बुझ गई होगी टीवी स्क्रीन पर
वह चिता.
अख़बार के पन्नों की लग चुकी होंगी तहें
टीवी एंकर गरम पानी से कर रहे होंगे गरारा.
चिता का बिम्ब अब मुझे प्रभावित नहीं करता.
रोज़ – रोज़ सुलगने से बेहतर है
एक बार ही फुंक जाना.
लेकिन उस चिता को कौन फूंक रहा है
इससे पड़ता है फ़र्क.
पुलिस के लिए
एक पोस्ट अब गढ़ दी जानी चाहिए
शमशान घाट में भी.
रोज़ – रोज़ फूंकेंगे मुर्दे.
तृप्त होगी आत्मा थोड़ी.
इब्लीस का कोई रूप रंग होता है क्या ?
पर वे भी महज़ प्यादे हैं शायद
चाल तो कोई और ही चल रहा है.
समझो इसे
चिता को आग भले ही पुलिस ने लगाई
पर असल तो कोई और है
जो लिख रहा है पटकथा
कहीं दूर बैठ.
जो घुमा रहा है गोटियां
मनमाफ़िक और सौंप रहा है
चिता के लिए आग.
सबसे आसान शिकार हैं औरतें
अगर ग़रीब हैं तो अच्छा
युवा हैं तो और भी अच्छा.
दलित हैं तो सबसे अच्छा.
अरे ये ठाकुर बाभन नहीं करते बलात्कार कभी
छीssss…
वह भी दलित औरत का ?
इतिहास गवाह है
कभी नहीं किया
कभी किया ही नहीं.
रियाया की नववधुओं की
डोलियां कभी उतरी ही नहीं थी
उनके दुआरे.
उन्होंने कभी नहीं किया अपनी
पत्नियों तक का भी बलात्कार!
ये सब तो मनगढ़ंत किस्से हैं
सुनाए जाते हैं बढ़ा – चढ़ा कर
जैसे आजकल
टीवी चैनलों पर सुनाए जा रहे हैं समाचार.
उन दिनों नहीं होते थे कोई बलात्कार
न ही आज होते हैं.
नहीं हुआ था वहां कोई बलात्कार!
केवल फूंकी गई थी एक चिता.
क्योंकि और नहीं सुलगना चाहती थी वह
रोज़ – रोज़.
इसीलिए
चिता का बिम्ब मुझे प्रभावित नहीं
करता.
ये रोज़ – रोज़ का सुलगना
कतई नहीं होता मुझसे बर्दाश्त
भीतर तक बीमार हो जाती हूं मैं.
इस सुलगने का कोई इलाज हो
तो बताना.
सुना है ये रोज़ – रोज़ का सुलगना
होता है ख़तरनाक.
कोयले की खदान जैसा.
सतह के भीतर जितनी फैलती है आग
उतना ही ऊपर
बढ़ता जाता है ख़तरा,
और एक दिन हो जाता है विस्फोट.
इससे लगने वाली आग होती है
और भी ज़ियादा ख़तरनाक !
कहीं ऐसा न हो
चिता में जबरन लगी यह आग
एक रोज़ भड़क जाए इतनी
कि चूल्हे की आग
और जंगल की आग में
फर्क करना हो जाए दुश्वार ..
- अमिताशीरीं
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