आज हम 21वीं सदी में जीने वाले लोग है. हमें अपने आप पर फर्ख है कि हमने अन्तरिक्ष में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करते हुए मंगल ग्रह तक का सफर आसान कर लिया है. पर हमारे लिए इस कड़वी सच्चाई से मुंह मोड़ना आसान नहीं है कि वर्तमान समय में भी पूरी दुनिया में 75 फीसदी लोगों के पास दो वक्त का भोजन और तन ढंकने के लिए एक अदद कपड़ा तक नहीं है. ऐसे में जिस डिजिटल विकास पर हम फूले नहीं समा रहे वह पूरी तरह वेईमानी पर आधारित है. चमचमाती सड़कें, चंद आसमान छूती अट्टालिकाएं, खाये-पिये-अघाये लोगों के पास मुहैय्या सुविधाएं, असमानता की बढ़ रही खाई, आम और खास में साफ दीख रहा फर्क विकास का मॉडल नहीं हो सकता. भू-मंडलीय भूखमरी पर यूएनए की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भूखमरी बढ़ रही है और भूखे लोगों की 23 फीसदी आबादी भारत में रहता है. 2030 इ्र्र. तक भूखमरी मिटाने का अंतराष्ट्रीय लक्ष्य भी खतरे में पड़ गया है. कुल आबादी के हिसाब से भूखमरी में एशिया महाद्वीप अब्बल है, उसके बाद अफ्रीका और लातिन अमेरिका का नम्बर आता है.
कुपोषण और कुपोषण के कारण मरने वालों की संख्या के मामले में भारत के आंकड़े भयावह तस्वीरें पेश करते हैं. दुनिया के कुल कुपोषितों में से 19 करोड़ कुपोषित भारत में है. आबादी के लिहाज से करीब 14 फीसदी लोग भूखे हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि भारत में हर साल कुपोषण के कारण मरनेवाले पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों की संख्या 10 साल से भी ज्यादा है. भारत दक्षिण एशिया में कुपोषण के मामले में सबसे बुरी हालत में है और दक्षिण एशिया में यह अग्रणी देश बन गया है. इस समय भारत में 2.3 करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. 5 साल से कम उम्र के करीब 10 लाख बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं. अन्तराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान () द्वारा हाल ही में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के अनुसार 119 देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 100वें पायदान पर है और वह म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, उत्तर कोरिया और बंगलादेश जैसे पिछड़े देशों से भी पीछे है. पिछले साल भारत इस इंडेक्स में 97वें स्थान पर था और अब 100वें स्थान पर है. यानि पिछले साल के मुकाबले वह तीन स्थान पीछे चला गया है. इस मुल्क में एक तरफ चन्द धनकुबेरों की संपत्ति में बेहिसाब इजाफा हो रहा है तो दूसरी तरफ बड़ी आबादी को खाने के भी लाले पड़े है. उधर, किसान बिरादरी कर्ज और खराब मौसम की दोहरी मार में पीस रही है. बीज और खाद की उपलब्धता का रास्ता निजी कम्पनियों से होकर जा रहा है, पानी सूख रहा है, खेत सिकुड़ रहे हैं, निजी निवेश के जोन पनप रहे हैं, तेल और ईंधन की कीमतें उछाल पर है और लोग जैसे-तैसे बसर कर रहे हैं. ये सब यह बताने के लिए काफी है कि इस मुल्क की सरकारों की प्राथमिकताएं क्या है.
इंडियन इन्सटिट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल एवं 21 टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के चलते खराब हो जाती है तथा उत्सव, समारोह, शादी-विवाह आदि में पूंजी के होड़ तथा इनपर नियंत्रण के कायदे-कानून के कारण पका हुआ खाना बर्बाद कर दिया जाता है. सवा अरब की आबादी वाले अभाव के भारत जैसे देश में, जहां सरकारी आंकलनों के अनुसार 32 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं, यह स्थिति अत्यन्त सोचनीय है. फूड एंड एग्रीकल्चर ऑग्रेनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार 2009 में भारत में 23 करोड़ 10 लाख लोग भूखमरी का सामना कर रहे थे. आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. देश में खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद बड़ी आबादी भूखमरी का संकट झेल रही है. देश की राजधानी दिल्ली के पूर्वी मंडावली इलाके में भी भूख से तीन बच्चों की मौत ने सरकार के इस सच्चाई से मुंह मोड़ने वाले रूख पर कालिख पोत दिया. कई अन्य प्रदेशों से इस तरह की खबरें लगातार आ रही है.
इन खबरों में झारखण्ड से आनेवाली खबरें प्रमुख स्थान बनाये हुए है. विगत साल सिमडेगा जिला की संतोषी कुमारी की भूख से हुई मौत के बाद कम से कम डेढ़ दर्जन और मौत की खबरें हैं. भूख से लगातार हो रही मौतों में सबों की पारिवारिक स्थिति लगभग एक जैसी सामने आई है. ऐसे परिवार थे जिनके पास कुछ नहीं था – न सम्पत्ति, न शिक्षा, न रोजगार. ज्यादातर भूमिहीन, दलित व आदिवासी थे. अधिकांश लोग पेंशन या जन-वितरण प्रणाली के सहारे जीने वाले लोग थे और उनकी मौत तब हुई जब वे किसी कारणवश पेंशन और जन-वितरण प्रणाली से वंचित हुए. रांची विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर ज्यां द्रेज ने अपने अध्ययन में इन मौतों के पीछे तीन तरह की असफलताएं बताया है – सरकार, आधार और समाज की विफलताएं.
धनकुबेरों के लिए हर पलक पलक-पांवड़े बिछाये रखनेवाली सरकार सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के प्रति एकदम से लापरवाह है. योजनाओं में कितने पेंच हैं और भ्रष्टाचार कितना चरम पर है, इसके उदाहरण हैं सिमडेगा की संतोषी, रामगढ़ जिले के राजेन्द्र बिरहोर, देवघर के रूपलाल मरांडी, गढ़वा की प्रेमनी कुंवर. ये सभी के सभी जन वितरण प्रणाली, विधवा पेंशन, मनरेगा, मध्यान्न भोजन, मातृत्व लाभ, आंगनबाड़ी कार्यक्रम के हकदार रहने के बावजूद एक भी योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे थे. राजेन्द्र बिरहोर सरकारी कठोर कार्ड (आधार कार्ड) नहीं होने के कारण जन-वितरण प्रणाली और पेंशन योजना से वंचित था, संतोषी कुमारी के परिवार का राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं होने के कारण रद्द कर दिया गया था. रूपलाल मरांडी को महीनों तक इसलिए राशन कार्ड नहीं दिया गया क्योंकि बायोमेट्रिक मशीन उनका अंगूठा पहचान नहीं पा रही थी. प्रेमनी कुंवर की पेंशन राशि किसी और के खाते में चली गई जो बाबुओं की लालफीताशाही के चलते उन्हीं के आधार नम्बर से लिंक किया गया था.
कई अन्य लोगों ने भी इस अव्यवहारिक आधार के कारण अपना राशन या पेंशन खोया और दम तोड़ दिया. पर राज्य सरकार की बेशर्मी देखिए – हरेक मामले में सरकार की एजेंसियों ने भूख से मौत को सिरे से नकारने की कोशिश की. कई बार फर्जी जांच करवाकर इस सच को छुपाने की असफल कोशिश की गई. इतना ही नहीं, जिन सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने भूख से मौतों को उजागर किया, उन्हें ही बदनाम करने की कोशिश की गई. कार्रवाई करना, सुधार लाना और पीड़ित परिवारों को राहत उपलब्ध कराना तो दूर की बात है, जो सरकार आदिवासियों की लहलहाती फसल को रौंदकर उनकी जमीन पर जबरन दखल कर उसे साम्राज्यवादी दलाल अंबानी को सुपुर्द करने में अपने सारे तंत्र को लगा सकती है, वह भला इनकी सुध क्यों लेगी ?
मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था इस समस्या के समाधान के प्रति कोई रूचि नहीं रखती. विकास, किसान, मजदूर, महिला, गरीब की सुरक्षा की बातें बस भाषणों में ही सिमटकर रह जाती है. कुर्सी पर नजर रखनेवाले सभी राजनैतिक दलों के विवादास्पद बयान यह साबित करते हैं कि समस्या को राजनैतिक शक्ल देकर वोट-बैंक पर ही जोर है. जहां आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां बढ़ रही हों, सामुदायिक खाई चौड़ी होती जा रही हो और शासक दल अपने सत्ता-स्वार्थ में लिप्त हों, वहां बगाबत ही एकमात्र रास्ता बचता है. आखिर क्या कारण है कि सरकारी योजनाएं दीर्घकालीन और सख्ती से लागू नहीं हो पायी ? सुनिश्चित क्रियान्वयन के लिए एक मुस्तैद पारदर्शी मशीनरी नहीं बन पायी, गैर-योजनागत मदों के खर्चों में कटौती नहीं हो पायी, लगातार गरीबों से सब्सिडी छीनी जा रही है, किसानों के लिए सस्ते और टिकाऊ संसाधन विकसित नहीं किये गये. अंधाधुंध शहरीकरण और निर्माण को बंद नहीं किया गया. स्कूली बच्चों की शिक्षा में देहात, किसानी, गरीबी और पोषण से जुड़े विषय अनिवार्य नहीं किये गये. मंहगी दावतों और मध्यवर्गीय विलासिताओं पर अंकुश क्यों नहीं लगाया गया. होटलों, दफ्तरों, शैक्षणिक संस्थानों, कैंटीनों, बैठकों, शादी और अन्य समाराहों में बेकार हो रहे खानों पर अंकुश क्यों नहीं लगाया जाता ? खाद्यान्न और खाना के वितरण की निचले स्तर से लेकर उपरी स्तर तक मॉनीटिरिंग की व्यवस्था क्यों नहीं है ?
- संजय श्याम
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