Home कविताएं हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे

हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे

0 second read
0
0
213

कोई भगवान हो तो मुझे क्या पता
लेकिन इंसान की कुछ और बात है
जो तुमको पता है, वो हमको पता है
यहाँ पर कहाँ बेपता बात है

ये पुल हिल रहा है तो क्यों हिल रहा है
तुमको पता है हमको पता है
सबको पता है कि क्यों हिल रहा है
मगर दोस्तों वो भी इंसान थे
जिनकी छाती पर ये पुल जमाया गया
अब वही लापता है
न तुमको पता है न हमको पता है
न किसी को पता है कि क्यों लापता हैं

तो इस ज़माने में जिनका जमाना है भाई
उन्हीं के जमाने में रहते हैं हम
उन्ही की हैं साँसें उन्ही की हैं कहते,
उन्ही के खातिर दिन रात बहते हैं हम

ये उन्हीं का हुकुम है जो मैं कह रहा हूं
उनके सम्मान में मैं कलम तोड़ दूं
ये उन्हीं का हुकुम है
मेरे लिये और सबके लिये
कि मैं हक छोड़ दूं

तो लोग हक छोड़ दें पर मैं क्यों छोड़ दूं
मैं तो हक की लड़ाई का हमवार हूं
मैं बताऊँ कि मेरी कमर तोड़ दो,
मेरा सर फोड दो
पर ये न कहो कि हक छोड़ दो

तो आप से कह रहा हूं अपनी तरह
अपनी दिक्कत को सबसे जिरह कर रहा
मुझको लगता है कि मैं गुनहगार हूं
क्योंकि रहता हूं मैं कैदियों कि तरह
मुझको लगता है मेरा वतन जेल है
ये वतन छोड़ कर अब कहाँ जाऊँगा

अब कहाँ जाऊँगा जब वतन जेल है
जब सभी कैद हैं तब कहाँ जाऊँगा
मैं तो सब कैदियों से यही कह रहा
आओ उनके हुकुम की उदूली करें
पर सब पूछते हैं कि वो कौन हैं और कहाँ रहता है
मैं बताऊँ कि वो एक जल्लाद है
वो वही है जो कहता है हक छोड़ दो

तुम यहाँ से वहाँ तक कहीं देख लो
गाँव को देख लो शहर को देख लो
अपना घर देख लो अपने को देख लो
इस हक़ की लड़ाई में तुम किस तरफ हो

आपसे कह रहा हूं अपनी तरह
कि मैं तो सताए हुओं की तरफ हूं
और जो भी सताए हुओं की तरफ है
उसको समझता हूं कि अपनी तरफ है
पर उनकी तरफ इसकी उलटी तरफ है
उधर उनकी तरफ आप मत जाइए
जाइए पर अकेले में मत जाइए
ऐसे जायेंगे तो आप फंस जायेंगे

आइये अब हमारी तरफ आइये
आइये इस तरफ की सही राह है
और सही क्या है
हम कौन हैं क्या ये भी नहीं ज्ञात है
हम कमेरों कि भी क्या कोई जात है

हम कमाने का खाने का परचार ले
अपना परचम लिये अपना मेला लिये
आखरी फैसले के लिये जायेंगे
अपनी महफिल लिये अपना डेरा लिये
उधर उस तरफ जालिमों की तरफ

उनसे कहने कि गर्दन झुकाओ, चलो
और गुनाहों को अपने कबूलो चलो
दोस्तों उस घड़ी के लिये अब चलो
और अभी से चलो उस खुशी के लिये
जिनकी खातिर लड़ाई ये छेडी गयी
जो शुरू से अभी तक चली आ रही
और चली जायेगी अन्त से अन्त तक
हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे

  • विद्रोही

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

    कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा …
  • मेरे अंगों की नीलामी

    अब मैं अपनी शरीर के अंगों को बेच रही हूं एक एक कर. मेरी पसलियां तीन रुपयों में. मेरे प्रवा…
  • मेरा देश जल रहा…

    घर-आंगन में आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन. तन जलता है…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…