सब कुछ बिकता है यहां, ये हिंदोस्तां है जनाब
ईमान बिकता है, ताज बिकता है, सांसद बिकता है.
तुम्हारी इस मासूमियत पर मर न जाऊं कहीं
जब खरीदार की कदमपोशी में तुम्हारा सामान बिकता है.
किस तवारीख की बात करते हो तुम जनाब
तुम्हारा माजी, मुस्तकबिल और आज बिकता है.
कहीं रेल, कहीं स्टेशन, कहीं किसान बिकता है
गुलामों की मंडी है ये बस एक नाम बिकता है.
तुमसे मुखातिब हुए तो बीत गई हैं सदियां
जिस घर में मुफ्त में अखलाक बिकता है.
आदमी बस एक गिनती है, गुमनाम लाश हो गोया
संदल के जंगल में अब सिर्फ सांप बिकता है.
नीलाम घर के भारी हथौड़े के नीचे
ये बेहया मुल्क बदनाम बिकता है.
उठो, अब इस सैलाब की बांहें मरोड़ दो
मुर्दा जिस्मों से नोचे गए यहां कफन बिकता है.
- सुब्रतो चटर्जी
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]