मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत सम्पूर्ण आर्थिक सहायता प्राप्त स्वायत्त संस्थान महर्षि सन्दीपनी राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान (एमएसआरवीपी) को भारतीय शिक्षा बोर्ड (बीएसबी) के नाम से एक नये राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड के रूप में परिवर्तित करने की अनुमति प्रदान की गयी है. इस बोर्ड का उद्देश्य ‘वैदिक शिक्षा-व्यवस्था का मानकीकरण करना’ है. 1987 ई. में ‘वेद विद्या’ (वैदिक शिक्षा-व्यवस्था) को प्रचारित करने के उद्देश्य से इस एमएसआरवीपी संस्था की स्थापना की गयी थी. जिस बैठक से इस प्रतिष्ठान को यह अनुमति दी गयी थी, उसकी अध्यक्षता मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ने की थी. राज्य के कानून-व्यवस्था मंत्री पी. पी. चौधरी ने इस बैठक में भाग लिया था. 10वीं और 12वीं के बराबर के दर्जे के रूप में यह बोर्ड छात्र-छात्राओं को क्रमशः वेद-भूषण और वेद-विभूषण की उपाधि प्रदान करेगा.
जावेडकर के वक्तव्य के मुताबिक इसका उद्देश्य वैदिक शिक्षा-व्यवस्था के साथ आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था का मेल बिठाना है, जिससे कि छात्र-छात्रएं संस्कृत भाषा और वेद को अपने प्रमुख विषय और अन्य आधुनिक विषयों को अपने गौण विषय के रूप में अपना सकें.[1] इस बीएसबी पर वैदिक शिक्षा-व्यवस्था, संस्कृत-शिक्षा, विभिन्न शास्त्रें और दर्शनों तथा ‘भारतीय परम्परा’ जैसे ‘भारत के परम्परागत ज्ञान’ के मानकीकरण की जिम्मेवारी दी गयी है. यह बोर्ड पाठ्यक्रम बनायेगा, छात्र-छात्राओं की परीक्षाएं भी लेगा और सर्टिफिकेट भी जारी कर सकेगा. रामदेव का आचार्य कुलम, विद्या भारती विद्यालय (आरएसएस द्वारा संचालित) और गुरूकुल (आर्य समाज द्वारा संचालित) आदि जो सारे शिक्षा-संस्थान अभी सीबीएसई जैसे किसी बोर्ड के अन्तर्गत नहीं हैं, वहीं मूलतः इस नये बोर्ड से उपकृत होंगे.[2]
प्राथमिक तौर पर बाबा रामदेव के पंतजलि योग पीठ द्वारा संचालित हरिद्वार के वैदिक एजुकेशन रिसर्च इन्टिच्यूट (वीईआरआई) ने 2015 में इस सिलसिले में एक प्रस्ताव पेश किया था. यदि राज्य निजी बोर्ड गठित करने की अनुमति दे तो भविष्य में इस तरह के और भी आवेदन आ सकते हैं, यह कहते हुए तब वह प्रस्ताव खारिज कर दिया गया था. 2016 में तत्कालीन मानव संसाधन व विकास मंत्री स्मृति ईरानी के शासनकाल में इस प्रकार का एक और प्रस्ताव लाया गया था. इसके बाद इस साल की 12 फरवरी को सरकार निजी तत्वावधान में इस बोर्ड का गठन करने के लिए राजी हो गयी. आने वाले चुनावों की बात दिमाग में रखते हुए ‘एक्सप्रेशन ऑफ इन्टरेस्ट’ सहित आवेदन-पत्र जमा करने के लिए मात्र एक सप्ताह का समय दिया गया.
सेलेक्शन कमिटी के निर्णय के मुताबिक अंत में जाकर पंतजलि योगपीठ का प्रस्ताव मंजूर कर लिया गया. इसके लिये अन्य प्रतियोगी दो थे – एक, रीतनन्द बालदेव एजुकेशन फाउन्डेशन (जो लोग एमिटी ग्रुप ऑफ इंस्टिच्यूशन का संचालन करते हैं. और दूसरे, पुणे का महाराष्ट्र इंस्टिच्यूशन ऑफ टेक्नोलॉजी. पंतजलि योग पीठ के प्रतिनिधि आचार्य बालकृष्ण ने बताया है कि उनका ट्रस्ट इस बोर्ड के गठन के लिए 21 करोड़ रूपयों का निवेश करेगा और इसके प्रधान कार्यालय के लिये जरूरी संरचना निर्मित करने के इंतजाम उनके पास हैं. इसके अलावा भी वे इस प्रतिष्ठान के चेयरपर्सन के रूप में बाबा रामदेव को नियुक्त करेंगे. यह माना जा सकता है कि बालकृष्ण द्वारा 21 करोड़ रूपयों का निवेश करने का आश्वासन (जो तीनों आवेदकों द्वारा लगायी गयी बोली में सबसे ज्यादा था) ही उनको चयन करने का मुख्य कारण था.[3]
धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपनी विषमतामूलक नीतियों को प्रचारित करने के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार ने इतिहास की पुस्तकों में लिखित इतिहास तक को बदल देने की कोशिशें की है. स्कूली पाठ्यपुस्तकों के लेखों से छेड़छाड़ की है, जिनका वैज्ञानिक पद्धति से कोई लेना-देना नहीं है, ऐसे विभिन्न संदेहास्पद अनुसंधानमूलक परियोजनाओं को आर्थिक मदद दी है और सरकार की ओर से की गयी, विभिन्न अवैज्ञानिक या छद्म वैज्ञानिक (स्युडो साइन्टिफिक) टिपण्णियों का परोक्ष रूप से अनदेखी की है. इन सबके ढेरों सबूत उपलब्ध हैं.[4] अतीत में भाजपा शासित राज्यों में स्कूली शिक्षा के भगवाकरण की जो कोशिशें की गयी हैं, वे अब 2014 के बाद से समूचे देश में ही शुरू की गयी है.
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस बीएसबी का गठन वस्तुतः वेदों और हिन्दुधर्म के अन्य ग्रंथों में प्रचारित विश्वासों को सभी लोगों पर लादने की केन्द्र की एक कोशिश है और श्रमसाध्य व कठिन जांच-पड़ताल व परीक्षण-निरीक्षण, तर्को एवं वैज्ञानिक मानसिकता व प्रकृति के आधार पर गठित शिक्षा-व्यवस्था पर एक प्रत्यक्ष आक्रमण है.
अगर सही में कहें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिन्दु परिषद (वीएचपी) और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों के समक्ष भारतीय जनता के नैतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक अधःपतन के लिए यह ‘पश्चिमी’ शिक्षा-व्यवस्था जिम्मेदार है. हालांकि यह सही है कि औपनिवेशिक भारत में मैकाले द्वारा परवर्तित अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था का बुनियादी उद्देश्य निचले स्तर की सरकारी नौकरियों के लिए भारतीयों को तैयार करना व नियुक्त करना था, जिससे कि भारतीयों को और भी ज्यादा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति अनुरक्त व शासन सुलभ बनाया जा सके. पर शिक्षा हासिल करने के मामले में पहले ब्राह्मणों और अन्य ऊंची जातियों के लोगों का जो एकाधिकार था, वह इस नई शिक्षा-व्यवस्था से एक हद तक कम हुआ.[5]
हालांकि सही है कि औपनिवेशिक खुमारी की स्थिति को दूर करने और वास्तविक अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण करने के लिए एक बड़े आकार के सुधार की जरूरत है. पर इसी बहाने मोदी सरकार मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था को पीछे की ओर ले जाते हुए इसे जातिगत विषमता के आधार गठित शिक्षा-व्यवस्था के स्तर तक ले जाना चाहती है. ऋग्देव के दशम मंडल के पुरूष सूक्त की 91वीं ऋचा ही चतुर्वर्ण पर आधारित हिन्दु सामाजिक व्यवस्था का श्रोत है, जिसमें पहले ब्राह्मण, फिर राजन्य (क्षत्रिय’ शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं है), तब वैश्य और फिर शूद्र, इन चार वर्णों का उल्लेख मिलता है.[6]
तब सवाल है आज भी क्या इस भेद-भाव वाले ढांचे को मानकर चला जाएगा ? फिर अतीत में जो अछूत थे, जो आदिवासी सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं या फिर जो धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हैं, उन सभी जनसमुदायों तक को किस प्रकार इस ढांचे में शामिल किया जाएगा ? महिलाओं और दलितों की स्थिति तब क्या होगी ? जो सारे छात्र-छात्राएं वैदिक शिक्षा हासिल करेंगे, वे क्या तब ब्राह्मणवादी आचार-आचरणों व अनुष्ठानों का भी पालन करेंगे ? इस सिलसिले में उल्लेख किया ही जा सकता है कि देश के विभिन्न स्थानों में जो वैदिक पाठशालाएं हैं, उनमें जात-पात का काफी प्रभाव दिखता है.[7] और आज यदि इसका और भी प्रचार-प्रसार जारी रहे, तो निःसंदेह समाज पर इसका एक भयानक दुष्प्रभाव पड़ेगा.
अतः बीएसबी की स्थापना करने के विचार और ‘वैदिक’ को ‘भारतीय’ के समानार्थक बना देने की यह कोशिश दरअसल ब्राह्मणवादी प्रभुत्व और भाजपा सरकार व दक्षिणपंथी संगठनों के जातिगत आधिपत्य को फिर से लौटा लाने की एक खुली कोशिश है.
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