बातों के गलियारों से निकल कर
जब मैं पहुंचता हूं
तुम्हारे अघोर वृष्टि वन में बने
कुटिया तक
अचानक बदल जाते हैं शब्दार्थ
दुनिया की सारी भाषाओं की लिपियां
प्रयुक्त या विलुप्त
मुँह चिढ़ाते हैं मुझे
पंद्रह मिनट तक
हमबिस्तर होने वाली रंडियां
जैसे मेरे जीने से उतरने के पहले ही
बाल्कनी पर आ जातीं हैं
नए ग्राहकों को रिझाने
ये और बात है कि उन पंद्रह मिनटों में
उन्होंने सौंपा था मुझे अपना सर्वस्व
तुम्हारी कुटिया में
मैं एक नई भाषा की तलाश में हूं
एक ऐसी भाषा
जो न तो मेरे तालू में सिहरन पैदा कर सके
और न ही मेरी जीभ पर
क्यों कि
मैं अभी अभी निकल कर आया हूं
कटे हुए जीभों के जंगल से
जंगल
जो सिर्फ़ सांसें लेते हैं और छोड़ते हैं
किसी वेश्यालय के गर्म बिस्तर में दुबक कर
जहां हमारे जिस्म की गर्मियों के सिवा भी
कई और जिस्मों की गर्मियाँ हैं
और जहां हवा आने जाने के लिए
कोई खिड़की नहीं है
हरेक दीवार को मालूम है कि
उस पार क्या चल रहा है
फिर भी दीवारें हैं
और बहुत ढीठ हैं
तुम्हारे वर्षा वन में
ध्वनि ही काफ़ी है
और तुम्हारी आंखों का पानी
जिसमें मेरे भस्म को मिलता है नया शरीर
मैं देह के जीने चढ़ कर
पहुंचना चाहता हूं
किसी अनकही बात तक
लेकिन
तुम मेरे पास नहीं हो अदिति !
- सुब्रतो चटर्जी
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