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वक्फ बोर्ड : पॉलिसी पैरालिसिस की ओर बढ़ती सरकार…

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वक्फ बोर्ड : पॉलिसी पैरालिसिस की ओर बढ़ती सरकार...
वक्फ बोर्ड : पॉलिसी पैरालिसिस की ओर बढ़ती सरकार…

वक्फ बोर्ड के मामले में पीछे हटने के बाद, चेहरा बचाने के लिए एक जेपीसी बना तो दी है, पर सरकार को अपने लँगड़ेपन का अहसास हो चला है. और यह लंगड़ापन इस तस्वीर से जाहिर है. कानफोडू बकवाद और बेसुरे भाषणों से ऊबी जनता ने मोदी सरकार को लगभग उखाड़ फेंका था।. मीडिया, प्रशासन और कांग्रेस की सांगठनिक कमजोरियों ने 30-40 सीटें न दिला दी होती, तो इस वक्त मोदी, इस कमरे में न बैठे होते.

उनकी तो हिम्मत इतनी न थी कि अपनी पार्टी के भीतर खुद को नेता चुनवा लें. ऐसे में सहयोगी दलों के नेताओ को साधा, सीधे एनडीए की बैठक बुलाई, और शपथ ले ली. भ्रम बन गया कि मुकम्मल वापसी हो गई है. इस धौंस में सबसे पहला गलत दांव चला. वे पिछले मन्त्रिमण्डल और स्पीकर को ज्यों का त्यों ले आये.

यह ताकत का एक दिवसीय प्रदर्शन था और आ गए वही ऊबे, थके हुए मुर्दन चेहरे. वही प्रतिभाहीनो की टोली, वही बिगोटरी…
फालतू तत्वहीन बातें, निजी टांग खिंचाई, उबाऊ शब्द, और वही बेशर्म धौंस धुप्पल. देखते ही देखते पहले स्पीकर कट टू साइज हुए. ओम बिड़ला ने पहली बार सत्ता पक्ष को आंखें दिखाई, कस बल ढीले पड़ते दिखाई दिए. फिर ट्रेजरी बेंच का तो हाल ये कि अमित शाह भी संरक्षण मांगते फिर रहे थे.

विपक्ष अन स्टॉपेबल है. राहुल धुआंधार बोल रहे, अखिलेश महीन काट रहे. महुआ मोइत्रा, अवधेश, गौरव गोगोई, अभिषेक बैनर्जी, पप्पू यादव.. दरअसल जो खड़ा हो जाता है, सत्ता पक्ष की घिग्घी बंध जाती है. और इस बवाल के बीच, प्रधानमंत्री मोदी सदा की तरह संसद से भाग जाते हैं. उधर लोकसभा से निकली आग, फिर धनखड़ पर अविश्वास प्रस्ताव की धमक के माध्यम से राज्यसभा तक जा पहुंची है.

यहां सदन में ऐसे ही एनडीए अल्पमत में है. उस पर बीजेडी और वाइएसआर के 20 सांसद विपक्ष के खेमे में चहलकदमी कर रहे हैं. असल संकट यहां से शुरू होता है. लोकसभा में पिच, स्टिकी रहनी है. अब नफरती एजेंडे के बिल, अव्वल तो पास नही होंगे. आम बिल भी, हर समय पास होने, या नहीं होने के संशय में झूलेंगे.

एनडीए के सहयोगी दल, हर बार मुंह फुलाकर एक नया संकट खड़ा करेंगे. फिर सहयोग की कीमत लेंगे. ले देकर बिल पास करवाएंगे. अब मामला राज्यसभा में जायेगा. जाना पड़ेगा क्योकि किसी भी बिल को फाइनांस बिल बनाकर पेश करने की चाल अब पुरानी हो गयी. विपक्ष अब ये होने न देगा. तो मामले राज्यसभा में जाएंगे. वहां अल्पमत में फंसी सरकार को राहुल के साथ बैठकर चाय पीनी पड़ेगी. आने वाले समय में राज्यों के हार के संयोग हैं तो यह मजबूरी और बढ़ती जाएगी. अब तो चाय बार बार पीनी पड़ेगी. और हर बार..

हम शेर, चीते, बैल की तरह चलने वाले प्राणी को.. दयनीय अवस्था में कुहनियों और घुटनों के बल घिसटकर चलते देखेंगे. लाज़िम है कि हम देखेंगे. अल्पमत की सरकारें चलती हैं, और बखूबी चलती है. इतिहास तो गवाह है, कि देश का भला अल्पमत की सरकारों ने ज्यादा किया है. पर इसके लिए सत्ता का घमंड, अकड़, छोड़नी होती है. मेल मिलाप, मुस्कान, प्रेम और सम्मान जैसे शब्दों से महरूम जमात के लीडरान कब कब, और कितना घुटनों के बल चलेंगे. कितना कुहनियां छिलवाएंगे. ऐसे अवसर कम ही आयें, तो इसके लिए बिल ही कम आयेंगे. संसद कम समय बैठेगी. अध्यादेशों से काम चलाया जाएगा, पर उसकी भी सीमाएं ये जल्द समझ लेंगे.

दिखाने को कुछ विवादित मुद्दे, विवादित बिल लाते रहेंगे. हार हूरकर थक जाएंगे। अंततः, होगा यही की समय काटेंगे. जेडी यू, तेलगुदेशम, अम्बानी अडानी की झोलियां भरी जाती रहेंगी. पॉलिसीज के लेवल पर कुछ न होगा. इसलिए कहा…पॉलिसी पैरालिसिस की ओर बढ़ रही है ये सरकार.

वक्फ बोर्ड माफिया के चंगुल में है..

वक्फ बोर्ड एमेंडमेंट बिल पेश करते हुए, किरण रिजूजू ने यही कहा. तो आइये, देखे ये माफिया कौन कौन है. वक्फ एक्ट 1954 में आया. 1995 में संशोधित स्वरूप में आया. इसके अनुसार –

  1. इसका चेयरमैन, एक प्रभारी केंद्रीय मंत्री होगा.
  2. इसके अन्य 3 सदस्य, राष्ट्रीय स्तर के मुस्लिम संगठनों से सरकार तय करेगी.
  3. इसके अन्य 4 सदस्य राष्ट्रीय रूप से सम्मानित मैनेजमेंट, एकाउंट, लीगल एक्सपर्ट्स होंगे, सरकार तय करेगी.
  4. इसके अन्य तीन सदस्य सांसद, 2 लोकसभा और एक राज्यसभा से होंगे. सरकार तय करेगी.
  5. राज्यों के किन्हीं तीन वक्फ बोर्ड के चेयरमैन यहां रोटेशन में लिए जाएंगे.
  6. दो अन्य सदस्य हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज होंगे.
  7. इसके अलावे मुस्लिम स्कॉलर्स, लॉ एक्सपर्ट्स वगैरह होंगे, जिन्हें भारत सरकार नियुक्त करेगी.

यह केंद्रीय वक्फ परिषद है. स्टेट बोर्ड का स्ट्रक्चर भी लगभग इसी तरह का होगा, जिसे राज्य सरकारे तय करेंगी. ज्यादा पढ़ना हो, लिंक में दे रहा हूं. अब अगर किरण रिजूजू का कहना सही है कि ये सब लोग माफिया हैं, तो मुझे अचरज होता है कि जिम्मेदार कौन है ? आखिर सरकार वहां ऐसे बड़े बड़े माफियाओ को नियुक्त कर ही क्यों रही है ?

पर गहराई मे जाएंगे तो समझ आयेगा कि मामला इतना भी मासूम नहीं. प्रश्न धर्म का नहीं, माल मत्ते का है. धन का है, लाखों करोड़ रुपये की रियल स्टेट प्रोपर्टी का है. कोई मस्जिद, मदरसा, या ऐसा कोई अन्य रिलिजियस स्ट्रक्चर, जो कभी बियाबान में बनाया गया था, अब शहरों के बीचों बीच है. लंबी चौड़ी जमीनें हैं. इनमें बड़ी मात्रा में अवैध कब्जे हैं, जो रसूखदारों के भी हैं. अधिकांश उन शहरों में जो, राजधानियां हैं, बड़े शहर हैं. इनकी देखरेख यही वक्फ करता है, जो प्रॉपर्टीज सरकार ने उसे दी है.

1995 का एक्ट जब आया, उसमें सभी राज्य सरकारों को ऐसी पुरानी रिलिजयस प्रॉपर्टीज का सर्वे करने का जिम्मा दिया गया था. तहसीलदार, कलेक्टर, डीएम ने सर्वे करके लिस्ट भेजी. उसका गजट नोटिफिकेशन हुआ और फिर इन प्रॉपर्टीज का मैनेजमेंट वक्फ बोर्ड करते हैं.

कुछ प्रॉपर्टीज डिस्प्यूटेड भी थी, उनकी भी लिस्ट बनी. जाहिर है, वहां कब्जेदार को यह प्रूव करना है कि अगर जमीन उसकी है, तो उसके अधिकार में कैसे आयी ? कोर्ट में सरकार की तरफ से केस वक्फ बोर्ड लड़ता है, क्योंकि अब क्लेमेंट वह है. लेकिन यह सब आपको नहीं पता. आपके अज्ञान, और मुसलमानों से जुड़ी किसी भी अटपटी बात को झट से मान लेने की तेजी का फायदा उठाकर, सोशल मीडिया पर किस्से बनते हैं.

‘जानो मानो कल सुबह आप उठेंगे तो आपकी प्रोपर्टी पर वक्फ बोर्ड कब्जा कर चुका होगा’, परमच्युतियों के इस देश में लोग आज भी ऐसे सोर्सेज का फार्वर्ड पढ़ते हैं, भरोसा करते हैं, मारकाट करते हैं,..जिस सोर्स, ट्विटर हैंडल, व्हाट्सप ग्रुप, या मीडिया चैनल पिछले 10 साल में खुद को एक नम्बर का झूठा, बिगोट, नफरती, दंगाई और चमचा प्रमाणित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा.

वक्फ वैसी ही संस्था है, जैसी सिखों में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी है, या हिन्दुओं में तिरुपति देवस्थानम बोर्ड है, या ऐसे दूसरी संस्था जो धार्मिक महत्व के स्थानों का मैनेजमेंट करती हैं. सरकारों का वक्फ में ठीक ठाक दखल है क्योकि नियुक्ति और संचालन में मंत्री और ब्यूरोक्रेसी का रोल है. लेकिन वक्फ बोर्ड के पास इतनी ज्यादा जमीनें है, कि सबकी जुबान लपलपाती है, ठीक वैसे ही जैसे कि रेलवे और सेना की जमीनों को देखकर लपलपाती है.

और याद कीजिए कि हाल में इन संस्थानों की जमीनें किसकी जेब में गई हैं. वक्फ बोर्ड के रहते, वही काम इन जमीनों पर करना असम्भव है. तो न रहेगा बांस, न रहेगी बांसुरी. वक्फ बोर्ड को कमजोर करने, उसकी लीगल एग्जिटेन्स को कमजोर करने, उसके अधिकारों को क्वेशचनेबल बना देने का पुरजोर प्रयास जारी है. इनके छर्रों को प्रॉपर्टीज में विवाद खड़ा करके, कोर्ट वगैरह के रास्ते जमीनों पर अधिकार मिलेगा.

और न मिला, तो हर शहर, हर कस्बे में नए सिरे से हिन्दू मुसलमान नरेटिव खड़ा करने का मौका तो मिलेगा ही. तब हर मस्जिद, हर मदरसे पर सवाल होगा. फर्जी क्लेम से विवाद भड़काये जाएंगे. बाबरी का ट्राइड टेस्टेड मॉडल, गांव, गांव, शहर शहर में दोहराया जाएगा. कोर्ट आस्था पर फैसले देगी. कुछ तो दंगे भी होंगे और दंगों का फायदा किस दल को मिलता है, इसका अनुसंधान बड़ा दिलचस्प होगा. बहरहाल यह नामाकूल बिल, विपक्ष के जोरदार प्रतिरोध के बाद, ठंडे बस्ते में चला जाना बड़ी राहत की खबर है. एक बड़ी आग से देश, फिलहाल बच गया है. आप सभी को बधाई हो.

आखिर इस तरह के मसले उठते कैसे हैं ?

आखिर इस तरह के मसले उठते कैसे हैं ? यह समझने के लिए लैंण्ड रेकॉर्ड सिस्टम पर जाना होगा. लैंण्ड रेकॉर्ड, जो आप खसरा खतौनी में देखते है, अंग्रेजों के दौर में बनने शुरू हुए. कोई 1850-60 के आसपास इनका आविर्भाव होता है. यानी, किसी जमीन की सर्च रिपोर्ट निकलवाएंगे, तो उसकी ट्रेल अधिक से अधिक 1860 तक जाएगी. तो इसके पहले, किसकी जमीन थी ? किसका हक था ?

दरअसल वो जमींदार की थी, राजा की थी, नवाब की थी. पूरा इलाका उसका था. और उन्हें भी जमीन के काबिजदार से सीधे मतलब न था, बस लगान वसृली से था. तो कौन कितनी जमीन पर जोतता बोता है, वह जानना वह गांव के लम्बरदार, पंचायत या जमींदार के मत्थे था. वही कलेक्शन में मददगार था, उसे कमीशन मिलता था तो रिकार्ड मौखिक, स्मृति आधारित, पिछले फसल तक का रहता था.

राज्य, गांव को ही यूनिट मानता. जैसे औरंगजेब ने कामाख्या मंदिर के संचालन के लिए 10 गांव का लगान मन्दिर ट्रस्ट को दिया. अब जाहिर है, पूरा गांव ही दिया. उसका तालाब, पत्थर, नदी नाले, मकान, दुकान, मन्दिर मस्जिद भी दान में चले गए. यानी, प्राइवेट हक की भूमि का कॉन्सेप्ट, लगभग नहीं था. लगान ही मैटर करता. जमीन एम्पल थी, ऐसी मारामारी न थी. कोई आदमी जंगल साफ कर चार बीघा एक्स्ट्रा जमीन बोने लगे, तो उतना लगान बढ़ा जाता, बोना छोड़ दे, घट जाता.

पर अंग्रेजो ने रेकॉर्ड रखना शुरू किया, हर इंडिविजुअल जमीन का, उसके कब्जेदार के नाम पर. तो शुरआती रेकॉर्ड में कई जगह, कई कई गांव किसी एक ही जमींदार, नवाब, जागीरदार के नाम पर होते. अब सोचिये कि जागीरदार साहब ने दो गांव किसी मन्दिर को दान कर दिये. उन गांव में वहां पुरानी मस्जिद भी है. बरसों तक यह बात दबी रही.

अब मन्दिर ट्रस्ट आज की डेट में अपनी जमीन क्लेम करने आ गया, तो आप पुरानी मस्जिद दिखाकर उसका क्लेम गलत कह सकते है ? जब यहां मस्जिद है, तो यह मंदिर की जमीन कैसे ? या यहां मन्दिर है, तो मस्जिद की जमीन कैसे ? दरअसल, अब यह विवाद का विषय है.

जमीन पर हक का आम विवाद..

अब मामला लैंण्ड रिकार्ड के सत्यापन, दोनों पक्षकारों द्वारा अपने भू-अधिकार दस्तावेज को पेश करने, अभिप्रमाणित करवाने पर निर्भर है. फिर कोर्ट जिसका दावा ठीक समझेगा, अवार्ड करेगा. पर इस बहस में, उस जमीन पर 1500 साल पुराने मन्दिर का खड़ा होना, क्लेम की मेरिट पर कोई असर नहीं डालता. लेकिन, ऐसी खबरें छापी, पढ़ाई, और कोट क्यों की जाती है ??

इसलिए कि इसमें हिन्दू मुस्लिम मसाला है. तकनीकी विषय को भावनात्मक बनाने का पूरा चांस है. इससे नफरत भड़कायी जा सकती है. खास तौर पर केरल, वेस्ट बंगाल, तमिलनाडु, जहां नफरती पार्टी को पैर रखने की जगह नही मिल रही, अर्धसत्य और नफरती चाशनी में लबरेज खबरें आपके मोबाइल तक भेजी जाती हैं.

वक्फ, एक अर्धसरकारी निकाय है. उसे मैनेजमेंट के लिए, ऐसी मुस्लिम प्रोपर्टी दी जाती है, जिसे सर्वे करके लोकल प्रशासन ने वेरोफाई किया हो. सम्भव है यह वेरिफिकेशन त्रुटिपूर्ण हो. सम्भव है, एकदम सही हो. जब तक विषय की टेक्निकलिटी और तथ्य न समझ लें, किसी भी हिन्दू मुस्लिम खबर पर यकीन न करें. मोदी सरकार के मंत्रियों, और पेड ट्रोल्स द्वारा प्रचारित हर प्रोपगेंडा की तह में जायें. सोच समझ कर मन्तव्य बनायें.

वक्फ बोर्ड का ट्रिब्यूनल…

सबसे ज्यादा आपत्ति इस बात पर है कि इसके पास अपना ‘घरेलू’ ट्रिब्यूनल क्यों है ? नफरती कीड़े न पढ़े, आपको फायदा नहीं होगा. जो लॉ थोड़ा बहुत समझते है, जस्टिस सेन्स है, आगे पढ़े.

देश मे बहुत से घरेलू ट्रिब्यूनल हैं. जैसे यूपी में एमपी-एमएलए लोग का घरेलू कोर्ट होता है. इसमें एमपी-एमएलए बैठकर अपने पक्ष में फैसला देते हैं. उपभोक्ता कोर्ट होती है, जिसमें उपभोक्ता बैठकर अपने पक्ष में फैसले देते हैं. सीबीआई की स्पेशल कोर्ट होती है. इसमें सीबीआई डायरेक्टर बैठकर अपने पक्ष में फैसला देता है. क्या कहा ? ये पागलों जैसी बात है ?? वहां कोई उपभोक्ता या एमपी एमएलए नहीं, एक क्वालिफाइड जज फैसला देता है, ???

हां जी. तो वैसे ही वक्फ बोर्ड ट्रिब्यूनल में कोई दाढ़ी वाला मुल्ला बैठकर फैसला नहीं देता. एक क्वालिफाइड सरकारी जज ही बैठता है, जो स्पेशली इस तरह के मुकदमों को सुनकर फटाफट निपटाता है. तो आपका पहला डाउट क्लियर हो गया कि यह घरेलू कोर्ट नहीं है.

अब फर्ज कीजिए, एक मदरसे को 50 एकड़ जमीन किसी नवाब साहब ने दी थी. यह लैंण्ड रिकॉर्ड में मदरसे के नाम लिखा हुआ है. इसका सर्वे, वेरिफिकेशन प्रशासन ने किया, सरकार ने उसे धुलाई, पोछाई, पुताई मैनेजमेंट के लिए वक्फ को दे दिया. लेकिन उसकी 50 एकड़ में तीन दर्जन लोग 40-50 साल से काबिज हैं. नक्शा खतौनी कुछ है नहीं, लेकिन हल्ला कर रहे हैं.

नॉर्मली ये लोवर कोर्ट जाएंगे, 10 साल, फिर सेशन 10 साल, फिर हाईकोर्ट 20 साल, फिर सुप्रीम कोर्ट 30 साल. 2 पीढ़ी मुकदमा चलते चलते, मौज मार ली. इतने बरस में मकान, दुकान, बस्ती और घनी हो गई. अनाधिकृत कब्जे बेच भी दिए. अब वहीं एक मंदिर भी बनवा दिया है. अब ये मामला हिन्दू मुस्लिम होने की पूरी संभावना है. ये सेंसिटिव मामले हैं.

कानून का इन्टेन्ट है कि ऐसे मामले बड़ा विवाद बन जाने के पहले फटाफट निपटें. हजारों ऐसी प्रोपर्टी हैं, हरेक में हिन्दू मुस्लिम होने की सम्भावना है, हरेक में एक पोटेंशियल बाबरी मामला छुपा है. सैकड़ों कोर्ट्स से रोज एक फैसला आएगा, रोज एक नई जगह दंगों का पटाखा फूटेगा. तो ट्रिब्यूनल हमें इससे बचाता है.

सीधे पूछता है, ये रहा सरकारी रिकार्ड, अब तुम अपना रिकार्ड दिखाओ. चटपट दिखाओ, कोई स्टे नहीं, 10-20 साल खींचने का आपको मौका नहीं. अब कागज देखने के शौकीन, यहां कागज दिखा न पाएं, तो मामला समाप्त. नए कानून में ट्रिब्यूनल हटाने का उद्देश्य ऐसे लाखों मामले सुलगाना है. किसी को प्रोपर्टी चाहिए, किसी को वोट..किसी को सिर्फ घूम घूमकर मुसलमान को गाली देने का सुख चाहिए. आपको क्या चाहिए, आप देख लीजिए.

  • मनीष सिंह

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