छू लेंगे तुम्हारे कुओं को
तुम्हारे नलों को
तुम्हारी बाल्टियों को हम छू देंगे,
भयहीन और बेपरवाह.
चूंकि हमारा सच लालच विहीन है परन्तु
तुम्हारे लानत-मलामत से हम
आज़िज आ चुके है कि अब
तुम्हारे महलों को तुम्हारी दौलत को
तुम्हारी हर चीज को हम अपवित्र कर देंगे
देखो कि
तुम तब अपवित्र नहीं होते हो जब
पीते हो उस कुएं का पानी
जिसे हम खोदते हैं
सोचो कि
तुम तब अपवित्र नहीं होते हो
जब रहते हो उन महलों में
जिन्हें हम खड़ा करते हैं
समझो कि
जब खाते हो उस अन्न को
जिसे हम उगाते हैं,
तुम तब भी अपवित्र नहीं होते हो जब
जीते हो आराम तलब जिंदगी
हमारी मेहनत की कीमत पर
यह ठीक नहीं है
चेत जाओ कि
तुम तब अपवित्र हो जाते हो
जब हम मांगते हैं अपना हक,
जब हम छू लेते हैं
अपनी ही मेहनत की उपज को,
ऐसे में
तुम्हारा अपवित्र हो जाना जरूरी है,
क्योंकि अपवित्रता में नहीं होते ऊंचे-नीचे छोटे बड़े,
जैसे
अपवित्रता में कोई ग़ैर बराबर नहीं होता,
अतः मुक्ति की तलाश में यही सही होगा कि
हम अपवित्र कर देंगे तुम्हें,
हम अपवित्र कर देंगे तुम्हारी खून से भीगी पवित्रता को,
चूंकि जिस देश दुनिया और समाज का इतिहास
अन्याय दमन शोषण और गैर बराबरी का है
हमने माना है कि उस पूरी दुनिया को
ख़ाक के ठोकरों में रख देंगे
यक़ीनन यह
अपवित्रता लाएगी बराबरी,
तब कोई गैर बराबर नहीं होगा
- अंकित साहिर
कविता अंकित शाहिर की है, जिसे दस्तक ने सीमा आजाद के संपादन में छापा है. यह कविता हमारे समाज के मानकीकरण में एक जोरदार तमाचा की तरह है, जिसमें दलित समुदाय को लेकर हमारी गैर बराबरी सोच व नज़रिए का अतिरेक, अंकित होता है. लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि इस कविता में अंकित साहिर उन्हें ही निशाना बनाए हैं जो समाज में इस जड़ द्वंद को पैदा करते हैं.
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