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नक्सलबाड़ी उभार के दौरान उभरे महत्वपूर्ण जनवादी कवि वेणुगोपाल

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सारांश : वेणुगोपाल एक महत्वपूर्ण जनवादी कवि थे, जिन्होंने नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान अपनी पहचान बनाई. उनकी कविताओं में विद्रोह और क्रांति की भावना को व्यक्त किया गया है, जो उस समय के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को दर्शाता है. वेणुगोपाल की कविताओं में नक्सलबाड़ी विद्रोह के प्रभाव को देखा जा सकता है, जिसने भारतीय राजनीति और सामाजिक आंदोलनों पर गहरा प्रभाव डाला. वेणुगोपाल की कविताओं के कुछ मुख्य विषय हैं – विद्रोह और क्रांति0सामाजिक न्याय और समानता, राजनीतिक और आर्थिक असमानता, नक्सलबाड़ी विद्रोह के प्रभाव. वेणुगोपाल की कविताएं नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान उभरे महत्वपूर्ण जनवादी कवियों की सूची में शामिल हैं. वेणुगोपाल के अलावा, नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान कई अन्य कवियों ने भी अपनी पहचान बनाई, इनमें से कुछ प्रमुख कवियों में शामिल हैं-नबरुन भट्टाचार्य, धुर्जटी चट्टोपाध्याय, सुमन चट्टोपाध्याय. कवियों की यह सूची नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान उभरे महत्वपूर्ण जनवादी कवियों को दर्शाती है.
नक्सलबाड़ी उभार के दौरान उभरे महत्वपूर्ण जनवादी कवि वेणुगोपाल
नक्सलबाड़ी उभार के दौरान उभरे महत्वपूर्ण जनवादी कवि वेणुगोपाल (22.10.1942 से 01.09.2008)
इन्दरा राठौड़

नक्सलबाड़ी उभार के दौरान सामने आए और काफ़ी चर्चित रहे प्रमुख क्रांतिकारी कवियों में एक अति महत्वपूर्ण कवि वेणुगोपाल भी हुए. 65 वर्ष की आयु में कैंसर की बीमारी से जुझते हुए उनका निधन हुआ. उनके खाते में ‘जिनमें वे हाथ होते’, ‘हवाएं चुप नहीं रहती’ और ‘चट्टानों का जलगीत’ जैसी प्रमुख काव्य कृतियां हैं.

निसंदेह हमें जो आजादी मिली, वह अनेकों प्राणों की कीमत पर और आहुतियों के बाद मिली. तब हर आंखों, हर हाथों में एक बड़ा सपना और उम्मीद का दीया जगमगा उठा था. पर सपनों का सच में न बदलना, उसका किसी बेहतर रुप में सामने न आता देख, मोहभंग की स्थिति में वेणुगोपाल ने धारा की कमान संभाली. वेणुगोपाल की ये कविताएं तत्कालीन समय और समाज में व्याप्त भय और सुरक्षा बोध को लेकर एक कवि के दृष्टि की साफ़गोई को बयां करती है.

प्यार का वक्त

वह
या तो बीच का वक़्त होता है
या पहले का. जब भी
लड़ाई के दौरान
सांस लेने का मौक़ा मिल जाए।
उस वक़्त

जब
मैं
तुम्हारी बंद पलकें बेतहाशा चूम रहा था और
हमारी
दिन भर की लड़ाई की थकान
ख़ुशी की सिहरनों में तब्दील हो रही थी. और
हमारे हाथ
एक-दूसरे के अंगों पर फिरने के बहाने
एक-दूसरे की पोशीदा चोटों को सहला रहे थे.
उस वक़्त

कहीं कोई नहीं था. न बाहर, न भीतर. न
दिल में, न दिमाग़ में. न दोस्त, न दुश्मन. सिर्फ़

हमारे जिस्म. ठोस, समूचे और ज़िन्दा जिस्म.
सांपों के जोड़े की तरह
लहरा-लहरा कर लिपटते हुए. अंधेरे से
फूटती हुई
एक रोशनी
जो हर लहराने को
आशीर्वाद दे रही थी
उस वक़्त

हम कहां थे ? कोई नहीं जानता. हम
ख़ुद भी तो नहीं. मुझे लगता है
उस वक़्त

जब
एकदम खो जाने के बावजूद
कहीं गहरे में
यह अहसास बराबर बना रहता है
कि रात बहुत गुज़र चुकी है
कि सबेरा होते ही
हमें
दीवार के दूसरी ओर
जारी लड़ाई में
शामिल होना है. और

जब भी
कभी
यह अहसास
घना और तेज़ हो जाता है
तो
हम
एक बार फिर लहरा कर लिपट जाते हैं
क्योंकि

वह
लड़ाई की तैयारी का ज़रूरी हिस्सा है. क्योंकि

प्यार के बाद
हमारे जिस्म
और ज़्यादा ताकतवर हो जाते हैं.

आश्वस्ति

भावी जंगल और उसकी भयावनी
ताकत के बारे में सोचता हुआ
सुनसान मैदान में निपट अकेला
पेड़

मुस्कुराता है-खिलखिलाता है

और उसके आसपास उमड़ आई
नन्हें-नन्हें पौधों की बाढ़
नहीं समझ पाती
कि पेड़
अकेला पेड़
अपने अकेलेपन में
किस बात पे ख़ुश है- कि हंस रहा है ?
वे नहीं जान पाते
कि पेड़ जानता है
कि वे / अपने नन्हेंपन में भी
मैदान के भविष्य हैं.

बंद घड़ी

कोई भी पूछता है वक़्त
तो मैं बता नहीं पाता
घड़ी बन्द पड़ी है
उसमें अभी भी 1947 ही बजा हुआ है.

पता ही नहीं चल पा रहा है
कि अब क्या बजा होगा ?
1978 या जनता सरकार ?
किसी भी घड़ी बांधे व्यक्ति से पूछो
वह ऎसा ही कुछ जवाब देता है

ठीक से पता नहीं चल पाता आख़िरकार
तो मैं मज़बूर हो
‘भविष्य’ बजा लेता हूं

क्योंकि वही
एक ऎसा समय है जो
हमेशा
बजा रह सकता है.

खतरे

ख़तरे पारदर्शी होते हैं.
ख़ूबसूरत.
अपने पार भविष्य दिखाते हुए.

जैसे छोटे से गुदाज़ बदन वाली बच्ची
किसी जंगली जानवर का मुखौटा लगाए
धम्म से आ कूदे हमारे आगे
और हम डरें नहीं. बल्कि देख लें
उसके बचपन के पार
एक जवान खुशी

और गोद में उठा लें उसे.
ऐसे ही कुछ होते हैं ख़तरे.
अगर डरें तो ख़तरे और अगर
नहीं तो भविष्य दिखाते
रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े.

अस्पताल

शैया
हो भले ही रोग शैया

लेकिन
उस पर
रोगी नहीं
बल्कि लेटा है
एक योद्धा

भविष्य की रणनीति सोचता हुआ.

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