अंग्रेजों से आजादी के बाद देश को सामंतों से आजादी की जरूरत थी. यह सामंत मुगलों औऱ ब्रिटिशों के कारिंदे थे, उनके मातहत थे. इनके पास भू-संपदा थी. शासन पर पूर्णतः नियंत्रण था. दुनिया के कई देशों में भू-संपदा के बंटवारे के लिए रक्तपात हुआ. तब भारत में भी ऐसा हो सकता था क्योंकि अंग्रेज चले गए थे लेकिन राजव्यवस्था तो बदला नहीं !
कचहरी के पटवारी, थाना के प्रभारी से लेकर प्रशासनिक पदों पर जिस जाति/वर्ग के लोग अंग्रेजों के शासन काल में काबिज थे, उसी जाति के लोग अंग्रेजों से स्वतंत्रता के बाद भी भारत में काबिज रहे. ऐसे में पिछड़े, दलित ठगे महसूस कर रहे थे. आजादी के नाम पर सामाजिक सत्ता का हस्तांतरण ब्राम्हणवादियों के हाथ में हुआ था.
सरदार पटेल के बहुमत के बावजूद पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बनाए गए और द्रविणों के उत्तर के विभीषण चक्रवर्ती राजगोपलाचारी पहले गवर्नर जनरल बनाए गए. नेहरू मंत्रिमंडल में पिछड़े और दलितों का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व जरूर था, किंतु अधिकांश फैसले पंडित जवाहरलाल नेहरू, पंडित गोविंद बल्लभ पंत और के.के. मेनन की तिकड़ी ही करती थी.
सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो मुख्यमंत्री से लेकर लेटरल इंट्री के तहत नियुक्त तमाम पदों पर अधिकांशतः ब्राह्मण/ब्राह्मणवादी बैठा दिए गए. आजादी के पूर्व सत्ता के नौकरशाह के रुप में अशराफ और कायस्थ काबिज थे. नेहरू युग में इन्हें धक्का लगा, इनकी जगह ब्राम्हणों/ब्राह्मणवादियों ने ले लिया.
पिछड़ों, दलितों को जमीन पर ही छोड़ दिया गया, जबकि आजादी की लड़ाई में शामिल 70% लोग पिछड़े और दलित थे. सत्ता में हिस्सेदारी तो दूर, जमीन में भी वंचितों को हिस्सेदारी नहीं दिया गया. आप ध्यान से देखेंगे तो चीन, उत्तर कोरिया, रूस में भी भूमि सुधार हुआ, जिसके बाद जमीनों का पुनर्वितरण भी हुआ. यही कारण है कि इन देशों में गैर बराबरी काफी कम है.
दुनिया के अधिकांश देशों में भूमि सुधार हुआ है. भारत में भी आजादी के बाद यह काम पंडित नेहरू या कांग्रेस सरकार को सुनिश्चित करना था, किंतु सिर्फ केरल और पश्चिम बंगाल में ही जहां वामपंथी सरकारों ने भूमि सुधार किया, उसके अलावा कहीं भी यह नहीं हुआ.
जाहिर है कि भारत में भी यह आंदोलन शुरू होता, यूं कहें कि बंगाल का नक्सलवाडी पूरे देश में घटित हो जाने का खतरा था. जमीन की जंग तेज होती किंतु इस मुद्दे को खत्म करने के लिए भूमि का पुनर्वितरण करने की जगह मुद्दे को डायवर्ट करने के लिए तत्कालीन ब्राम्हणवादी व्यवस्था ने ‘भूदान आंदोलन’ का शिगूफा छेड़ दिया.
भूदान आंदोलन एक छलावा था, जो जमीन पर उतरा ही नहीं. ऐसे समझिए कि भूख से बिलबिलाते हुए किसी बच्चे को टॉफी देकर भरमाने का षड्यंत्र था. इस षड्यंत्र को जानना वंचितों को इसलिए भी जरुरी है क्योंकि षड्यंत्रकारियों का चरित्र कभी न कभी, किसी रूप में विद्यमान रहता है.
पिछड़ी जातियों के आंदोलनों के बड़े सिद्धांतकार रहे आरएल चंदापुरी अपनी पुस्तक ‘भारत में ब्राह्मण राज और पिछड़ा वर्ग आंदोलन’ में लिखते हैं –
‘पंडित नेहरु ने तत्कालीन परिस्थितियों में दलितों, शोषितों एवं पिछड़ी जातियों में आती हुई जागृति से उन्हें दिग्भ्रमित करने के लिए भूदान आंदोलन प्रारंभ करवाया. उसकी शुरुआत संगठित रुप से बिहार के गया जिला में की गई थी.
‘भूदान आंदोलन को सभी ब्राहमणवादी दलों एवं उनके नेताओं ने समर्थन दिया था. महात्मा गांधी के शिष्य बिनोवा भावे को विष्णु के अवतार के रुप में भूदान आंदोलन का प्रवर्तक बनाया गया. नेहरू भक्त जयप्रकाश नारायण उनके प्रथम शिष्य बने.
‘आचार्य भावे अधिक पढ़े लिखे नहीं थे किंतु उन में एक विशेषता थी कि वह महात्मा गांधी के आश्रम में बहुत दिनों तक रह चुके थे और तोते की तरह रटकर बोलते थे.
‘जयप्रकाश नारायण भी बड़प्पन दिखाने के लिए नेहरु परिवार से अपने संबंधों की चर्चा करते थे. इस तरह बिनाेवा भावे एक सरकारी संत रूप में प्रकट हुए थे. पूंजीपतियों की अखबारों में भूदान आंदोलन की भूमिका के बारे में खूब ढिंढोरा पीटा था.
‘भूदान आंदोलन में संपत्ति दान, बुद्धि दान, ज्ञान दान, श्रमदान और ना जाने कौन कौन सा काम सम्मिलित था. भूदान यज्ञ जिसे एक आंदोलन का नाम दिया गया था, नेहरु सरकार और बड़े-बड़े पूंजीपतियों की सांठगांठ से चलता था.
‘जहां कहीं भी बिनोवा भावे पहुंचते थे, वहां सरकार के मंत्री और नौकरशाह अपना पलक पावड़ा बिछाए उनका स्वागत करते थे.
‘जब कोई भी संगठन या आंदोलन सत्ता और पूंजीपतियों के सांठगांठ से चलता है तो उसका एकमात्र उद्देश्य उनके अपने निहित स्वार्थों का बचाव करना होता है.
‘भूदान यज्ञ कोई आंदोलन नहीं था. वह सरकार, पूंजीपति, सामंतवाद और ब्राम्हणी व्यवस्था के बचाव के लिए पंडित नेहरु के दिमाग की उपज थी.
‘यह कैसा मजाक था कि जयप्रकाश नारायण ने एक बार ग्राम दान, प्रखंड दान, जिला दान, राज्य दान से लेकर सारा भूमंडल ही बिनोवा भावे के चरण में में अर्पित कर दिया था!
‘वास्तव में वहां न कुछ दान देने की वस्तु थी, और ना कुछ दान दिया गया था.
‘भूदान केवल ब्राहमणवाद/पूंजीवादी व्यवस्था का पाखंड मात्र था जिसकी आंधी और तूफान में जनता को बेहोश कर दिया गया था.
‘उस समय कुछ काल के लिए पिछड़ी जातियों का आंदोलन भी भ्रमजाल में पड़ गया था. जैसे ही जनता होश में आई, न वहां आंधी थी और न जोर की हवा थी.
‘भूदान आंदोलन समाप्त हो गया था और आज आचार्य विनोवा भावे अपने आश्रम के बिल में चले गए थे. केवल भूदान यज्ञ में प्राप्त कुछ फर्जी जमीनों के लिए आज भी भूमिपतियों और भूमिहीनों के बीच दंगा फसाद चल रहा है.:
चंदापुरी की बातें जमीन पर सही प्रतीत होती है. भूदान शब्द का प्रयोग ही फ्रॉड था. सामंतों ने भूमि श्रम से अर्जित नहीं की थी तो फिर भूदान कहने का क्या मतलब है ?
सच्चाई यह भी है कि भूदान में दी गई जमीनों पर अधिकांश जगह कब्जा भूमिपतियों के परिजन कर बैठे थे. विवादित जमीनें भूदान में दी गई. इसके अलावा भूदान की अधिकांश जमीनों पर सरकार ने कब्जा कर जमीनों को पुनर्वितरित नहीं किया.
वैसे भी जब स्वतंत्रता के बाद भूमि को गरीबों के बीच बांट देना था, तब उस मुद्दे को खत्म करने के लिए भूदान आंदोलन का ढोंग किया गया, यह न्यायोचित तो नहीं ही था.
देश भर में भूदान में प्राप्त लगभग 44 लाख एकड़ जमीन में मात्र 13 लाख एकड़ जमीन ही बांटी गई. भूदान में लगभग 70% जमीन जागीरदारों, राजाओं, महाराजाओं के थे. यानी इन्हें तो रो गाकर भी देना ही था.
तत्कालीन बिहार के झारखंड क्षेत्र के ही 23 ‘दाताओं’ ने ही मिलकर ने 13.53 लाख एकड़ जमीन भूदान में दे दिया था. अब राजा को तो यह जमीन हर हाल में ही देना था, तो फिर भूदान का ढोंग क्यों किया गया ?
भूदान तो तब माना जाता जब 50 बीघा भूमि वाले दस बीघा जमीन दान कर देते. किंतु भूदान के नाम पर वंचितों को भरमा लिया गया, जिसका नतीजा हुआ कि आज भी देश में आर्थिक असमानता बहुत ज्यादा है. गरीब व्यक्ति गरीब ही रह जाता है और अमीर और अमीर होता जाता है. इसलिए वंचितों को सचेत रह कर सोचने की जरूरत है कि क्या उनके साथ आज भी ऐसा ही कोई दिग्भ्रमित करने वाला छल तो नहीं हो रहा है.
- दुर्गेश कुमार
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