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पराली पर कोहराम : किसान नहीं सरकार की नीतियां जिम्मेदार

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पराली पर कोहराम : किसान नहीं सरकार की नीतियां जिम्मेदार है
पराली पर कोहराम : किसान नहीं सरकार की नीतियां जिम्मेदार है
ईं. राहुल पटेल
राली का सच जानने के लिए लेख को पूरा पढ़ें कि कैसे यह नगण्य समस्या है और जितना भी है, किसानों से ज्यादा इसके लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं. समाधान सिर्फ सरकार के वश का है, किसानों के हाथ से बाहर का चीज है. सरकार शहरी वायु प्रदूषण के अपने 97% का ठीकरा पराली के 3% पर फोड़ कर शहरी लोगों और देश के बुद्धिजीवियों को गुमराह कर रही है. इस झूठ को बरकरार रखने के लिए अरबों रुपये फूंक रही है तथा किसानों को प्रताड़ित कर रही है. यह सब अविलंब बंद होना चाहिए – सम्पादक

पराली का सच, प्राथमिकता और आर्थिक निर्णय

फसलों (मुख्यतः धान, गेहूं) की कटाई के बाद बचे अवशेष को पराली या पलहारी या पुआल कहते हैं. किसानों द्वारा इसे बड़ी मात्रा में खेतों में ही जलाना आज भारत में चर्चा का विषय बना हुआ है. सरकारें, विशेषज्ञ इस प्रैक्टिस को खलनायक घोषित कर रहे हैं. वे इसे वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारक मान रहे हैं. वे किसानों को इस प्रैक्टिस से विमुख करने के लिए मीडिया के माध्यम से तरह तरह के तर्क परोस रहे हैं – जैसे मिट्टी की उर्वरकता में कमी, वायु प्रदूषण से होने वाली समस्याओं को गिनाना आदि. रोहतास, बिहार के एक जिलाधिकारी ने तो हद ही कर दी, जब उसने मेरे सामने यह दावा पेश किया कि वह पराली जलाने से हानि और नहीं जलाने से लाभ पर एक एक घंटा तक बोल सकता है.

सरकारें पराली जलाने से रोकने के लिए किसानों को सामाजिक तौर पर बहुत बड़ा विलेन बताने, उनके ही बच्चों की नजरों में विद्यालयों में शपथ जैसे हथकंडे अपनाकर उनकी बेईज्जती करने, जेल में बंद करने, जुर्माना लगाने, अनुदान बंद करने, निगरानी रखने के लिए सैटेलाइट और अन्य महंगे तकनीक का इस्तेमाल करने, पराली नहीं जलाने के लिए अरबों की लागत से बहुत बड़े स्तर पर प्रचार करवाने आदि जैसे हरसंभव प्रयास कर रही है. 10 दिसंबर, 2015 को NGT ने राजस्थान, हरियाणा, यूपी और पंजाब में पराली जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया. पराली जलाना अब IPC, सेक्शन 188 और Air and pollution control Act, 1981 के तहत कानूनन अपराध है. अधिकतम 5 साल जेल या 1 करोड़ रुपया तक के जुर्माना का प्रावधान है.

स्पष्ट है कि सरकारें पराली को वायु प्रदूषण के मुख्य कारणों में से मानती है, जिसे रोकना सबसे आसान है, किसानों को भयभीत कर दो और किसानों को स्वयं भी इससे घाटा है. अतः पराली पर लगाम लगाने के लिए सरकारें कड़े कदम उठाने के लिए भी तैयार है. तो, यदि किसान वायु प्रदूषण और मिट्टी की बर्बादी जैसी चीजों के अलावा सरकारी धमकियों की गंभीरता समझते हुए भी पराली जलाना जारी रखे हुए है तो इस पर थोड़ी गहराई से सोचने की आवश्यकता है.

खेती पहले भी होती थी. तो, यह पहले कैसे एक समस्या नहीं थी, जो अब बन गयी है ? हरित क्रांति के पूर्व में मुख्यतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था थी. गांवों में निजी स्तर का पशुपालन था. ट्रैक्टर का चलन नहीं था. बैल और हल से कृषि कार्य किये जाते थे. हाथ से कटाई होती थी. लोग पुआल सहित फसल को खलिहान में लाते थे. दवरी से अन्न और पुआल को अलग किया जाता था. पुआल को पशुओं को खाने के लिए दे दिया जाता था.

अधिकांश किसानों के घर में बैलों के अलावा गाय, भैंस भी रहते थे. जो परिवार के पोषण के लिए दूध और खरीद बेच से आय के स्रोत बने हुए थे. इस पुआल से इन पशुओं के लिए सालों भर के लिए भोजन की व्यवस्था हो जाती थी. यानी पशु रखना बोझ नहीं पूंजी था. परिवार अभी-अभी बंटना शुरू हुए थे. रुपये की अर्थव्यवस्था ने अभी इतनी गहरी जड़ें नहीं जमाई थी. इसलिए अधिकांश लोगों के पास पशु और पुआल रखने के लिए पर्याप्त जगह था. लोग गांव छोड़कर अभी कमाने के लिए बहुत कम बाहर निकले थे, तो खेती और पशुपालन के लिए परिवार में लोग थे.

उर्वरक, पटवन की व्यवस्था, कीटनाशक, नए प्रकार के बीज आदि का इस्तेमाल अभी जोर नहीं पकड़ा था. इसलिए प्रति एकड़ धान, गेहूं का उत्पादन भी कम ही होता था, तो पराली भी अपेक्षाकृत कम था. यही नहीं धान और गेहूं के अलावा अभी मोटे अनाज का भी अच्छा खासा उत्पादन हो रहा था. यह भी पराली के कम उत्पादन का कारण था. इस तरह से व्यक्तिगत स्तर पर पराली का उत्पादन और निपटान दोनों हो जाता था. पर समय बीतता गया और परिस्थिति बदलती गयी.

अभी तक सरकारें पराली की समस्या को सामाजिक समस्या के रूप में देख रही थीं, पर, अब धीरे-धीरे सरकारों और विशेषज्ञों को समझ मे आने लगा है कि यह एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और यह समस्या सरकारों की अपनी देन है. हाथ और हल जैसे परंपरागत तरीके से कृषि कार्य में उत्पादन क्षमता कम होने तथा समय ज्यादा लगने के कारण, हरित क्रांति के अंतर्गत सरकार द्वारा अनुदान के रूप में कृषि संयंत्रों को बढ़ावा दिया गया. हार्वेस्टर उसी नीति का देन है और पराली हार्वेस्टर का देन है.

फसल कटाई के समय, ये संयंत्र पराली खेतों में ही छोड़ देते हैं, जिससे निपटने के लिए 80 के मशीनीकरण बढ़ने के दशक में स्वयं सरकार ने ही इन्हें खेतों में जलाना, किसानों को.उपाय के रूप में बताया था. हार्वेस्टर का उपयोग बढ़ता गया, पराली की समस्या विकराल होती गयी. आज उसी उपाय को लेकर किसान और सरकारें आमने सामने हैं.

पर, किसान इस पराली को हाथ से या मशीन से बटोरकर घर भी तो ले जा सकते थे. यह बात तत्कालीन सरकारों को क्‍या नहीं सुझा या बात कुछ और थी ? हरित क्रांति की ही देन उर्वरक, कीटनाशक, नए बीज तथा पटवन की अपेक्षाकृत अच्छी व्यवस्था ने प्रति एकड़ फसलों का उत्पादन 3-4 गुणा बढ़ा दिया. 1950-51 में 6.68 क्विंटल प्रति एकड़ से चावल का उत्पादन 2014-15 में 23.90 क्विंटल प्रति एकड़ हो गया. यह इसी दौरान 20.58 मिलियन टन से लगभग 5 गुणा बढ़कर 104.86 मिलियन टन हो गया. चावल की रोपाई क्षेत्र में भी वृद्धि हुई. इस दौरान रोपाई क्षेत्र 30.81 मिलियन हेक्टेयर से 1.42 गुणा बढ़कर 43.86 मिलियन हेक्टेयर हो गया.[1]

इसी प्रकार 1950-51 में गेहूं के 6.46 मिलियन टन से लगभग 5 गुणा बढ़कर 2020-21 में यह 94.88 मिलियन टन हो गया. इस दौरान 6.63 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से लगभग 5 गुणा बढ़कर 31.40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गया. रोपाई क्षेत्र 9.75 मिलियन हेक्टेयर से 3 गुणा बढ़कर 30 मिलियन हेक्टेयर हो गया.[2] यह सब हरित क्रांति के लक्ष्यों में से था.

बाजार में मोटे अनाजों की मांग खत्म हो गयी. गांव स्तर पर गेहूं, धान को छोड़कर अन्य फसलों की खरीद बिक्री का कोई सुचारू तंत्र नहीं बन पाया. फसल कितना भी खराब हो, दाम कितना भी गिरे, इन दो फसलों में किसानों को कुछ न कुछ मिल ही जाता है, यानी अन्य फसलों की तुलना में इनकी खेती कम रिस्की है. तो गेहूं, धान ने अन्य फसलों की जगह ले ली. 2000-01 से 2010-11 के बीच मात्र दस सालों में ही मोटे अनाज की रोपाई क्षेत्र में 2.6 मिलियन हेक्टेयर की कमी आयी थी. RBI के ‘Handbook of statistics on Indian economy’ के आंकड़ों के अनुसार 1950-70 के बीच मोटे अनाजों की रोपाई क्षेत्र 48 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 2019 में लगभग आधा 22 मिलियन हेक्टेयर रह गया. इस दौरान चावल की रोपाई क्षेत्र लगभग 30.81 से लगभग 47 मिलियन हेक्टेयर हो गया और गेहूं का 9.75 से बढ़कर लगभग 30 मिलियन हेक्टेयर हो गया.

अनेकों अध्ययनों (Pingali et al. 2017, Aditya et al., 2017, Roy 2017; Eliazer Nelson et al., 2019) का भी निष्कर्ष लगभग वही है कि हरित क्रांति के दौरान चावल, गेहूं के उत्पादन को मिशन मोड में चलाया गया, जिसका नतीजा रहा कि मोटे अनाज की जगह चावल और गेहूं ने ले लिया. चित्र 1 देखें.

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चित्र – 1

यही नहीं, आज अनेकों राज्यों में वन्य पशुओं से तंग आकर किसान फसलों में विविधता कम कर दिए हैं. विविधता की स्थिति में वन्य पशु रुचिकर फसलों पर स्वभावतः चोट करते हैं, पर, इससे कुछ किसान अन्यों की अपेक्षा ज्यादा हानि सहते हैं. इसके उपाय के रूप में सभी किसान एक ही तरह का फसल बोने की कोशिश करते हैं, ताकि वन्य जीवों द्वारा भेदभाव की गुंजाइश कम हो. यह भी कारण है कि गेहूं, धान अन्य फसलों की जगह ले चुके हैं.

इन सब कारणों से ये दोनों फसल पिछले 30-40 सालों में धीरे धीरे मुख्य फसल के रूप में उभरे और साथ में पराली का उत्पादन भी कई गुणा बढ़ा. यह आज 350 मिलियन टन है, जो कुल पराली का 70% है.

पर, इन परालियों को पशुओं को क्यों नही खिलाया जा रहा ? एक नजर जरा पशुपालन के ट्रेंड पर डालिये. गांव देहातों में निजी स्तर का पशुपालन एकदम घटा है. रुपये की इस अर्थव्यवस्था ने व्यक्तिवाद और उपभोक्‍तावाद को बढ़ावा दिया है. परिवार बिखरते जा रहे हैं. बंटवारा से पशु रखने और उनके लिए सालों भर का भूसा पवटा रखने की कौन कहे, स्वयं के रहने के लिए ही पर्याप्त कमरे नहीं है. लोगों को बंटवारे में दालान तक में रहना पड़ रहा है. अत्यंत छोटे परिवारों में एक ही वयस्क पुरुष के गांव में बचे रहने से भी लोग पशुपालन छोड़ रहे हैं. केवल खेती के समय उपस्थित रहकर बाकी समय शहर पकड़ना भी एक आम प्रैक्टिस हो गयी है.

बच्चों के बालिग होने पर अभिभावक की कोशिश रहती है कि वह कहीं बाहर कमाने के लिए जाए. खेती में कुछ रखा नहीं है यानी मेहनत की तुलना में आय नहीं है या फिर इसको ऐसे सोच सकते हैं कि जब कुछ लोगों का जीवन स्तर ऊंचा दिख रहा है तो वे ही जहालत में क्यों रहे ! इसतरह से पशुपालन के लिए घरों में पुरुष उपलब्धता में भारी कमी आने से निजी स्तर का पशुपालन घटा है. पर, पशुपालन के आंकड़े बता रहे हैं कि पशुपालन पहले से कुछ प्रतिशत बढ़ा है.पराली के मुख्य उपभोक्ता पशुओं (bovone population) की संख्या 1951 में 98.7 मिलियन से 2019 में 302.3 मिलियन यानी लगभग 0.5 गुणा (50%) बढ़ा है.(देखें चित्र 2).

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चित्र – 2

गाय पालन घटा है, भैंस पालन बढ़ा है (देखें चित्र 3). [3]

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चित्र – 3

ऐसा इसलिए कि संगठित पशुपालन डेयरी फार्म के रूप में बढ़ा है. इस हिसाब से कम से कम पशुओं की संख्या के हिसाब से पराली का उपभोग कुछ प्रतिशत बढ़ना ही चाहिए था. पर, हो उल्टा रहा है. इन डेयरी फार्मों में फैक्ट्री में बने पशु आहार पराली की जगह ले रहे हैं.

इस तरह से पराली का उत्पादन जहां कई गुणा बढ़ा है, वहीं उसका उपभोग घटा है. हर बार फसल कटाई के बाद खेतों में पराली का ढेर लगना प्रत्येक किसान के लिए एक विकराल समस्या बन चुका है. किसानों के व्यक्तिगत स्तर पर इतनी बड़ी मात्रा में पराली से निपटने का, उन्हें जलाने के सिवाय, कोई दूसरा सस्ता उपाय फिलहाल नजर नही आ रहा है. सस्ता इसलिए कि फसलों के उचित मूल्य न मिलने से किसानी घाटे में चल रही है. पिछले 30-40 सालों में गांवों से खेती छोड़कर 10,000 से 15000/- रुपये की मामूली नौकरी के लिए शहरों में पलायन, किसानों द्वारा आत्महत्या, कृषि ऋण माफ करने की आवश्यकता अदि से स्पष्ट है कि किसानों की बदहाली के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं.

सरकारें फसलों का उचित मूल्य नही दे रही हैं, ना ही दिलवा पा रही हैं, रोजगार सृजित नहीं कर पा रही हैं, सरकारी विभागों में दस बार दौड़ने और बिना पैसे के कोई काम नहीं होने का कुछ उपाय नहीं कर पा रही हैं और इस तरह की बहुत सारी छोटी बड़ी कमियों के कारण किसान बदहाल होता जा रहा है. ऐसे में किसान पराली ठिकाने लगाने का खर्च वहन करना नही चाहता. सुप्रीम कोर्ट किसानों के इस आर्थिक निर्णय को अच्छे से समझती है और इसी से 100/- रुपया प्रति क्विंटल पराली को ठिकाने लगाने का मुआवजा देने का तीन राज्य की सरकारों को उसने निर्देश भी दिया था. वो ऐसा समझती है कि किसानों को सिर्फ प्रोत्साहित ही किया जा सकता है. ऐसे में कोई भी उपाय, जिसमें अपनी जेब से कुछ जाना ही हो, किसानों को और घाटे में डालता है और इसलिए उनके लिए संभव नहीं है. दूसरा कोई उपाय निकलना किसानों के व्यक्तिगत वश की बात भी नहीं है.

अतः समाधान उपलब्ध कराने के बजाय सरकारों द्वारा किसानों को तरह से तरह प्रताड़ित करना दर्शाता है कि उनके पास स्वयं कोई
समाधान नहीं है और वे वो चीजें कर रही हैं, जो हमेशा से जानती हैं और उनके लिए सबसे आसान है.

जिस तरह से सरकारें पराली को जलाने के बजाय कहीं ठिकाने लगाने या मिट्टी में मिला देने के फायदे गिना रही हैं तो इसका मतलब कि सरकारों को समझ मे नहीं आ रहा है कि जिस चीज में किसान को फायदा दिखाई पड़ेगा उसको अपनाने के लिए चिरौरी करने की आवश्यकता नहीं है. आखिर ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, उर्वरक, कीटनाशक, नए बीज के लिए सरकार ने प्रचार में करोड़ों खर्च नहीं किये थे. किसान को खूब समझ में आता है, ये सरकारी अधिकारी हैं, जिनको कम समझ मे आता है.

पराली ठिकाने लगाने के फौरी विकल्प

सबसे पहले पराली ठिकाने लगाने के फौरी विकल्पों के बारे में थोड़ा चर्चा किया जाए. ये हैं, अवशेषों को बटोरकर कहीं ठिकाना लगाना, टुकड़े कर मिट्टी में मिलाना या जलाना है.

  1. बटोरकर कहीं ठिकाना लगाने के लिए अभी कोई प्रोटोकॉल नहीं है कि कैसे बटोरा जाए, बटोरकर कहां रखा जाए, उसके साथ क्या किया जाए, इसमे लगे पैसे को कौन वहन करे.
  2. टुकड़े कर मिट्टी में मिलाने के लिए हैप्पी सीडर तथा सुपर सीडर बाजार में उपलब्ध हैं. सरकार उस पर अनुदान भी देती है. अनुदान की कहानी यह है कि खरीफ के बीज का अनुदान राशि जो 3000-4000/- जैसी मामूली रकम है, 9 महीने होने को आये, अभी तक नहीं मिला है. ट्रैक्टर अनुदान 2 साल होने को आया, अभी तक नहीं मिला है. किसान की हालत वैसे ही खस्ती है. वह हजार रुपये जैसी मामूली रकम भी इतने लंबे समय के लिए लगाने के लिए तैयार नहीं है. अनुदान को लेकर किसानों के बीच सरकार की साख बहुत ही खराब है. दूसरा कि यदि कोई लेकर भाड़े में चलाए तो उसका भाड़ा कौन भरेगा ?
  3. जलाना बहुत आसान है. सड़कों, अयस्क उत्खनन, बिजली, पटवन के लिए बांध बनाने के लिए जंगल साफ करना, आर्थिक विकास के नाम पर उद्योग धंधों से वायु और जल प्रदूषण होने देना, जिस प्रकार सरकार का आर्थिक निर्णय है, उसी प्रकार पराली जलाना किसानों का आर्थिक निर्णय है. यदि विकास के नाम पर पर्यावरण को हो रहे क्षति को पर्यावरण समीक्षा से बाहर रखा जा रहा है तो प्रदूषण के एक आंशिक कारक के लिए किसानों को जेल तक भेजने की बात सरासर अन्याय है, सरकार की बरियारी है.

कोरोना के लौकडाउन में केंद्र सरकार का विकास और प्रकृति के बीच संतुलन कायम करना देखिए –

  1. 12 मार्च 2020 को Ministry of Environment, Forest and Climate change (MoEF & CC) द्वारा 2006 के Environment Impact Assessment (EIA) के नोटिफिकेशन के जगह पर नया नोटिफिकेशन लाया गया. इसके अनुसार Environmental Clearance लेना आसान हो जाएगा. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह होगा कि अब पब्लिक कंसल्टेशन की जरूरत नहीं होगी, यानी वहां की जनता उस प्रोजेक्ट के पक्ष में है कि नहीं, यह जानने की कोई जरूरत नहीं है.
  2. National Board of Wildlife (NBWL) ने 4 राज्यों के बहुत सारे प्रोजेक्ट्स को क्लीयरेंस दे दिया. इनमें नागपुर मुम्बई सुपर हाईवे है, जिसमें 32,000 पेड़ काटने हैं, गोआ में एक हाईवे है जो मोल्लेम वन्य जीवन अभ्यारण्य (Mollem Wildlife Sanctuary) से होकर गुजरेगा, असम के देहिंग पटकई हाथी अभ्यारण्य (Dehing Pankaj Elephant Reserve) का कोयला उत्खनन है, मध्यप्रदेश और तेलंगाना का रेलवे पुल है, जो कवल बाघ अभ्यारण्य (Kawal Tiger Corridor) से गुजरेगा.
  3. उत्तराखंड वन विभाग ने 2024 के कुम्भ मेला के लिए राजाजी नेशनल पार्क और नरेंद्र नगर वन प्रक्षेत्र का 788 हेक्टेयर संरक्षित वन की जमीन कुम्भ मेला समिति को देने की पेशकश की है. यह राजाजी नेशनल पार्क, जो एक बाघ अभ्यारण्य है, का नॉन फारेस्ट उपयोग Wildlife (Protection) Act, 1972 और The Forest Conservation Act, 1980 के खिलाफ है. अक्टूबर 2019 में MoEF & CC ने असंरक्षित वन का बिना सरकार के अनुमति के अधिक से अधिक 2 सप्ताह तक इस्तेमाल करने की अनुमति दी है. लेकिन इस केस में एक संरक्षित वन, नौ महीने के लिए, कुम्भ मेला समिति द्वारा इस्तेमाल किया जाना है.
  4. MoEF & CC ने 23 अप्रैल को अरुणाचल प्रदेश में स्थित एतालिन जल विद्युत परियोजना (Etalin Hydro Electric Project) को मंजूरी दी.

इन सभी में लाखों में पेड़ काटे जाएंगे, वन्य जीवों के क्षेत्र कम होने से वे जंगलों से बाहर आएंगे और लोगों द्वारा मारे जाएंगे. तो आप देख सकते हैं कि मनुष्य का हमेशा से चला आ रहा स्वार्थ और प्रकृति को बचाने की नई पहल के बीच खींचातानी कैसे चल रहा है. ऊपर वाले सारे सरकार के आर्थिक निर्णय है और किसानों के पराली जलाने के आर्थिक निर्णय से किसी भी तरह भिन्न नहीं है.

पराली से कितना वायुप्रदूषण ?

अब हमलोग यह देखेंगे कि पराली से वायुप्रदूषण को जितना विकट बताया जा रहा है, आखिर वह कितना विकट है ? सरकार का यह मानना की पराली जलाना वायु प्रदूषण का एक बड़ा वजह है और इसके समाप्त होने से वायु प्रदूषण बहुत कम हो जायेगा, का आंकड़ों से विश्लेषण किया जाए. मुद्दा दिल्‍ली के गहराती वायु प्रदूषण की समस्या को लेकर शुरू हुआ था. दिल्‍ली और केंद्र सरकार वायु प्रदूषण का समाधान न होते देख पूरा का पूरा ठिकरा किसानों पर फोड़ना चाहता था और हर साल आंकड़े पेश किए जाने लगे. खासकर पीएम 2.5 (Particular Matter) को एक बहुत बड़ा विलेन बताया जाने लगा.

वायु प्रदूषण में दिसंबर, जनवरी में आई तेजी को पराली का परिणाम बताया जाने लगा. पर बिना अन्य कारकों जैसे उद्योगों, वाहनों, कचरा जलाने को अलग किये यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जाना चाहिए था कि पराली ही इसका कारक है. जब कोरोना के चलते दिल्‍ली लौकडाउन में था, तो अन्य कारक नगण्य थे, लेकिन पराली फिर भी जलाया गया. इस समय वायु प्रदूषण के आंकड़ों से बिल्कुल सही पता चलेगा कि पराली जलाना कितना खतरनाक है. आप नीचे के ग्राफ में देख सकते हैं कि किसी भी साल जुलाई, अगस्त, सितंबर महीनों में दिल्‍ली में सबसे कम प्रदूषण रहता है. उस समय वर्षा का मौसम होने के चलते वायु में PM2.5 धूल जाते हैं और प्रदूषण कम हो जाता है.

आप यह भी देख सकते हैं कि यह औसतन लगभग 100 के स्तर तक आ जाता है. उस समय कही पराली भी नहीं जलाया जाता, यानी इतना PM2.5 तो दिल्ली में रहता ही है. इसके बाद प्रदूषण बढ़ना शुरू होता है और दिसंबर में उच्चतम स्तर पर आ जाता है. इसके जिम्मेदार कुहासे है जो वायु के धूलकण, PM2.5 आदि को देर तक हवा में रखते हैं. इसके बाद प्रदूषण का स्तर गिरना शुरू होता है और मई में एक छोटा उछाल लेता है, जो कि गर्मियों में धूल की आंधियों की देन है. याद रहे कि जनवरी में पराली जलाया जाता है इसलिए दिसंबर और जनवरी के आसपास प्रदूषण में बढ़ोत्तरी को पराली का देन बताकर सरकार आम नागरिक को करोड़ों खर्च कर गुमराह कर रही है.

आप देख सकते हैं कि अप्रैल महीने में प्रदूषण में कितना अंतर (190-115=75) है. आप इस अप्रैल के PM/2.5 के स्तर (115) का दिल्‍ली के न्यूनतम स्तर (100) से भी तुलना कर सकते हैं. यदि 190-100=90 को पूरा प्रदूषण मान लीजिये तो 15÷90*100-7% PM2.5 पराली जलाने से आया है और 83% दिल्‍ली का अपना प्रदूषण है.

पर बात इतनी ही नहीं है. बिना समय के पहलू को जोड़े, यह आंकड़ा, सही बात प्रकाश में नहीं लाएगा. पराली साल में दो बार जलाया जाता है जबकि दिल्‍ली का अपना प्रदूषण सालों भर का है, जो कुहासे, आंधियां, वर्षा के कारण ज्यादा या कम गंभीर होते रहता है. अप्रैल ऐसा महीना है, जब प्रकृति प्रदूषण के गंभीरता को प्रभावित नही के बराबर करता है. ऐसे में हरेक महीने का PM2.5 का स्तर 75 में लिया जाए और 2 महीने के पराली के प्रदूषण को 2 महीने पर डिस्ट्रीब्यूट कर दिया जाए तो PM2.5 का स्तर (15*2)÷12 = 2.5 बैठता है. आप देख सकते हैं कि किस तरह से प्रदूषण के 3.2% जैसे नगण्य कारक को लाखों करोड़ों खर्च कर प्रदूषण का मुख्य कारक बताया जा रहा है और 96.8% के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है. मुझे एक कहावत याद आती है, सोनवा दहाइल जाए, कोयला पर छापा परे. चित्र 4 देखें.[4]

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चित्र – 4

यदि फिर भी सरकार अपनी जिद्द पर अड़ी रहना चाहती हैं तो वैज्ञानिक तरीके से कार्बन ट्रेडिंग के तौर पर प्रदूषण के भागीदारी के अनुसार दंड तय किया जाए. आप पाएंगे कि बहुत सारे सरकारी विभाग और कंपनियां या तो जेल के सलाखों के पीछे होंगे या जुर्माना भर रहे होंगे, जबकि किसानों को 10 महीने नेट हरियाली बढ़ाने के लिए पुरस्कृत किया जाएगा.

यही नहीं, वायु प्रदूषण की विकरालता शहरीकरण के साथ साथ बढ़ती जाती है. जितना बड़ा शहर, उतना विकराल वायु प्रदूषण. यह न तो गांवों की समस्या है, न देन. शहरों के वायु प्रदूषण का 97% उनकी अपनी देन है, तो गांवों को विलेन बताना व्यवस्था द्वारा शहरी जनता को समस्या के मूल से भटकाना है और सरकार का अत्याचार है.

सही पूछिये तो पराली जलाना आमजन के लिए कोई समस्या नहीं है. फिर भी यदि समाधान निकाला जा सकता है तो निकालने में हर्ज नही है, आखिर किसानों को भी इससे आर्थिक रूप से फायदा होगा.

कोई भी समाधान हो, समय के पहलू को भी ध्यान में रखना आवश्यक है. फसल के कटनी के एक-डेढ़ महीने (बिहार में कहीं कहीं तो 5 दिन) के बाद किसान अगले फसल की तैयारी शुरू कर देता है. यानी बस इतना ही समय है, पराली को उसके स्रोत के पास ठिकाने लगाने का. वहां से कहीं अलग ले जाकर ठिकाने लगाने के लिए अगले फसल की कटाई तक का लगभग 4-5 महीने का समय उपलब्ध रहेगा.

समाधान के तौर पर

  1. किसानों को प्रताड़ित करने के बजाय, उन पर जिम्मेदारी डालने के बजाय सरकार खुद खेतों से पराली उठा ले जाये.
  2. उद्यमियों को हर पंचायत के लिए 100% अनुदान पर बायो डाइजेस्टर दिलवाए. वे किसानों को पराली बटोरकर लाने का दाम देंगे यानी खरीदेंगे और बदले में खाद और गैस/बिजली बेचेंगे या फिर पराली से कोई अन्य चीज बनाने पर सरकार शोध करे और उद्यमियों के हवाले करे.

सरकार के कामों की समीक्षा करने पर ऐसा लगता है कि वहां न तो कोई गहराई से सोचने वाला है ना ही कोई सही से प्राथमिकता का क्रम तय करने वाला है. यह पराली ही नहीं हर काम में, योजना में दिखता है. इनमें जो करोड़ो रूपये बर्बाद होते हैं वह जनता का ही है. जनता को निश्चित रूप से व्यवस्था बदलने की जरूरत है. न किसान विरोधी सरकारों को अंग्रेजों के तरह केवल कर वसूलने, नहीं तो कोड़ा बरसाने की नीति के बजाय सकारात्मक कदम उठाना चाहिए और किसान संगठनों को निश्चित रूप से बातचीत में शामिल करना चाहिए.

  • पूर्व सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल, किसान नेता, उद्यमी, लेखक, विचारक. संयोजक, ग्रामीण संघ एवं पटेल बुद्धिजीवी संघ, 8610136135

संदर्भ –

  1. ये आंकड़े nfsm.gov.in वेबसाइट से लिये गए हैं.
  2. ये आंकड़े farmer.gov.in वेबसाइट से लिये गए हैं.
  3. स्त्रोत : https//www.nddb.coop/information/stats/pop
  4. आकंड़ों का स्रोत : https//www.aqicn.org/dataplateform/register/ आनंद विहार दिल्‍ली के लिए.

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ROHIT SHARMA

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