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वन अधिकार कानून, 2006 पर हमला

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वन अधिकार कानून, 2006 पर हमला

वन रक्षा कानून (FRA) के उल्लंघन को लेकर समूचे देश में 127 जगहों पर राज्य और वनों में रहनेवाली जनता के बीच टकराव चल रहा है, जिसके दौरान किसी-न-किसी तरह की नुकसान उठाने वाली जनता की संख्या 14,22,067 है. इसीलिए कुछ आवेदकों ने जिनमें से अधिकांश या तो रिटायर्ड अफसर या पूर्व जमींदार हैं या वन प्राणी सुरक्षा संस्थाएं, FRA के खिलाफ भ्रामक दुष्प्रचारों के सहारे इस कानून की संवैधाानिक वैधता को चुनौती दी है. इस कानून ने जनता को जो अधिकार प्रदान किये हैं, आवेदकों की असली मंशा उन्हें खत्म या कम करने की है.

हाल ही में भारत के सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के चलते 16 राज्यों की करीब 10 लाख से ज्यादा वनों में बसनेवाली जनता के सामने अपने घर-बार और जमीन-जायदाद से बेदखल होने का खतरा आ हाजिर हुआ है. वन अधिकार कानून (FRA), 2006 की संवैधाानिक वैधाता को चुनौती देनेवाली एक याचिका पर सुनवाई के बाद यह आदेश सामने आया है. हालांकि कुछ विपक्षी दलों और जनसंगठनों द्वारा थोड़े ही दिन पहले एक संयुक्त अपील दाखिल की गयी थी, जिसमें बताया गया था कि उपरोक्त याचिका से वन रक्षा कानून की हिफ़ाजत करने में मोदी सरकार ने लापरवाही की है. पर इस अपील के बावजूद भाजपानीत केन्द्र सरकार अपीलकर्त्ताओं द्वारा की जा रही भ्रामक मांगों के खिलाफ अदालत में किसी बहस में नहीं गयी. इस बात को मिलाकर देखें तो एक-के-बाद-एक चार वकीलों ने बहस की ही नहीं या फिर गये ही नहीं. अब तो इसमें संदेह की कोई गंजाईश नहीं रह गयी है कि यह सब दरअसल कॉरपोरेट घरानों के हित में बन रहा रक्षा कानून को रद्द कर देने के सरकारी षड्यंत्र के अलावा और कुछ नहीं है.




यह वन रक्षा कानून ढेरों संघर्षों की बदौलत पास हुआ है और अपने जन्म के समय से ही यह जंगल की भूमि के अवैध अधिग्रहणों के खिलाफ वनों में बसनेवाली जनता के संघर्ष का एक शक्तिशाली हथियार बना हुआ है. हलांकि यह सही है कि इस कानून में कुछ कमियां-कमजोरियां हैं, पर यह तो मानना ही होगा कि जंगलों की नौकरशाही और राज्य बड़े-बड़े कॉरपोरेट संस्थानों द्वारा प्राकृतिक सम्पदा की लूट-खसोट को प्रश्रय दिया जा रहा है. यह कानून उन सबके गले में कांटा बनकर फंसा हुआ है. लैन्ड कन्फिलक्ट प्रोजेक्ट द्वारा प्रस्तुत तथ्य बताते हैं, इस वन रक्षा कानून (FRA) के उल्लंघन को लेकर समूचे देश में 127 जगहों पर राज्य और वनों में रहनेवाली जनता के बीच टकराव चल रहा है, जिसके दौरान किसी-न-किसी तरह की नुकसान उठाने वाली जनता की संख्या 14,22,067 है.[1] इसीलिए कुछ आवेदकों ने जिनमें से अधिकांश या तो रिटायर्ड अफसर या पूर्व जमींदार हैं या वन प्राणी सुरक्षा संस्थाएं, FRA के खिलाफ भ्रामक दुष्प्रचारों के सहारे इस कानून की संवैधाानिक वैधता को चुनौती दी है.

इस कानून ने जनता को जो अधिकार प्रदान किये हैं, आवेदकों की असली मंशा उन्हें खत्म या कम करने की है. इसके पहले 2014 में प्रकृति के संरक्षण से जुड़े देश के कुछ चोटी के वैज्ञानिकों और वन-अधिकारों से जुड़ी कुछ संस्थाओं ने संयुक्त रूप से उपरोक्त आवेदकों के नाम एक खुल पत्र के जरिए बताया था कि ‘उनकी अपील दरअसल देश में प्राकृतिक सम्पदा की लूट-खसोट को और भी तेज कर देगी’.[2] कोर्ट द्वारा हाल ही में ऐसा आदेश देने के बाद उन लोगों ने इसकी भी निन्दा की है. हाल ही में जारी एक विज्ञप्ति में उन्होंने बताया है, ‘यह आदेश प्रकृति संरक्षण के हित में नहीं है. इसके उलट भारत में प्रकृति-संरक्षण की मामले में यह पीछे की ओर जाने वाला एक बड़ा कदम है. … प्रकृति की सुरक्षा के किसी भी टिकाऊ और असली मॉडल का एक अनिवार्य अंग है स्थानीय उपजातियों के अधिकारों की रक्षा करना और अन्तर्राष्ट्रीय कानून ने भी यही माना है. … नियमगिरी, उत्तर बंगाल, उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र से लेकर भारत में उन सभी जगहों पर वनों की रक्षा की जो कोशिशें कर रहे हैं और जो लोग कॉरपोरेट घरानों और सरकार द्वारा प्राकृतिक सम्पदा को हड़पने की कोशिशो का प्रतिरोध कर रहे हैं, यह वन रक्षा कानून उनके हाथों में एक महत्वपूर्ण हथियार की तरह काम कर रहा है.’[3]



अपीलकर्त्ताओं के अनुसार जंगलों में वनभूमि पर अधिकार से सम्बन्धित जो सारे दावे अभी तक खारिज किये जा चुके हैं, उनमें से सारे दावेदार ‘फर्जी दावेदार’ थे. वस्तुतः इन ‘फर्जी दावेदारों’ की संख्या तकरीबन 10 लाख है और फिलहाल इनमें से हर कोई बेदखल हो जाने के डर के साथ जी रहे हैं. 2018 की पहली अप्रील तक के आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश के 7 राज्यों (छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और पश्चिम बंगाल) में कुछ 42 लाख दावेदारों में से 19.34 लाख दावे खारिज हो चुके हैं. यानी तकरीबन 46.0 प्रतिशत दावे खारिज हो चुकी है. महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में खारिज हो चुके दावों का प्रतिशत क्रमशः 64, 64 और 68 है.[4] जबकि सरकार की अपनी जांचों के दौरान सामने आये तथ्य ही बताते हैं कि इनमें से अनेक दावों गैर-कानूनी रूप से खारिज किया गया है.

वन अधिकार कानून को लागू करने से सम्बन्धित भारत सरकार के जनजातियों से सम्बन्धित मामलों के मंत्रलय ने 2012 की जुलाई को लिखे एक पत्र में ऐसे अनेक चीजों की मौजूदगी स्वीकार की थी, जो ‘इस कानून को लागू करने में रूकावट डाल रही है.[5] इस पत्र में ठोस रूप से ‘विकास मूलक परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित’ ऐसे क्षेत्रों का उल्लेख किया गया था, जहां ‘इस कानून के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन कर’ जनजातियों की जनता को बाजबरन दूसरी जगह हटाया जा रहा है या कहें तो विस्थापित कर दिया जा रहा है. साथ ही इस पत्र में इसका भी उल्लेख था कि कुछ राज्यों में वन-क्षेत्रों की नौकरशाही द्वारा जानबूझकर की गयी बदमाशी के चलते गैर-कानूनी रूप से दावेदारों के दावे खारिज कर दिये जा रहे हैं. फिर इस पत्र के साथ ऐसी कुछ गाईडलाइन भी दी गयी थी कि किस प्रकार इस कानून को लागू किया जा सकता है. इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि ‘जब तक इस कानून के जरिए जंगल पर अधिकार को स्वीकृति देने और उस अधिकार को जनता के हाथों में सौंपने की प्रक्रिया चलेगी, तब तक किसी भी तरह का विस्थापन उचित नहीं होगा.’




इस वन रक्षा कानून (FRA) की एक बड़ी समस्या है, इसमें उल्लेखित अदर ट्रेडिशनल फॉरेस्ट ड्वेलपर्स (OTFD) यानी अन्य परम्परागत वन निवासी – ये OTFD कौन हो सकेंगे. इसमें कहा गया है, ‘वह सारी जनता या समुदाय जो 2005 की 13 तारीख के पहले के कम-से-कम नए वर्षों से प्राथमिक रूप से जंगलों में रह रहे हैं और जीवन-यापन के लिए जंगल या जंगल की भूमि पर निर्भरशील हैं.[6] इस तरह की संज्ञा-निर्धारण के बाद वस्तुतः कई समस्याएं पैदा होती है. वह इसलिए कि हमारे देश में ढेरों जंगल कानूनी रूप से जंगली क्षेत्र के रूप में निर्धारित ही हुए हैं 1950 के दशक में. इसके अलावा हिसाब को यदि 75 वर्ष पीछे ले जाया जाए तो हमें एक ऐसे समय में पहुंचना होगा जबकि इन वन-क्षेत्रों का अधिकांश ही राजाओं, जमींदारों की रियासतों या जमीन्दारियों के अधीन था.

स्वाभाविक रूप से ही इन सभी जंगली क्षेत्रों में कौन-से लोग रहा करते थे, उनसे सम्बन्धित कोई सर्वे, कोई आंकड़े, तथ्य या सरकारी तथ्य भी नहीं मिलते. भ्रष्टाचार में डूबा जंगली क्षेत्रों का नौकरशाही तंत्र हमेशा ऐसी स्थिति का पूरा फायदा उठाता है. जंगल पर अधिकार से सम्बन्धित OTFD लोगों के दावे गैर-कानूनी रूप से खारिज कर दिये जाते हैं, फिर भी वे इसे समझ नहीं पाते, वह इसलिए कि वे शिक्षा के मामले में पीछे हैं और इन विषयों पर उनमें जागरूकता का अभाव है. जबकि FRA से सम्बन्धित कई सारे सरकारी कागजातों में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि FRA ऐसी कोई मांग नहीं करता कि दावेदार और उनके पूर्वज किसी खास गांव में लगातार पिछले 75 वर्षों से निवास करते आ रहे हैं, इसके सबूत देने होंगे- आम रूप से जंगल और जंगल की भूमि पर उनकी निर्भरशीलता ही जंगलों पर उनके अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए काफी है.[7]



इसके अलावा यहां तक कि मौखिक गवाही के बल पर भी वे खुद को योग्य दावेदार ठहरा सकते है. यहां तक कि OTFD की परिभाषा में ‘जनता या सम्प्रदाय’ का उल्लेख ही यह प्रमाणित करता है कि एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में OTFD का होने की स्वीकृति की जगह सम्प्रदाय का होने से भी स्वीकृति संभव है. पर वास्तविक हालत इससे साफ अलग है. 2018 की फरवरी तक प्राप्त आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उड़ीसा में एसटी दावेदारों में क्रमशः 58, 38 और 70 प्रतिशत दावेदारों को स्वीकृति मिली है, जबकि OTFD के मामले में यह स्वीकृति क्रमशः 10, 16 और 2 प्रतिशत दावेदारों को मिली है.[8] यहां तक कि सरकारी फाइलों में भी यह स्वीकार किया गया है कि ढेरों मामलों में ‘तीन पीढि़यों से भूमि की मिल्कियत होने के सबूत के अभाव’ के बहाने दावों को खारिज कर दिया गया है, जो पूरी तरह मौजूदा कानून के विरूद्ध है क्योंकि ऐसा कोई प्रावधान है ही नहीं कि OTFD का होने की स्वीकृति पाने के लिए भूमि की मिल्कियत दिखानी होगी.[7]

अतः अदालत में सरकारी वकीलों के इस धारावाहिक रूप से और जानबूझकर बरते गये मौन को एवं हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को वनों में रहने वाली जनता के प्रतिरोध का दमन करने के एक नये-तरीके के रूप में ही देखा जाना चाहिए. समूचे देश में ‘भाजपा सरकार जवाब दो !’ के बैनर तले विभिन्न वन-अधिकार रक्षा संगठनों व समुदायों के जन-प्रतिवाद के दवाब से फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने विस्थापन के इस आदेश पर रोक लगाने के निर्देश दिये हैं. पर भविष्य में भी कॉरपोरेट घरानों के लूट-खसोट से देश के जल-जंगल-जमीन की रक्षा करने के संघर्ष में जंगलवासी जनता के कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़ा होना, देश के सभी जागरूक व चेतनशील जनसमुदाय के लिए हर तरह से जरूरी होगा और आकांक्षित भी.




सन्दर्भ :

[1]URL: https://www.landconflictwatch.org/node/498/all/all/all/all/13
(Retrieved on: 28/02/2019)
[2] URL: https://forestrightsact.com/statements/ (Retrieved on: 28/02/2019)
[3] URL: https://forestrightsact.com/2019/02/27/conservationistsspeak‐
out‐against‐evictions‐say‐this‐is‐not‐pro‐conservation/
(Retrieved on: 01/03/2019)
[4] URL: https://www.telegraphindia.com/india/tribal‐backlash‐on‐bjpbrews/
cid/1685576 (Retrieved on 28/02/2019)
[5] Letter of MoTA to The Chief Secretaries of all State Governments and
The Administrators of all Union Territories, dated 12th July 2012.
[6]The Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers
(Recognition of Forest Rights) Act, 2006.
[7] Frequently Asked Questions on the Forest Rights Act; jointly
published by MoTA and UNDP.
[8]URL: https://thewire.in/rights/the‐other‐in‐the‐forest‐rights‐act‐hasbeen‐ignored‐for‐years (Retrieved on: 28/02/2019)

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