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विफलताओं से जूझती सरकार टैक्स न बढ़ाए तो क्या करे

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विफलताओं से जूझती सरकार टैक्स न बढ़ाए तो क्या करे

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

आर्थिक नीतियों के मामले में विफलताओं से जूझती सरकार टैक्स न बढ़ाए तो क्या करे. अब इस कारण पेट्रोल सौ के पार जाए तो जाए, इन्कम टैक्स तमाम रिकार्ड्स तोड़े तो तोड़े, महंगाई के आंकड़े बढ़ते जाएं तो बढ़ें, देश चलाने के लिये टैक्स बढ़ाने के सिवा सरकार के पास फिलहाल और कोई उपाय नहीं.

बढ़ते टैक्स का सबसे बड़ा बोझ मध्य वर्ग उठाता है. वह कराह रहा है लेकिन उसे लगता है कि इसमें भी कहीं देश हित छुपा हुआ है. मोदी जी हैं तो कुछ सोच कर ही पेट्रोल को सौ के पार ले जा रहे होंगे. अर्थशास्त्री बताते हैं कि जिस देश में आर्थिक असमानता जितनी बढ़ती जाती है उसका ग्रोथ उतना ही प्रभावित होता जाता है, उसका बाजार उतनी ही गतिहीनता को प्राप्त होता जाता है.

अपने मोदी जी के नाम यह रिकॉर्ड भी है. जब से वे सत्ता में आए हैं, उन्होंने देश में बढ़ती आर्थिक असमानता के मामले में पिछले तमाम रिकार्ड्स तोड़ दिए हैं. उनकी इस उपलब्धि पर विश्वास न हो तो ऑक्सफेम के इस विषयक हालिया रिपोर्ट्स पर एक नजर डाल लें.

अब, जब नीचे की विशाल जनसंख्या की क्रय शक्ति में अपेक्षानुरूप वृद्धि नहीं होगी और ऊपर के एकाध प्रतिशत लोग और धनी, और धनी होते जाएंगे तो बाजार को मंदी के बादल घेरेंगे ही. बाजार सिर्फ धनी लोगों के भरोसे थोड़े ही चलता है, वह तो सबके विकास के साथ ही गतिशील होता है.

तभी तो, मोदी जी का सूत्र वाक्य है, ‘सबका साथ, सबका विकास.’ लेकिन, मुश्किल यह हो गई कि सत्ता में आते ही वे निचलों का साथ छोड़ते गए और उपरले उनके सिर पर चढ़ते गए. तो, व्यावहारिक धरातल पर वे न सबका साथ दे पाए, न सबका विकास कर पाए.

खबरें बता रही हैं कि नीचे के 32 करोड़ लोगों की मासिक आय तीन हजार रुपये से भी कम हो गई है जबकि इसी दौरान ऊपर के महज 11 लोगों की आय में इतनी बढ़ोतरी हो गई जिसने नया रिकार्ड कायम कर दिया. सबसे ऊपर वालों में दो तो लगातार इतने मुटिया रहे हैं कि विश्लेषक हैरान हैं और जयकारे लगाते लोग मंत्रमुग्ध. उनकी इस हैरतअंगेज वृद्धि दर के समक्ष हर तर्क नतमस्तक है.

कुछ खास लोग भले ही धनी होने के रिकार्ड बनाते रहें लेकिन जब जनसंख्या के बड़े हिस्से की आमदनी नहीं बढ़ेगी, उसकी क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी तो सरकार की आमदनी प्रभावित होनी ही होनी है. रोजगार का संकट अब भीषण रूप ले चुका है. सरकारी नियुक्तियां हतोत्साहित की जा रही हैं जबकि बाजार की मंदी ने प्राइवेट नौकरियों के अवसर घटाए हैं. जब रिकार्ड पर रिकार्ड बन ही रहे हैं तो मोदी राज में बेरोजगारी ने भी लगे हाथ अपने तमाम रिकार्ड तोड़ डाले.

रोजगार और बाजार की गति मंद होगी तो सरकार की आमदनी प्रभावित होगी ही होगी. इस घटती आमदनी की भरपाई विभिन्न टैक्सों को बढ़ा कर ही तो होगी.

जो निर्धन हैं और इस देश की आबादी के दो तिहाई के करीब हैं, वे जब विकास की मुख्यधारा से बाहर हैं तो जाहिर है, बाजार की मुख्यधारा से भी बाहर हैं. जो बेहद अमीर हैं, बल्कि बेहद बेहद अमीर हैं, उनके पास हजार रास्ते हैं सरकार और पब्लिक को चूना लगाने के. अमीरी में दिन दूनी रात चौगुनी की बढ़ोतरी यूँ ही नहीं होती, इसके लिये दिमाग लगाना होता है, टैक्सों में छूट हासिल करनी होती है. छूट भी इस विधि, कि आम लोगों को पता ही न चले कि सरकार के किस फैसले से प्रभु वर्ग के किस हिस्से की आमदनी कितनी बढ़ गई, कितने टैक्स में छूट मिल गई.

बच गया नमो नमो करता बीच का वर्ग. टैक्सों का सबसे अधिक बोझ यही उठाता है. एक लीटर पेट्रोल के वास्तविक दाम पर 180 प्रतिशत टैक्स, फिर इन्कम टैक्स, फिर उस पर भी ये सरचार्ज, वो सरचार्ज.

कहा भी जाता है कि नवउदारवादी व्यवस्थाएं निर्धनों का श्रम लूटती हैं, मध्य वर्ग की जेब पर डाका डालती हैं और अरबपतियों को खरबपति, खरबपति को पता नहीं कौन कौन सा पति बनने की राह प्रशस्त करती हैं.

निर्धनों के पास लूटने के लिये श्रम के सिवा और है भी क्या ? तो, उसकी जम कर लूट हो रही है. श्रम कानूनों में जितने भी संशोधन किए जा रहे हैं वह इसी लूट के लिये तो हैं. हालांकि, अपनी औकात भर टैक्स वे भी देते ही हैं. ट्रेन के टिकट से लेकर साबुन की टिक्की तक, वे जो भी खरीदते हैं, सबमें टैक्स देते हैं.

मध्य वर्ग की आमदनी तो बढ़ती है इस सिस्टम में, लेकिन उसे छीन लेने की हर जुगत लगाई जाती है. खास कर तब अधिक, जब सरकार की आर्थिक नीतियां विफल होती रहें और उसकी आमदनी घटने लगे. मध्य वर्ग की जेब पर डाका डालना तब एक बेहतर विकल्प होता है.

विचारहीन उपभोक्ता बन चुके इस वर्ग की रीढ़ की हड्डी इतनी लचीली हो चुकी है कि तन कर खड़े होने का नैतिक बल ही नहीं रहा. तो, आपदा में अवसर खोजते अपने दौर के नायक के जयकारे के सिवा यह कर भी क्या सकता है ? हांं, जब जेब पर डाका पड़ने का भान होता है तो एक झुंझलाहट सी होती है. फिर, नपुंसक चुप्पी में सारा विरोध गुम हो जाता है.

मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां देश को आगे ले जाने में विफल रही हैं. तीन तलाक, 370, मन्दिर, पाकिस्तान आदि मुद्दों पर उसके प्रवक्ता जिस उत्साह से उछल कूद करते बोलते हैं उतनी ही मिमियाहट आर्थिक मामलों में उन्हें घेरने लगती है. और तब…’वे 70 साल’ उन्हें याद आने लगते हैं जो उनके अनुसार, इन विफ़लताओं के जिम्मेदार हैं. अभी कल ही तो स्वयं मोदी जी ने भी पेट्रोल के सौ पार करने की जिम्मेदारी उन्हीं 70 सालों पर डाली है.

कितना भी उछल कूद लो, कितना भी उन्माद, वैमनस्य फैला कर कर वोट हासिल कर लो, आर्थिक मामलों में ही असली परीक्षा होती है. किसी नेता की वास्तविक सफलता इससे ही आंकी जाती है कि उसके कार्यकाल में लोगों की आर्थिक स्थितियों में, उनके जीवन स्तर में कितनी बेहतरी आई.

कोई सरकार कितना टैक्स बढ़ा सकती है ? टैक्सों पर कितना सेस लगा सकती है ? अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह रास्ता भी अधिक दूर नहीं ले जा सकता और अत्यधिक टैक्सों को लादते जाने के अपने खतरे हैं. सबसे खतरनाक है, सबसे अफसोसनाक है वह चुप्पी, जो उनके होंठों पर तारी है जिन्हें हद से अधिक टैक्स और सेस के नाम पर लूटा जा रहा है.

वैसे, कुछेक प्रतिशत ऊपर के लोगों के अलावा लुट तो सब रहे हैं. कुछ विश्लेषक तो यह भी कहने लगे हैं कि इतने बड़े पैमाने पर पब्लिक सेक्टर इकाइयों के निजीकरण की योजनाएं भी एक तरह से व्यवस्थागत लूट ही हैं.

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ROHIT SHARMA

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