उन्नाव या कठुवा जैसे मामलों के समय नए कानून की बात करना बचकाना है, इससे अपराधियों को ही मदद मिलती है.
उन्नाव में पीड़िता की FIR दर्ज कराने और आरोपियों की गिरफ़्तारी के लिए किसी नए कानून की जरूरत नहीं थी. किसी कानून ने पीड़िता के पिता की पिटाई का अधिकार नहीं दिया. उनके हत्यारों की गिरफ़्तारी के लिए भी किसी नये कानून की जरूरत नहीं थी.
कठुवा में भी बलात्कारियों के समर्थन में जुटी भीड़ के खिलाफ शांतिभंग के प्रयास, सांप्रदायिक उन्माद फ़ैलाने और सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाने के आधार पर कार्रवाई की जा सकती थी लेकिन दोनों ही जगह राजनीतिक वजहों से पीड़िता को न्याय से वंचित किया गया.
ऐसे मौके पर मौजूदा कानूनों के आधार पर ही कार्रवाई की बात ठोस और सार्थक होती है.
अगर नए कानून की बात करनी हो, तो भी उसे व्यापक दायरे पर लाकर बात हो. जैसे, उन्नाव के सन्दर्भ में यह बात हो कि अगर किसी प्रभावशाली व्यक्ति पर ऐसे आरोप लगे तो मामले में कोई अनुचित हस्तक्षेप न हो, इसे सुनिश्चित करना मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और डीजीपी का दायित्व होगा. ऐसे मामलों में फौरन कार्रवाई न हुई तो इन तीनों पर दायित्व आएगा.
कठुआ मामले में यह बात हो कि ऐसे किसी अपराध के मामले में सांप्रदायिक रंग देकर अनावश्यक हस्तक्षेप करने वाले विधायक, मंत्री, सांसद वगैरह की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी.
यूपी में भाजपा का एक विधायक कह रहा है कि तीन बच्चे की माँ से कोई रेप नहीं करता. वही विधायक 2019 के चुनाव को भगवान बनाम इस्लाम बता रहा है. उस विधायक को पकड़कर जेल भेजने लायक अनगिनत धाराएं हैं.
बात इस पर हो कि उस विधायक को तत्काल जेल भेजा जाए. जो लोग भी बलात्कारियों के समर्थन में ऊलजलूल विषय उठाकर मामले को भटका रहे हैं, उन सबको अपराध के सहयोगी के तौर पर अंदर करने की मांग हो.
किसी भी नए कानून की बात करना तो अपराधी का सह-अभियुक्त बनना है.
– विष्णु राजगढ़िया