हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
नवउपनिवेशवादी शोषण चक्र के खिलाफ अंततः जनता को ही विपक्ष की भूमिका में आना पड़ता है. दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन के पहले बिहार के हालिया विधान सभा चुनावों में हम इसका उदाहरण देख चुके हैं, जब महज़ दो-तीन महीने पहले जिस तेजस्वी यादव को विश्लेषक निस्तेज विपक्ष का नेता बता रहे थे, उन्होंने ऐसी शानदार लड़ाई लड़ी कि एकबारगी तो बिसात पलटने के संकेत मिलने लगे थे.
क्या एनडीए के खिलाफ महागठबंधन की चुनौती, जो अचानक से मजबूत नजर आने लगी थी, किसी नेता या किसी राजनीतिक दल के द्वारा खड़ी की गई थी ? नहीं, ये उन मुद्दों का प्रभाव था जिन्हें आगे करके बिहार के विपक्ष ने चुनावी मैदान में खुद को अचानक से मजबूत पाया. तमाम चुनावी रैलियों में उन मुद्दों को दोहराते तेजस्वी यादव अचानक से बड़े नेता हो गए. जहां प्रधानमंत्री तक की सभाओं में कुर्सियां खाली नजर आती थीं, तेजस्वी की सभाओं में उमड़ती भीड़ विश्लेषकों को हैरत में डालने लगी.
याद करें महागठबंधन के चुनावी घोषणापत्र को, जिसमें सिर्फ यह ही नहीं कहा गया था कि दस लाख सरकारी नौकरियां देंगे, बल्कि यह भी भरोसा दिया गया था कि नौकरियों में संविदा, ठेका आदि को खत्म किया जाएगा, शिक्षकों को ‘नियोजित’ के अवांछनीय विशेषण से मुक्त किया जाएगा और सबसे महत्वपूर्ण कि उनकी सरकार अगर बनी तो निजीकरण के रास्ते पर नहीं चलेगी.
बिहार की जनता ने दिखाया कि उसे ये बातें पसंद आई हैं. जिन मुद्दों को थाम कर महागठबंधन आगे बढ़ा, जनता ने उनका स्वागत किया और उनकी सभाओं में स्वतःस्फूर्त भीड़ की शक्ल में उमड़ने भी लगी. ठीक है कि चुनावी गणित में अंततः एनडीए ने बारीक अंतर से बाजी मार ली लेकिन अंतर की इस बारीकी ने ही जनता की वास्तविक अपेक्षाओं को सामने ला दिया. वरना, कुछ महीने पहले तक तो विश्लेषक एनडीए के बड़े अंतर से जीतने की संभावना बता रहे थे.
बिहार चुनाव ने यह साबित किया कि जनता का बड़ा हिस्सा सरकारी पदों के खात्मे और आउटसोर्सिंग आदि शोषणकारी नीतियों के खिलाफ है, स्थायी नियुक्ति की जगह ठेका पर की जाने वाली नियुक्तियों के खिलाफ है, अंधाधुंध निजीकरण के खिलाफ है.
इसलिये, जब अवसर सामने आया, मुद्दे सामने आए तो जनता ही स्थापित सत्ता के खिलाफ उमड़ कर सामने आने लगी. विश्लेषक यह गलत नहीं कहते कि जिन मुद्दों को लेकर तेजस्वी चुनाव में उतरे, अगर वे एकाध वर्ष पहले से इन्हें लेकर जनता के सामने जाते तो आज राजनीतिक परिदृश्य कुछ और होता.
क्या जनता शिक्षा और चिकित्सा का निजीकरण चाहती है, क्या वह रेलगाड़ी के डिब्बों से लेकर रेलवे प्लेटफार्म तक का निजीकरण चाहती है ? जाहिर है, नहीं चाहती. लेकिन, जब भी चुनाव होते हैं, जनता के सामने योजनाबद्ध तरीके से ऐसे मुद्दे उछाल दिए जाते हैं जहां जीवन की मौलिक जरूरतों से जुड़े सवाल पीछे रह जाते हैं और आमलोगों के शोषण पर आधारित व्यवस्था और अधिक मजबूत होकर स्थापित कर ली जाती है. जाहिर है, इस क्रम में मीडिया की भूमिका व्यवस्था के प्रवक्ता की रहती है.
दिल्ली की देहरी पर उमड़े किसान उसी बनती तस्वीर के अंश हैं जिसमें जनता ही विपक्ष की भूमिका में आ गई है. मीडिया के एक प्रभावी हिस्से ने उन्हें न जाने किन-किन विशेषणों से नवाजा, व्यवस्था के अंध अनुयाइयों ने उन्हें लेकर कितनी प्रवंचनाएं की, लेकिन उनकी एक ही परिभाषा है, वे सत्ता के खिलाफ स्वतःस्फूर्त जागरण के प्रतिनिधि हैं.
जब राजनीतिक नेतृत्व प्रतिरोध की शक्तियों को संगठित करने में पंगु साबित होने लगे, जब विपक्ष का बड़ा हिस्सा नैतिक आभामण्डल खो कर अपनी प्रभावकारिता ही नहीं, अपनी क्रियाशीलता भी खोने लगे तो अपने हितों की रक्षा के लिये जनता को ही विपक्ष की भूमिका में आना पड़ता है.
यद्यपि, यह प्रक्रिया समय सापेक्ष है, लेकिन जनविरोधी बनती जाती व्यवस्था के खिलाफ यही प्रक्रिया सबसे असरदार साबित होती है. आज किसान मजबूती से सवाल करने उतरे हैं और सत्ताधारियों की पेशानी पर उभरती पसीने की बूंदें नजर आने लगीं हैं. कल आउटसोर्सिंग और ठेका प्रथा के खिलाफ बेरोजगारों की फौज सड़कों पर उतर सकती है, निजीकरण के खिलाफ मजलूमों की जमात खड़ी हो सकती है, पेंशन की मांग को लेकर कर्मचारियों का आंदोलन जोर पकड़ सकता है.
ये संभावनाएं किन्हीं कोरी कल्पनाओं पर आधारित नहीं हैं. बिहार चुनाव से लेकर किसान आंदोलनों आदि ने इसके संकेत देने शुरू कर दिए हैं. जनता का विपक्ष बन जाना लोकतंत्र का सबसे सार्थक और परिवर्त्तनकारी रूप है और भारत में धीरे-धीरे यह परिदृश्य उभरने लगा है. अब शायद जनता ही भारतीय राजनीति को नई दिशा देगी, क्योंकि, इसका समय आ चुका है.
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