सूची में नहीं शामिल हुये हैं, उनको घुसपैठिया आदि कहकर गाली देने के साथ भाजपा-संघ के लोग उन्हें बांग्लादेश खदेड़ने और यहां तक कि गोली से उड़ाने की बात कहने लगे. 40 लाख लोग राष्ट्रीय नागरिकता सूची में अपना नाम दर्ज नहीं करा सके और ऐसे लोगों में कई जाने-माने व्यक्तियों के अलावा साधारण दरिद्र तक शामिल थे.

40 लाख की संख्या थोड़ी नहीं होती. फ्रांस को फुटबाल के विश्वकप में चुनौती देने वाले क्रोएशिया की आबादी लगभग इतनी ही है. भूटान की आबादी महज 7 लाख है और इतनी बड़ी आबादी को नागरिकताविहीन घोषित करने का अर्थ किसी क्षुद्र राजनैतिक संकट को जन्म देना है. अपने आपको भारत का नागरिक साबित करने में अक्षम लोगों की दर्दभरी कहानियां मीडिया के उन्हीं हिस्सों से सामने आयीं जहां राष्ट्रवाद का बुखार नहीं फैला था. मानवीय जीवन के साथ हमारे समय की त्रासदी ही है कि जो लोग दुःखी, उत्पीड़ित, शोषित हैं, वे खलनायक के रूप में पेश किये जा रहे हैं.




गरीबी, बेरोजगारी से भरे जीवन में, अच्छे भविष्य की तलाश लोगों को दर-दर की ठोकरें खिलाती है और ऐसे लोग पूरी दुनिया में एक जगह से दूसरी जगह सदियों से जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया जैसे आधुनिक देशों में तो आम शोषित-उत्पीड़ित लोग ऐसे ही पहुंचे थे या गुलामों के रूप में लाये गये थे और ऐसे में भारत में आने और बसने का तो बेहद लम्बा इतिहास है. और ऐसे भारतीयों का भी लम्बा इतिहास है, जो दुनियाभर के देशों में बसे हुये हैं. सदियों से भारत में विभिन्न भाषा, बोली बोलने वाले, अलग-अलग नस्लों के लोग आते ही रहे हैं. आर्य, शक, हूण, मंगोल, तुर्क, मुगल, यहूदी, पारसी, मुस्लिम आदि-आदि पहचान के साथ लोग यहां आये. आज के भारत में तो हर पहचान आपस में घुल-मिल गयी है.

आजादी की लड़ाई को याद करने वाला हर भारतीय इस बात को अच्छे ढंग से जानता है कि भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश का बंटवारा लोगों की इच्छा से नहीं धूर्त ब्रिटिश साम्राज्यवादियों, पूंजीपतियों व जमींदारों के घृणित हितों के कारण निर्दयतापूर्वक किया गया था, जो आग ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने 19वीं सदी में (1857 के जनविद्रोह के बाद खासकर) लगायी थी, वह आम मेहनतकशों को आज 21वीं सदी में भी झुलसा रही है. जो धूर्त उस वक्त बंटवारे के लिये जिम्मेदार थे, वे ही आज राष्ट्रवाद के प्रवक्ता बने हुये हैं. सीधी-सी बात है जो चालीस लाख लोग अपने नाम एन.आर.सी. में दर्ज नहीं करा सके हैं, वे भी भारतीय नागरिक हैं. नागरिक पहचान के लिए जो मापदण्ड तय किये गये हैं वे यांत्रिक, नकली, फर्जी व पूर्वाग्रहों से भरे हुये हैं.

24 मार्च, 1971 की मध्य रात्रि से पहले जो भारत में आने को साबित कर सके वह भारत का नागरिक माना जायेगा का फैसला कुछ ऐसा है जैसे कोई तलवार से गंगा की धारा को काटना या बांटना चाहता है. आम मेहनतकश जन गंगा की धारा की तरह हैं जो हिमालय से बंगाल की खाड़ी तक बहती है या वे उन मछलियों की तरह हैं जो गंगा, ब्रह्मपुत्र में राष्ट्र की सीमाओं की परवाह किये बगैर तैरती रहती हैं. वे हवा के मानिन्द है जो इधर से उधर बहती है. ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ आदि भारत की बात या ‘‘दुनिया के मजदूरो एक हो’’ का नारा इसी बात की अभिव्यक्ति है कि दुनिया भर के मजदूर, मेहनतकश एक हैं. फिर कौन है जो दुनिया भर के मजदूर-मेहनतकशों को बांटना, आपस में लड़वाना, चाहते हैं. चंद पूंजीपति और उनके पैसों में पलने वाले राजनेता, नौकरशाह और सैनिक-असैनिक अफसर. और राष्ट्र और राष्ट्रवाद इनके हितों को साधने का एक ऐसा हथियार बन गया है कि जिसकी हर चोट मजदूरों-मेहनतकशों के सीने पर पड़ती है. और इनका राष्ट्र व राष्ट्रवाद कैसा है ?




यह राष्ट्र व राष्ट्रवाद पूंजी के सामने नतमस्तक है. यह राष्ट्रवाद पूंजी को हर तरह की छूट देता है. और विदेशी पूंजी लाने के लिये देश की सरकार व प्रधानमंत्री कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. भारत के प्राकृतिक संसाधनों, सस्ती मजदूरी और विशाल बाजार की लूट के लिए पूंजी को हर छूट हासिल है. राष्ट्रवादी होने का आज मतलब है देश को पूंजी की चरागाह बनाने में आप कितनी मेहनत करते हैं. कितने प्रपंच रचते हैं. और इस राष्ट्र व राष्ट्रवाद में मनुष्य को संदेह व आशंका की निगाह से देखा जाता है. मजदूर-मेहनतकश की पहचान, जीवन, भविष्य सबको हर समय साबित करने की जरूरत है. आधार, एन.आर.सी., पासपोर्ट सब उसके लिए है. पूंजी के लिए कुछ नहीं.

मजदूरों को एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त, एक देश से दूसरे देश जाने पर कदम-कदम पर बंदिश, प्रताड़ना, दमन, जेल का सामना करना पड़ता है और उसे एक मुसीबत, एक घुसपैठिये के रूप में पेश किया जाता है. चाहे वह अमेरिका-कनाडा-यूरोप हो या सउदी अरब-ओमान-कतर हो या फिर भारत हो या फिर भारत का महाराष्ट्र-दिल्ली-असम हो. असम की पहचान, रीति-रिवाज, भाषा, संस्कृति आदि को खतरा बंगाली, बिहारी, मारवाड़ी, पंजाबी से नहीं बल्कि भारत के पूंजीपतियों, नकली राष्ट्रवाद, हिंदू फासीवादियों, बॉलीवुड, हॉलीवुड की फिल्मों व पश्चिमी साम्राज्यवाद से है.

जनता तो बहुत जल्द ही एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति, खान-पान को अपना लेती है और उसी में रच-बस जाती है. ऐसे समय में जब देश में आगामी आम चुनाव सामने हैं, तब यह मुद्दा वोट हासिल करने का घृणित मुद्दा बनाया जा रहा है. अपना आधार खोती भाजपा इस मुद्दे का इस्तेमाल घोर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिये करते हुए सत्ता में वापसी चाहती है. वह पूरे भारत में डर व आतंक का माहौल कायम करना चाहती है. उसके मूर्ख प्रवक्ता कहते हैं पूरे देश में एन.आर.सी. लागू करो.

पर हकीकत यह है कि एन.आर.सी. भारत में 1951 की जनगणना के तुरन्त बाद ही बना दिया गया था. भारत के मजदूर-मेहनतकशों को असम के उन सभी मजदूर-मेहनतकशों के साथ खड़ा होना चाहिये, जो अपनी पहचान के संकट से जूझ रहे हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस भाषा को बोलते हैं, किस धर्म को मानते हैं या किस देश के हैं और कब यहां आये हैं.

(नागरिक अधिकार से प्राप्त)




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