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वोल्गा नदी से मध्य एशिया तक आर्यों की यात्रा

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वोल्गा नदी से मध्य एशिया तक आर्यों की यात्रा

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

चूंकि आर्य जब वोल्गा नदी (आज के रूस) के किनारे से चलकर पूरे यूरेशिया (यूरोप, रूस, एशिया) के कई क्षेत्रों में फैले थे और इसी कड़ी में वे पूर्वी और मध्य एशिया तक आ गये थे, तब उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान अलग-अलग क्षेत्रों में व्याप्त ज्ञान का संकलन किया, जिसे बाद में ‘ऋग्वेद’ कहा गया और उसी के आधार पर कालांतर में बाकी तीनों वेदों की रचना हुई.

वेदों की तरह ही उपनिषदों का ज्ञान भी अलग-अलग धर्मों और क्षेत्रों से संकलन किया गया था, जिसे याज्ञवल्क्य तक सैकड़ों बार बदला जा चूका है, और अब फिर से बदलने का कार्य आरएसएस के दिल्ली मुख्यालय में जारी है.

महावीर से 500 वर्ष पूर्व तक भारत में प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि से जन्मी अनेक बोलिया चलन में थी. महावीर काल में जिसे ‘अर्द्धमागधी’ कहा गया, वो तब के भारत में बोली जाने वाली मुख्य 18 भाषाओं का समायोजन था. तब से लेकर 10वीं सदी तक चामलिपि का चलन था और 4थीं सदी का सबसे प्राचीन जैन शिलालेख आज के वियतनाम (तब की चम्पानगरी) (वासुपूज्य तीर्थंकर के कल्याणक वाली असली भूमि) में मौजूद है.

इसे पूर्णतया पढ़ा नहीं जा सका है (कुछ शब्द ही पढ़े गये है) लेकिन ये वियतनाम के वो-कान्ह नामक स्थान से मिला है और इसके अक्षर जैन राजा समुद्रगुप्त द्वारा लिखवाये गये शिलालेख से मिलते जुलते हैं और इसमें श्रीमार राजकुल का उल्लेख किया गया है. इसीलिये इसे जैन शिलालेख के तौर पर दर्ज किया गया है !

आज के वर्त्तमानिक भारत में जो चम्पानगरी है, वो कृत्रिम रूप से निर्माणित है जो वियतनाम (तब के चम्पानगरी) से अलग हो जाने के बाद बनायी गयी जैसे पाकिस्तान के अलग होने पर वहां के मंदिरों से मुर्तियांं या अस्थिकलश लाकर समानिक नामों से कृत्रिम स्थानों का निर्माण कर स्थापित किया गया था.

संस्कृत न तो वेदों की मूल भाषा है और न ही ये प्राकृत से ज्यादा प्राचीन है बल्कि असल में तो ये प्राकृत की अपभ्रंश भाषा की कई पीढ़ियों के बाद जन्मी एक ऐसी भाषा है, जो दो भाषाओ से मिलकर व्युत्पन्न हुई थी अर्थात, ये इंडो यूरोपियन भाषा परिवार से जन्मी भाषा है जिसमें रोमनियन बंजारों की भाषा के वर्णाक्षर भी शामिल है और ये सबसे पहले सीरिया में बोली गयी थी.

सबसे पहले संस्कृत बोलने के ऐतिहासिक सबूत मितन्नी राजवंश (सीरिया) के हैं (मगर वे भी भारतीय नहीं थे) बल्कि 1500 से 1350 ईसा पूर्व के दौरान यूफरेट्स और टिगरिस नदी घाटी के ऊपरी इलाके (आज ये इलाका सीरिया, इराक और तुर्की में बंटा हुआ है) में शासक थे. मितन्नी नाम के उस राजवंश की राजधानी वस्सुकन्नि (वसुखनि) थी जिसका अर्थ होता है मूल्यवान धातुओं की खान. मितन्नी राजवंश के हर राजा का नाम संस्कृत में होता था.

इसमें सबसे बड़ा सवाल ये निकलता है कि अगर संस्कृत मूल भाषा नहीं है तो ये कैसे बनी और इसकी व्युत्पत्ति कैसे हुई ? तो इसका प्रत्युत्तर ये है कि – दरअसल संस्कृत प्राकृत भाषा के जिस भाषा परिवार से निकली थी उसका आधार प्रोटो इंडो यूरोपियन नाम की एक आदिम भाषा थी. समय के साथ इस भाषा ने प्रोटो इंडो इरानियन नाम की एक और भाषा को जन्म दिया.

2000 ईसापूर्व प्रोटो इंडो इरानियन भाषा को बोलने वाले शुरुआती लोग आज के कजाकस्तान और इसके आसपास के इलाके में रहा करते थे. मध्य एशिया के इस क्षेत्र में बसने वाले इन लोगों के समाज से धीरे-धीरे एक शाखा अलग हुई, जिसने प्रोटो इंडो इरानियन छोड़कर शुरुआती संस्कृत बोलना शुरू किया. यही लोग पश्चिम की तरफ उस इलाके की तरफ चले गये थे जो आज सीरिया कहलाता है और उन्हीं में 1500 से 1350 ईसापूर्व का मितन्नी राजवंश भी था.

वैदिक साहित्य में जिन रथों और रथ-युद्ध का उल्लेख मिलता है असल में वे सब मितन्नी संस्कृति से संबंधित थे. मितन्नी संस्कृति में रथ युद्ध का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रथों में जुतने वाले अश्व यानी घोड़े के प्रशिक्षण पर इस संस्कृति का ग्रंथ इस तरह का दुनिया में सबसे पुराना दस्तावेज माना गया है और ये वेदों से भी प्राचीन माना गया है.

यही नहीं, मितन्नी संस्कृति में कुछ स्थानीय देवताओं के अलावा कई ऐसे देवों की भी पूजा होती थी जो वैदिक सभ्यता में आज भी पूजे जाते हैं. 1380 ईसापूर्व में मितन्नी राजवंश के एक राजा ने अपने एक प्रतिद्वंदी राजा के साथ संधि की थी जिसमे इंद्र, मित्र और नासत्य (अश्विनी कुमार) जैसे देवताओं का उल्लेख मितन्नी लोगों की तरफ से इस संधि की साक्षी के रूप में था.

अवेस्ता ग्रंथ का रचनाकाल ऋग्वेद से पहले का माना जाता है और अवेस्ता में जो लिपि प्रयोग की गयी है वही लिपि ऋग्वेद में प्रयोग हुई है. अतः ये तो स्पष्ट है कि संस्कृत न तो कभी मूल भाषा थी और न ही कोई वैश्विक भाषा थी बल्कि सच कहूं तो ये ऋग्वेद की भाषा भी नहीं बल्कि ऋग्वेद जिस भाषा में रचा गया वो देवनागरी भाषा समूह की भाषा है और देवनागरी जिस भाषा का समूह है, वो असल में नागरी लिपि से उत्प्न्न हुई थी, जो ब्राह्मी लिपि की ही एक अपभ्रंश भाषा से जन्मी थी. ब्राह्मी लिपि सबसे प्राचीन और पहली लिपि है जिससे विश्व की सभी लिपियों का जन्म हुआ है.

नागरी से उत्पन्न सिर्फ देवनागरी ही नहीं बल्कि नन्दिनागरी भी है. देवनागरी पांडुलिपियों और शिलालेखों के विषय में तो बहुत लोग जानते ही हैं, मगर नन्दिनागरी की बहुत-सी पांडुलिपियां और शिलालेख महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि में आज भी सरकार द्वारा संरक्षित है. इसके विषय में बहुत कम लोग जानते हैं.

इस तरह के अनेकानेक तथ्य पूरे विश्व में मौजूद है और इन तथ्यों से ये भी साबित होता है कि संस्कृत असल में वैदिक या आर्यों की भाषा भी नहीं थी बल्कि उन्होंने अनेकानेक क्षेत्रों की यात्रा करते हुए पूर्वी एशिया से चुराई थी जबकि प्राकृत विश्व की सबसे प्राचीन और पहली भाषा है, जिससे पूरे विश्व की भाषाओं का जन्म हुआ है और हर भाषा का संबंध कहीं न कहीं प्राकृत से निकलता ही है. आज भी विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली 75 भाषाओं का सीधा संबंध प्राकृत से है.

मुसलमानों में जिस तरह भ्रान्ति है कि कुरआन अल्लाह की किताब है, उसी तरह हिन्दूओं में भी ये भ्रान्ति ही है कि वेद ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए. ऋग्वेद समेत कोई भी वेद ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न नहीं हुआ है बल्कि बाकी के तीन वेदों की रचना भी ऋग्वेद के आधार पर हुई है.

असल में ऋग्वेद आर्यों की यात्रा का वो पुलंदा है, जो उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान विभिन्न क्षेत्रों से गुजरते वक्त हासिल किया जिसे उन्होंने ऋग्वेद के रूप में संकलन किया. अर्थात ये न तो किसी ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ है और न ही कोई दैवीय पुस्तक है बल्कि पुरे विश्व के तत्कालीन ज्ञान का संकलन मात्र है (इसी ऋग्वेद से बाद में दूसरे, तीसरे या चौथे वेद की उत्पति हुई).

पिछली बातों से मुख्यतः दो प्रश्न निकलकर सामने आये हैं – एक ब्राह्मण कितने प्रकार के हैं ? और दूसरा ब्राह्मणीज्म और हिंदुइज्म में क्या फर्क है ?

पहले प्रथम प्रश्न का प्रत्युत्तर के कई मतान्तर है यथा –
प्रथम मतान्तर के हिसाब से चार वेदों के अनुसार चार प्रकार के ब्राह्मण हैं यथा- ऋग्वेदी, सामवेदी, यजुर्वेदीय, अथर्ववेदी. इन चारों के हरेक में कई शाखायें हैं, जिसमें कुछ लुप्त हो चुकी है.

दूसरे मतान्तर से ऋग्वेद का ऐतरेय ब्राह्मण, यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण, सामवेद का तांड्य ब्राह्मण, अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण होते हैं और इनमें भी शाखा भेद से बहुत प्रकार के ब्राह्मण है.

तीसरे मतान्तर से प्रदेशानुसार ब्राह्मण शाखा होती है लेकिन शाखाओं का मूल उपरोक्त चार प्रकार में से ही एक होता है.

चौथे मतान्तर के अनुसार मुख्यतः ब्राह्मण 10 प्रकार होते हैं – (1) तैलंगा (2) महार्राष्ट्रा (3) गुर्जर, (4) द्रविड (5) कर्णटिका. यह पांच विन्ध्यांचल के दक्षिण में तथा विंध्यांचल के उत्तर में वास करने वाले ब्राम्हण (1) सारस्वत (2) कान्यकुब्ज (3) गौड़ (4) मैथिल (5) उत्कलये. इनकी अनेक शाखायें हैं.

पांचवें, वर्तमान मतान्तर के हिसाब से आज के समय में ब्राह्मण अनेक प्रकार के हैं, जो कई अपने भी भेदों से उपभेदो के रूप में अर्थात फ्यूजन वंशो से निकले थे और ऐसे फ्यूजन वंशो की संख्या मुख्यतः 115 है और इन 115 फ्यूजन वंशो के भी फ्यूजन वंश अर्थात भेदातिभेद से संभवतः मुख्य 54 भेद और संभवतः 324 उपभेदो है और इनमे धर्म परिवर्तन करवा के बनाये गये ब्राह्मणो को भी शामिल कर ले तो दक्षिण के 924 और उतर के 1782 और शेष भारत के 2500 गौत्र ब्राह्मणों के हैं. उपरोक्त पांच मतान्तरों के अलावा जितने भी ब्राह्मण हैं, वे सब फर्जी ब्राह्मण है.
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अब दूसरे प्रश्न का प्रत्युत्तर – ब्राह्मणीज्म अर्थात दुसरों को अपने से हीन या स्वयं को उच्च समझना (इसे जातिवाद के रूप में भी व्याखित कर सकते हैं). हिंदुइज्म अर्थात भगवा आंतकवाद – दुसरों से नफरत करना, अन्य धर्मों को खत्म करना, भीड़तंत्र के नाम पर मनमाना नियम-कायदा थोपना इत्यादि अनेकानेक कारण से हिंदुइज्म अत्यंत बुरा है और त्यागने योग्य है.

दोनों की सबसे सटीक परिभाषा यही है. ब्राह्मणीज्म हिंदुइज्म से श्रेष्ठ है क्योंकि उनमें केवल अपने प्रति उच्चता या दुसरों के प्रति निम्नता की भावना है मगर सैद्धांतिक तौर पर वे दुसरों से नफरत नहीं करते और न ही दूसरे धर्मों को मिटाने की वकालत करते है.

‘ब्रह्मं जानाति सः ब्राह्मणः अर्थात जो ब्रह्म को जानता हो वह ब्राह्मण है.’ मैं सार्वजनिक तौर पर कहना चाहता हूंं कि मात्र कथावाचक या पाखण्डपूर्ण क्रियाकांड करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता बल्कि यहां जो ‘ब्रह्मं’ लिखा है उसका तात्पर्य ब्रह्मचर्य पालन से है. और इसका भावार्थ ये है कि जो ब्रह्मचर्य पालन करता है, उसके अतिचारों को जानता है और उनसे बचता है वो ब्राह्मण होता है. जबकि आज के 99.99% ब्राह्मण विवाहित है और मैथुन के क्षणिक सुख को प्राप्त करने में ही उनका जीवन बीत जाता है.

साथ ही मैं ये भी बताना चाहता हूंं कि जैन धर्म नहीं, दर्शन है (धर्म तो आज के हिसाब से बना दिया गया है). जैन दर्शन में जाति-कुल का पुरुष या महिला दीक्षित हो सकते थे (और अब भी हो सकते हैं). जैसे मेघकुमार क्षत्रिय पुरुष और चंदनबाला क्षत्रिय महिला थी जबकि मेतार्य मुनि जाति से मेहतर और हरिकेशी मुनि जाति से हरिजन थे लेकिन सभी को एक समान दीक्षा में दीक्षित किया गया.

और तो और जैन धर्म में सबसे पहली अंतकृतः केवली एक महिला मरुदेवी (अरिहंत आदिनाथ की माता) बनी जिससे ये भी स्पष्ट है कि जैन धर्म में महिला या पुरुष दोनों को समान माना गया है, किसी जीव को महिला होने अथवा निम्नजाति में जन्म लेने से हीन नहीं समझा गया. जैसा कि हिन्दू धर्म में आज भी समझा जाता है.

एक बात और कि किसी भी धर्मं में कोई बुराई नहीं होती लेकिन धर्म की अच्छाइयों को हटाकर कुछ पाखंडी लोग उसमें बुराई का मिश्रण कर देते हैं, जिससे धर्म में कुप्रथायें और पाखंड पैदा होता है, जिससे वो धर्म बुरा कहा जाता है जबकि मूल रूप से शुद्ध धर्म सदा ही अच्छा होता है. इसे ऐसे भी समझ लीजिये कि –

‘ब्रह्मं’ का तात्पर्य आत्मा होती है और आत्मा का अपने स्वभाव में स्थित होना उसका शुद्ध धर्म कहलाता है. अर्थात जो ब्रह्म (आत्मा) को छोड़कर किसी अन्य को नहीं पूजता वह है ब्राह्मण. लेकिन जो पुरोहिताई करके अपनी आजीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं याचक है. जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी आजीविका चलाता है वह भी ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है. जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है अर्थात ब्रह्म (आत्मा) को छोड़कर जो कुछ भी अन्य कर्म करता है, वह ब्राह्मण नहीं है और जो ब्रह्म का उच्चारण आत्मा को नहीं मानकर किसी काल्पनिक देव को ‘ब्रह्मं’ मानता है वह भी ब्राह्मण नहीं है.

जैन शास्त्रों में तो स्पष्ट लिखा है कि —

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥
तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥

अर्थात, सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता. ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता. केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता. वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तापस नहीं बन जाता. यानि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है और कौन स्थावर तथा मन वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं. (महावीर)

बौद्ध पिटको में भी स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि –

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥

अर्थात, ब्राह्मण न तो जटा से होता है और न गोत्र से और न ही जन्म से. जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है यानि कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोंक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं. (गौतम बुद्ध)

और तो और खुद हिन्दू धर्म के ही ग्रन्थ मनुसंहिता में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि –

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचैण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥ – मनुसंहिता (1- (/43-44)

अर्थात, ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चैण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं.

ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है, इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं. स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है कि मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि.

8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में बताये गये हैं यथा –

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है अर्थात ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता. बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं तो वे मात्र ब्राह्मण हैं, उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं, वे बस शूद्र हैं. वे तरह-तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं, वे सभी राक्षसधर्मी हैं ब्राह्मण नहीं.

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गये हैं. तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है, वह ब्राह्मण कहा गया है.

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है.

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है.

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है.

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है, उसे ऋषिकल्प कहा जाता है.

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है.

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं.

सबसे पहले ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के उच्चारणकर्ता ऋषियों के लिए किया गया था. और ये तो पहले की पोस्ट में ही स्पष्ट कर चूका हूँ कि बाकी तीन वेदो का उद्गम ऋग्वेद से हुआ था और चूँकि उस समय ऋग्वेद की भाषा अवेस्तियन थी जो ईरानी मूल की भाषा थी. अतः एक से चार वेद बनने के पश्चात प्रत्येक वेद को समझने के लिये उन्हें संस्कृत में लिखा गया और उस पर टीकाग्रन्थ भी लिखे गये बाद में उन्हें ब्राह्मण साहित्य कहा जाने लगा लेकिन तब तक ब्राह्मण शब्द का ताल्लुक किसी भी जाति या समाज से नहीं था. लेकिन बाद में श्रेष्ठता के भाव से कटटरता बढ़ती गयी और ब्राह्मण समाज बनता गया. समाज बनने के बाद भारत में सबसे ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही हुआ जैसे : सरयूपारीण, कान्यकुब्ज , जिझौतिया, मैथिल, मराठी, बंगाली, भार्गव, कश्मीरी, सनाढ्य, गौड़, महा-बामन और भी बहुत कुछ…

इसी प्रकार ब्राह्मणों में सबसे ज्यादा उपनाम (सरनेम या टाईटल ) भी प्रचलित हुए ! इन उपनामों की उत्पत्ति कैसे हुई ये भी जान लीजिये यथा –

  • एक वेद को पढ़ने वाले ब्रह्मण को पाठक कहा गया.
  • दो वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी कहा गया, जो कालांतर में दुबे हो गया.
  • तीन वेद को पढ़ने वाले को त्रिवेदी कहा गया जिसे त्रिपाठी भी कहने लगे जो कालांतर में तिवारी हो गया.
  • चार वेदों को पढ़ने वाले चतुर्वेदी कहलाये जो कालांतर में चौबे हो गये.
  • शुक्ल यजुर्वेद पढ़ने वाले को शुक्ल या शुक्ला कहा गया.
  • चारो वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञाता को तब पंडित कहा जाता था, जो आगे चलकर पाण्डेय, पांडे, पंडिया, पाध्याय हो गये (ये पाध्याय कालांतर में उपाध्याय हुआ).
  • शास्त्र धारण करने वाले या शास्त्रार्थ करने वाले शास्त्री कहलाये.

इसके अलावा कालांतर में कुछ प्रसिद्द ऋषियों के नाम से उनके वंशजो ने अपने कुल या गोत्र के नाम को ही उपनाम की तरह अपना लिया जैसे – परसुराम भृगु कुल के थे और परसुराम के वंशजो ने भृगुकुल को ही उपनाम में अपना लिया, जिससे बाद में वे भार्गव कहलाये. इसी तरह अग्निहोत्री, गर्ग, भारद्वाज आदि-इत्यादि के बारे में समझ लीजियेगा.
बहुत से विद्वान लोगो को अनेक शासकों ने भी कई तरह की उपाधियां भी दी जिसे बाद में उनके वंशजों ने उपनाम की तरह उपयोग किया जैसे- राव, रावल, महारावल, कानूनगो, मांडलिक, जमींदार, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, प्रधान, बनर्जी, मुखर्जी, जोशी, शर्मा, भट्ट, विश्वकर्मा, मैथली, झा, धर, श्रीनिवास, मिश्रा, मेंदोला, आपटे आदि हजारों सरनेम है जिनका अपना अलग इतिहास है.

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